Book Title: Dash Lakshan Vidhan
Author(s): Tekchand Kavi
Publisher: Digambar Jain Pustakalay
Catalog link: https://jainqq.org/explore/004081/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIMदाता (कवि श्री टेकचंदजी कृत) स्याद्वाद अपरिग्रह ar अनेकान्तवाद अहिंसा प्राप्तिस्थान दिगम्बर जैन पुस्तकालय खपाटिया चकला, गांधीचौक, सूरत-३ : (0261) 2590621 मूल्यः-१५-०० For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण व्रत मंडल विधान का माडना ४ rench त्याग आर्जव आकिंचन्य पाटव ११ क्षमा ब्रह्मपर २३ १४ आत्म कल्याण के लिए दश प्रकार की प्रवृत्तियों को आचरित करने का उपदेश केवली भगवंतो. ने दिया है। मानव से महामानव और महामानव से अहँत परमेष्ठी पद तक पहुँचने के लिए यह दश लक्षण धर्म ही लोकोत्तर हैं। प्रत्येक धर्म की आराधना के साथ उनके प्रमुख भेदों की आराधना के अर्घ इस विधानमें आराधे गए हैं। यह । व्रत वर्ष में तीन बार भाद्रपद शुक्ला ५ से १४ माघ शुक्ला ५ से १४ तथा चैत्र शुक्ला ५ से १४ तक आराधित करना चाहिए। इस विधान का मंत्र इस प्रकार हैं। ___ॐ ह्रीं उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव सत्य शौच संयम तप त्याग अंकिचन ब्रह्मचर्य धर्मांगाय नमः। श्री दशलक्षण व्रत मंडल विधान का माडना (कपडे पर)। | "दिगम्बर जैन पुस्तकालय" खपाटिया चकला, गांधीचौक सूरत से । ।५००/- रूपये में पक्के रंग में मिलेगा। For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि श्री टेकचन्दजी कृत श्री दशलक्षण मण्डल विधान जोगी-रासा नेमीनाथो, देतो साथो, १ भव भव और न चाहूँ । भक्ति तिहारी, निशदिन मन वच, काय लाय करि गाऊं ॥ धर्म को तुम, वानी दश विधि, सो मोहि होउ सहाई । करुणासागर, सारस गर्भित, शीश नमों श्रुति गाई ॥ गीता छन्द धर्मके दश कहे लक्षण, तिन थकी जिय सुख लहै। भवरोगको यह महा औषधि, मरण जामन दुख दहै ॥ यह वरत नीका मीत जीकार, करो आदरतैं सही । मैं जजों दश विधि धर्मके अंग, तासु फल है शिवमही ॥ पद्धड़ी छन्द यह धर्म भवोदधि नाव जान, या सेयें भव दुख होइ हान । यह धर्म कल्पतरु सुक्ख पूर, मैं पूजों भव दुख करन दूर ॥ गीता छन्द यह वरत मन कपि गले माहीं, सांकली सम जानिये 1 गज - अक्षर जीतन सिंह जैसो, मोहतम रवि मानिये ॥ 'तुम्हारा साथ । 'जीवका मित्र । इन्द्रियरुपी हाथी को । For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** सुरथान माहीं वरत नाही, मनुज हूँ शुभ कुल लहैं। तातै सुअवसर है भलो, अब करौ पूजा धुनि कहै। बेसरी छन्द जाने दशलक्षण व्रत कीना, से सत्पुरुषनिमें परवीना। भवसागर फिरनो मिट जावै, जो नर दशलक्षण वृष भावै॥ भुजंगप्रयात छन्द यहीधर्म सारं करै पाप क्षारं, यहीधर्म सारं, करै सुख अपारं। यहीधर्मधीरा, हरैलोकपीरा, यहीधर्म मीरा करैलोकतीरा। त्रिभंगी छन्द यह धर्म हमारा, सब जग प्यारा, जगत उधारा हितदानी। यह दशविधि गाया, जन मन भाया, उच्च बताया जिनवानी॥ यह शिव करतारा, अघतें न्यारा, भवि उद्धारा मुनि धारा। ताकौ मैं ध्याऊं शीश नवाऊं, अर्घ चढ़ाऊं सुखकारा ॥ . चौपाई छन्द या व्रतकी महिमा कहि वीर, दशविधि धर्म हरै भवपीर। इसी धर्म बिन जग भरमाय, जजहु धरम अति दुरलभ पाय॥ दोहा-दश प्रकारको धर्म यह, दशविधि सुरतरु जान। वांछित पद सेवक लहैं, अधिक कहा सुखदान॥ सोरठा-धर्म हमारा नाथ, धर्म जगतका सेहरा। भव भवमें हो साथ, और न वांछा मन वि. ॥ मण्डल मध्ये पुष्पांजलि क्षिपेत्। १-स्वर्ग। २-धर्म। ३- प्रधान। ४-कल्पवृक्ष For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** (समुच्चय पूजा) त्रिभंगी छन्द यह धर्म क्षमावा मान गुमावा, सरल सुभावा सतिवानी। शुचि भाव करावा संजम लावा, तप करवावा अधिकानी॥ शुचि त्याग बतावै नगन पूजावै, शील बढ़ावै शिवदाई। यह धर्म दशारा' थाप करारा, पूजन धारा शिरनाई॥ ॐ ह्रीं श्री दशलक्षण धर्म अत्र अवतर अवतर संवौषट्। अत्र तिष्ठर ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं। मणुयणाणंदकी चाल क्षीर सागर तना नीर शुभ लाइये। कनक झारी वि. धार गुण गाइये। मरण उत्पति नहीं होय ता फल सही। जानि इमि धर्म दशधा जजौं शिवमहीं॥१॥ ॐ ह्रीं श्री दशलक्षण धर्मेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्व.। नीरं संग अगर चन्दन घिस लायजी। सुभग पातर विषै धारि थुति गायजी। जगत ताप तासु फल तुरत नाशै सही। जानि इमि धर्म दशधा जजौं शिवमही॥२॥ ॐ ह्रीं श्री दशलक्षण धर्मेभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्व.। लेय अक्षत भले मुक्ति फलसे कहे। उजले अखंड सुभग स्वर्ण पातर लहे॥ १-दशभेद वाला। For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** अखयपद पावनै आप मनमें सही। ___ जानि इमि धर्म दशधा जजौं शिवमही॥३॥ ॐ ह्रीं श्री दशलक्षण धर्मेभ्योऽक्षयपदप्राप्तयेऽक्षतान निर्व. स्वाहा। फूल कञ्चनवरन कल्पतरु के भले। गन्ध जुत रंग शुभ लेइ निज कर चले। माल तीन ग्रंथि कामबाण नाशक सही। जानि इमि धर्म दशधा जजौं शिवमही॥ ४॥ ॐ ह्रीं श्री दशलक्षण धर्मेभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्व.। सुगम नैवेद्य मोदक घने लाइये। विविध स्वादमय सु धरि भक्ति उर भाइये। भूख दुख हर्ण स्वर्ण पात्र धरिके सही। जानि इमि धर्म दशधा जजौं शिवमही॥५॥ ॐ ह्रीं श्री दशलक्षण धर्मेभ्यः क्षुधा रोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्व.। दीप मणि रतनमय और धृतमय सही। __ धारि कनक थालमें सु आरति जु करि लही॥ धर्मज्योति मोह अन्धकार नाशिका सही। जानि इमि धर्म दशधा जजौं शिवमही॥६॥ ॐ ह्रीं श्री दशलक्षण धर्मेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्व.। धूप दश अङ्ग मय लायकर सारजी। अगनि संग खेवहूं सुभक्ति उर धारजी॥ कर्म छयकार भव वास नाशन सही। जानि इमि धर्म दशधा जजौं शिवमही॥७॥ ॐ ह्रीं श्री दशलक्षण धर्मेभ्यः अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्व. स्वाहा। For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ******************** *** लोंग खारिक सु नारिकेल सुक्खकारजी । और बादाम पुंगी फलादि सारजी ॥ लेइ निज हाथमें सु भक्ति धरिकं सही । जानि इमि धर्म दशधा जजौं शिवमही ॥८ ॥ ॐ ह्रीं श्री दशलक्षण धर्मेभ्यो मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्व. स्वाहा । नीर गन्ध अक्षत सुफूल चरु सोईजी [५ ******* दीप अरु धूप फल अरघ संजौईजी ॥ पुरट थाली विषै भक्ति करिके सही । जानि इमि धर्म दशधा जजौं शिवमही ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं श्री दशलक्षण धर्मेभ्योऽनर्घ्यं पदप्राप्तयेऽर्घ्यं निर्व. स्वाहा । धर्म भवकूप तैं काढ़नेको रसी। भव उदधि पार करतार नवका इसी । धर्म सुख दैन जिमि तात माता सही । जानि इमि धर्म दशधा जजौं शिवमही ॥१० ॥ ॐ ह्रीं श्री दशलक्षणधर्मेभ्यो महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला-दोहा दश वृष रतन मिलायके, माल करै भवि जोय | धरै आपने उर विषै, ता सम और न कोय ॥ १ ॥ बेसरी छन्द दशलक्षण वृष शिवमग दीवार, धर्म थकी सुख पावै जीवा । मुकति दीप पहुंचावन नावा, ये दश धर्म जजौं जुत भावा ॥ १ - दीपक । For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। . . *************************************** दशविधि धरम धरै जो कोई, करम नाशि फिर दुख नहिंहोई। धरम जु साधन और न कोई, यों दश धर्म जजौं मद खोई॥ धरम जीवका पालनहारा, धरम मानका खण्डनवारा। धरम थकी जावै कुटिलाई, इमि दश धर्म जजौं चितलाई॥ सांच वचन सम धरम न आनौ, धर्म भाव निर्मल पहिचानौ। धर्म जीवरख इंद्रिय जीतं इमि लखि धर्म जजौं करि प्रीतं॥ तप ही सर्व धर्मका मूला, त्याग धरमतें क्षय अघ थूला। धर्म नगन सम और न कोई, इमि दश धर्म जजौ मद खोई॥ नारी त्याग धरम शिवदाई, ये दश धरम जगतमें भाई। जो दश लक्षण मनमें आनै, सो भव तप हर शिवपद ठाने । दश लक्षण व्रत इह विधि कीजै, उत्कृष्टै दश वास करीजै। नातर बेले पारन भाई, तथा इकंतर वास कराई॥ शक्ति हीन है तो सुन मीता, दश एकान्त करौ धरि प्रीता। व्रत दश बरस करै मन लाई, करु उद्यापन मन वच काई॥ नहीं उद्यापन शक्ति तुम्हारी, तो दूनौ व्रत करु सुखकारी। पीछे यथाशक्ति खरचावै, पूजन धर्म उद्योत करावै॥ दोहा- इत्यादिक विधि सहित जो, धर्म करै दश सार। पावै सुख मन भावनो, अनुक्रम ले भव पार ॥ ॐ ह्रीं श्री दशलक्षणधर्मेभ्यः पूर्णायँ निर्व. स्वाहा। . इति समुच्चय पूजा। . १-जीवकी रक्षा। २- आकिंचन्य धर्म। For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। ************************ ************** (उत्तम क्षमा धर्म पूजा) अडिल्ल छन्द जीव तिरस थावर जेते जगमें सही। देव नरक नर पशू चारि गतिकी मही॥ तिन सब ऊपर दयाभाव उर मांहि जी। सो है उत्तम क्षमा थापि जजूं याहिं जी॥१॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्मांग! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्मांग! अत्र तिष्ठ२ ठः ठः स्थापनं। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्माग! