Book Title: Dash Lakshan Vidhan
Author(s): Tekchand Kavi
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 36
________________ ३४ ] ********** ******** श्री दशलक्षण मण्डल विधान । घ्राण इन्द्रियनते गंध दो हैं सही । ताहि अनुकूल पाय जीव साता लही || जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै । पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धेरै ॥७ ॥ ॐ ह्रीं श्री घ्राणेन्द्रियभोगवांछा-विहीन- शौचधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । चक्षु इन्द्रियतने पांच रूप भोग हैं । ताहि चाहें अमर नाहिं तन रोग है । जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै । पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धेरै ॥८ ॥ ॐ ह्रीं श्री चक्षुरिन्द्रियभोगवांछा-विहीन- शौचधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । राग संगीत इन आदि सुर साजिये । सप्त स्वर भेद कर्ण भोग मन राजिये ॥ जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै । पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धेरै ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं श्री कर्मणेन्द्रियभोगवांछा-विहीन- शौचधर्मादायार्घ्यं नि. । भोग वांछित घने चित्त आधारजी । ताहि सेयर जीव सुख लहे अपारजी ॥ जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै । *** Jain Education International पूजि शौच धर्मको जु शौच स्थानक धेरै ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्री मनवांछितभोगवांछा-विहीन- शौचधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । तन अशुभ आपको सु चाम मय जानिये । सप्त मल घात पूरित सु घिन आनिये । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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