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ___ अथाष्टकम् (पद्धरी छंद) जल गंग नदीको विमल सोइ, धरि रतन पियाले शुद्ध होई। यह धरम क्षमा उत्तम सुजान, मैं पूजों मन वच भक्ति आन॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्माङ्गाय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं नि.। बावन चंदन घसि नीर लाय, धरिकनक रकेबी जिन चढ़ाय। यह धरम छिमा उत्तम सुजान, मैं पूजों मन वच भक्ति आन॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्माङ्गाय संसारताप विनाशनाय चंदनं नि.। अक्षत मुक्ताफल सम जुलाय,अति उज्वल नख शिख शुद्धभाय। यह धरम छिमा उत्तम सुजान, मैं पूजों मन वच भक्ति आन॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्माङ्गाय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्व.। शुभ फूल कल्पतरुके अनूप, करिमाला सुभग सुगन्धरूप। यह धरम छिमा उत्तम सुजान, मैं पूजों मन वच भक्ति आन॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्माङ्गाय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पं नि.। For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** नाना रस पूरित चरु सम्हार, शुभ मोदक आदि अनेक धार। यह धरम छिमा उत्तम सुजान, मैं पूजों मन वंच भक्ति आन॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्माङ्गाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि.। मणि दीपकसार बनायलाय, धरिकनक थाल भरिभक्ति आय। यह धरम छिमा उत्तम सुजान, मैं पूजों मन वच भक्ति आन॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्माङ्गाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि.। ले धूप अगरुजा गन्धकार, दुर्भाव हुताशन मांहि जार। यह धरम छिमा उत्तम सुजान, मैं पूजों मन वच भक्ति आन॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्माङ्गाय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा। फल नारिकेल बादाम सोइ, पुंगीफल खारक भक्ति जोइ। यह धरम छिमा उत्तम सुजान, मैं पूजों मन वच भक्ति आन॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्माङ्गाय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि. स्वाहा। जल चन्दन अक्षत फूल लाय, चरु दीप धूप फल अरघ भाय। यह धरम छिमा उत्तम सुजान, मैं पूजों मन वच भक्ति आन। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्माङ्गाय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ नि. स्वाहा। प्रत्येकााणि। अडिल्ल पाप प्रकृति कर जीव, अशुभ बन्धन करयो। थावर नामा कर्म उदय दुखको भरयो॥ पृथ्वी माहिं सु जाय सहै बहु अघ फला। तिनका रक्षण भाव क्षमा उत्तम भला॥१॥ ॐ ह्रीं श्री पृथ्वीकायिकपरिरक्षणरूपोत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** जे जलकायिक जीव ज्ञान बिन दुख लहैं। इक इन्द्रियके द्वार अतुल विपदा सहैं। तिनको दुखमय जानि मुनि करुणा करै। तसु प्रसादः झटिति मोक्ष वनिता व ॥२॥ ॐ ह्रीं जलकायिकपरिरक्षणरुपोत्तम क्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। अगनि काय धर जीव एक इन्द्रिय सही। नाना दुख तन सहै जलैं सब जग मही॥ इन पर करुणाभाव धरै जे भवि सही। सो ही उत्तम क्षमा मोक्षदाता कही॥३॥ ॐ ह्रीं अग्निकायिकपरिरक्षणरुपोत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्यं नि.। पवन कायके जीव महा सङ्कट सहैं। हाथ पांव मुख वचन थकी बाधा लहैं। इनपर करुणाभाव जती धारै सही। सो ही उत्तम क्षमा कही शिवकी मही॥४॥ ॐ ह्रीं वायुकायिकपरिरक्षणरुपोत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्य नि. स्वाहा। हरित कायमें प्राणी अति वेदन लहै। छेदन भेदन कष्ट महा अघ फल सहै। इन पर समता भाव सुखी इनको चहै । सो ही उत्तम क्षमा धारी मुनि शिव लहै॥५॥ ॐ ह्रीं वनस्पतिकायिकपरिरक्षणरुपोत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। थावर के पन भेद · पाप फलते बने। सूक्ष्म बादर भेद दोय यों जिन भने। For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** इनको दुखमय जानि दया मन लाय हैं। सो ही उत्तम क्षमा जजौं शिर नाय है॥६॥ ॐ ह्रीं सूक्ष्मस्थूल पंचस्थावरपरिरक्षणरुपोत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। लट अरु जोंक गिंडोला इल्ली जानिये। कौड़ी शंख दुइन्द्रिय अति दुख थानिये। इन पर करुणाभाव जती धारै सही। . सो ही उत्तम क्षमा जजौं शिवकी मही॥७॥ ॐ ह्रीं द्वीन्द्रियजीवपरिरक्षणरूपोत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्व. । चींटी कंथा खटमल वीछु दुखमही। ते इन्द्रिय परजाय पाय धुण आदि ही॥ इनको दुखमय जानि मुनि करुणा धरैं। सो ही उत्तम क्षमा जजौं सब अघ जरै॥८॥ ॐ ह्रीं त्रीन्द्रियजीवपरिरक्षणरूपोत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्व.। माखी मच्छर टीडी भंवरादिक सही। बर्र ततइया मकड़ी चतुरिन्द्रिय कही। इनको दुखिया देखि मुनि करुणा धरैं । ___ सो ही उत्तम क्षमा जजौं वसुविधि जरै ॥९॥ ___ॐ ह्रींचतुरिन्द्रियजीवपरिरक्षणरूपोत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्व.। इन्द्रिय पांचों होय, नहीं मन जो लहै। ते जिय जानि असैनी अघ फल अति दहैं। इनको दुःख भरिपूर जानि करुणा धरैं। सो ही उत्तम क्षमा जजौं शिवथल धरै ॥१०॥ ॐ ह्रीं संज्ञी पंचेन्द्रियजीवपरिरक्षणरूपोत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्यं नि.। For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। [११ * * * * * * * * * * ** * * * * * * ** * * * * * ** * * * * * * * * * * * * नरक जीव अति दुखी पाप फलतें सही। छेदन भेदन पीर सहैं जात न कही। इन पर करुणाभाव जती अति लाय हैं। सो ही उत्तम क्षमा जजौं सुखदाय है॥११॥ ॐ ह्रीं नारकीजीवपरिरक्षण-रुपोत्तम-क्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्व.। . गीता छन्द मनुष क्रोध रु मान माया, लोभवश दुखिया घनें। बहु चाह पीडित रागद्वेषी, अघ घनो उपजे तिने॥ तिन देख यतिवर दया लावे, महा दीन दयालजी। सो धर्म उत्तम क्षमा निर्मल, जजौं भाग्य विशालजी॥ ॐ ह्रीं मनुष्यजीव-परिरक्षण-रूपोत्तमक्षमा-धर्माङ्गाय अर्घ्य निर्व.। परकार चारों देव गतिमें, जीव सुख राचै सही। लछि देखि परकी झुरै नितही, मानते पीड़ा कही॥ तिन देखि मुनि उर दया भावै, महा कोमल भाव जो। सो धर्म उत्तम क्षमा पूजौं अर्घ तें कर चावजी॥ ॐ ह्रीं चतुर्विधिदेवजीव परिरक्षण-रूपोत्तम-क्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्यं नि.। . बेसरी छन्द थावर तिरस जीव जब जोई चहुँ गति करमनिके वशि होई। तिनको देखि दया उर लाई, सो उत्तम क्षमा धर्म जजाई॥ ॐ ह्रीं त्रसस्थावर-समस्तजीव-परिरक्षण-रूपोत्तम-क्षमाधर्माङ्गाय अयं । .. जयमाला-दोहा धर्म क्षमा उत्तम बडो, सब जीवन सुखदाय। जजै जीव सो पुनि लहै, करै जु शिवपुर जाय॥ For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** ___ बेसरी छन्द .. सब जीवन में राग न दोषा, सो है क्षमा धर्म निरदोषा। दुर्जन कृत उपसर्ग लहावै, ताहू पै समभाव रहावै॥ मुनिको वचन कहै दुखकारी, मरम छेद छेदै अघ धारी। मान खंड किरिया करवावै, तब मुनि क्षमा धर्म मन लावै॥ जे कोय दुष्ट मुनिनको मारे, तीक्ष्ण शस्त्रौं करि परिहारै। बांधे तनको खेद न पावै, तिनपर क्षमा धर्म मन लावै॥ अति दुखिया जिय को ऋषि जानै, तब मुनिअनुकंपामनआन। आपा परको हित उपजावै, तब मुनि क्षमा धर्म मन लावै॥ उत्तम क्षमा धरम सुखदाई, क्षमा धरम सब जियका भाई। जब मुनिहुपै कष्ट जु आवै, तब मुनि क्षमा धर्म मन लावै॥ क्षमा धरमसी ढाल न होई, क्रोध समान प्रहार न कोई। क्षमा समान न बल अति पावै, तातें जतो क्षमा वृष भावै॥ क्षमा धरम शिव राह बताई, क्षमा तात माता अरु भाई। जाते सिद्ध सुखनको पावै, ऐसी क्षमा मुनि मन लावै॥ सोरठा। क्षमा आभूषण सार, उर में जो पहिरे सही। ते भवसागर पार, जजौं धर्म उत्तम क्षमा॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा-धर्माङ्गाय पूर्णायँ । ॥ इति उत्तमक्षमाधर्म पूजा॥ For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ******************* उत्तम मार्दव धर्माङ्ग पूजा पद्धडी छन्द मार्दव वृष भाव विचार सोइ, जहां मान भाव दीखे न कोइ । ईहधारी मुनि शिवगामी जानि, मैं जजौं थापि मार्दव सुभानि ॐ ह्रीं श्रीउत्तममार्दवधर्म धर्माङ्ग अत्र अवतर२ संवौषट् । अत्र तिष्ठर ठः ठः स्थापनं अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् सन्निधिकरणं । अथाष्टकम् (मणुयणानन्द की चाल ) क्षीर सम नीर शुद्ध गाल कर लाइये । पात्र सुवरण विषै धारि गुण गाइये ॥ जगतफिरनौ मिटे तासु फलतैं सही । धर्म मार्दव जजौं शुद्ध शिवदा मही ॥२ ॥ ॐ ह्रीं उत्तममार्दव-धर्माङ्गाय जलं निर्व. स्वाहा । स्वच्छ नीर संग चंदनादिको मिलायजी । [१३ ***** शुद्ध गंधयुक्त भक्ति भावतैं चढ़ायजी ॥ जगत आताप- हर जानि ता फल सही । धर्म मार्दव जजौं शुद्ध शिवदा मही ॥३ ॥ ॐ ह्रीं उत्तममार्दव-धर्माङ्गाय चंदनं निर्व. स्वाहा । अक्षतं समुज्ज्वलं खंड बिन जानिये । सुभग मोती जिसे थाल भरि आनिये ॥ ध्रौव्य फलदाय मनलाय ध्याऊं सही । धर्म मार्दव जजौं शुद्ध शिवदा मही ॥४॥ ॐ ह्रीं उत्तममार्दव-धर्माङ्गाय अक्षतं निर्व. स्वाहा । For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** फूल कल्पवृक्षके गंध रंग सारजी। माल गूंथि शुद्धभाव भक्ति कर धारजी। मदन मद हरन सुफल जानि यातें सही। धर्म मार्दव जजौं शुद्ध शिवदा मही ॥५॥ ॐ ह्रीं उत्तममार्दव-धर्माङ्गाय पुष्पं निर्व. स्वाहा। सुभग रस शुद्ध नैवेद्य मन लाइये। . मोदकादि शुद्ध भक्ति भावतें चढ़ाइये। धारि स्वर्णपात्र शुद्ध मन वचन तन सही। धर्म मार्दव जजौं शुद्ध शिवदा मही॥६॥ ___ ॐ ह्रीं उत्तममार्दव-धर्माङ्गाय नैवेद्यं निर्व. स्वाहा। दीप रतननमयी नाश तमको करा। कनक पातर विषै भक्ति भावतें धरा॥ नाश अज्ञान है. तासु फलतें सही। धर्म मार्दव जजौं शुद्ध शिवदा मही॥७॥ ॐ ह्रीं उत्तममार्दव-धर्माङ्गाय दीपं निर्व. स्वाहा। धूप दशगंध शुभ लेय मन मानिये। . अगर चंदन सबै मेली शुभ ठानिये॥ अग्नि संग खेइये कर्म जालन सही धर्म मार्दव जजौं शुद्ध शिवदा मही॥८॥ ॐ ह्रीं उत्तममार्दव-धर्माङ्गाय धूपं निर्व.स्वाहा। श्रीफलादि लौंग पुङ्गी फलादि जानिये। शुद्ध बादाम खारक भले आनिये ॥ For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। .. [१५ *************************************** सिद्ध थानक लहै तासु फलतें सही। धर्म मार्दव जजौं शुद्ध शिवदा मही॥९॥ ॐ ह्रीं उत्तममार्दव-धर्माङ्गाय फलं निर्व.स्वाहा। नीर चंदन अखित पुष्प चरु दीप जी। धूप फल अर्घ कर भाव शुद्ध टीपजी॥ लोक में फिरन, तन धरन मिटि है सही। धर्म मार्दव जजौं शुद्ध शिवदा मही॥१०॥ ॐ ह्रीं उत्तममार्दव-धर्माङ्गाय अर्घ्य निर्व. स्वाहा। प्रत्येकााणि (चाल मणुयणानन्दकी) देव वीतराग सर्वज्ञ तारक सही। दोष अष्टादशों तासु माहीं नहीं। नमत तिन पद करै धर्म मार्दव कह्यो। सो जजौं चारि गति मांहि भरमन दह्यो॥१॥ ॐ ह्रीं वीतरागदेवपद नमन-मार्दवधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्व.। वीतराग देव कही वानि सो धर्म है। ता सुनै जीव निज हरै भाव भर्म है। मन वच काय श्रुतपाद सिरनाय है। सो जजौं धर्म मार्दव सु शिवदाय हैं॥२॥ ॐ ह्रीं श्री जिनधर्मपद नमन-मार्दवधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्व.। धर्मको सेय तप लेय.कर्म जार जी। भये सिद्ध देव तन रहित सुखकार जी॥ For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** लेय इन नाम मन वचन शिरनाय है। .. सो जजौं धर्म मार्दव सु शिवदाय है ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपदनमन मार्दवधर्माङ्गायअयं निर्व. स्वाहा। धारि छत्तीस गुण सूरि सुखदाय जी। धर्म तप भाव सों गुप्त धरि भाय जी। मान तजि नमन इन पद विषं लाइयो। धर्म मार्दव सु तासु फल मोक्ष पाइयो॥४॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्यपदनमन मार्दव धर्माङ्गाय अर्घ्य निर्व. स्वाहा। धारि गुण पांच अरु बीस उवझायजी। और भी अनेक गुण पास तिन थायजी॥ मान तजि इन चरण कायको नाइयो। धर्म मार्दव सु तासु फल मोक्ष पाइयो॥५॥ ॐ ह्रीं श्री उपाध्यायपद-नमन मार्दव-धर्माङ्गाय अर्घ्य निर्व.। क्षेत्र अतिशय तहां धर्म को धाय है। नमन बहु जिय करै देव गुण गाय है। मान तजि क्षेत्र शुभ जानि शिर नाइयो। धर्म मार्दव सु तासु फल मोक्ष पाइयो॥६॥ ॐ ह्रीं श्री अतिशयक्षेत्र-पद-नमन मार्दव-धर्माङ्गाय अर्घ्य निर्व.। देव जिन की सु प्रतिमा अकृत्रिम इसी। रूप द्युति ध्यान मुद्रा कही जिन जिसी॥ . मान तजि शीश इन चरणको सु नाइयो। धर्म मार्दव सु तासु फल मोक्ष पाइयो॥७॥ ॐ ह्रीं श्री अकृत्रिम-जिन-चैत्यपदनमन मार्दव-धर्माङ्गाय अर्घ्य निर्व.। For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७ *************************************** श्री दशलक्षण मण्डल विधान। सुरग थानक विषै देव जिनके सही। रतनमय जैन बिंब बिगर किये है मही। मान तजि शीश इन चरणको सु नाइयो। धर्म मार्दव सुंतासु फूल मोक्ष पाइयो॥८॥ ॐ ह्रीं श्री उर्ध्वलोकसंबंधी जिनचैत्यूपट्टनमन मार्दवधर्माङ्गाय अर्घ्य । ज्योतिषी व्यंतरा थाने अध्यलोक जी। बिन किये चैत्य जिन कहै अघ रोकजी। मान तजि शीश इन चरणको सु नाइयो। धर्म मार्दव सु तासु फल मोक्ष पाइयो॥९॥ ॐ ह्रीं श्री मध्यलोकसंबंधी जिनचैत्यपदनमन मार्दवधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। भवन देवनि विषै बहुत जिनरायजी। बिम्ब अकृत्रिम कहे सेय तसु पायजी॥ मान तजि शीश इन चरणको सु नाइयो। धर्म मार्दव सु तासु फल 'मोक्ष पाइयो॥१०॥ ॐ ह्रीं श्रीउर्ध्वलोकसंबंधी जिनचैत्यपदनमन मार्दवधर्माङ्गाय अयं नि.। आदि इन पूज्य थानक बहुत हैं सही। . सिद्ध क्षेत्र मोक्ष फलदाय तीरथ मही॥ मान तजि शीश इन चरणको सु नाइयो। धर्म मार्दव सु तासु फल मोक्ष पाइयो॥११॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धक्षेत्र-पदनमन मार्दवधर्माङ्गाय अयं निर्व.। .. जयमाला। (बेसरी छन्द) मार्दव धर्म मानको खोवै, ताफल जगत पूज्य फल होवें। मार्दव सकल दोष निरवार, ताफल आप तिरै अनि तारै॥ For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** १८] मार्दव धरम इन्द्र सुर पूर्जे, मार्दव धरम भजै अघ धूजै। मार्दव मान हरै सुखकारै, ताफल आप तिरै अनि तारै। मार्दव धरम महा नर ध्यावै, मार्दव धरम हानि नहिं पावै। यह मार्दव वृष शिव थल धारै,ताफल आप तिरै अनितारै॥ मार्दव सबको राखै माना, मार्दव सब धरमनि में दाना। मार्दव धरम जीव ले धारै, ताफल आप तिरै अनि तारै ।। मार्दव धरम सुरग सुख केरा, उपद्रव नाशि हरै भव फेरा। मार्दव उत्तम पुरुष सु धारै, ताफल आप तिरै अनि तारै॥ मार्दव मोक्षमार्गको दाता, मार्दव धर्म सकल जग त्राता। मार्दव वृष गुणवन्ता धारै ताफल आप तिरै अनि तारै ।। मार्दव धरम कल्पतरूभाई, मार्दव मनवांछित फलदाई। मार्दव धरम मुकुट जो धारै, ताफल आप तिरै अनि तारै॥ मार्दव धरम कनकमें मीना, मार्दव धारि सकै न कमीना। मान मार मार्दव वृष धारै, ताफल आप तिरै अनि तारै ॥ मार्दव वृष सब धर्म प्रधाना, मार्दव मोह मल्लको हाना। मार्दव माल पुरुष उर धारै, ताफल आप तिरै अनि तारै !! दोहा मान मार मार्दव करै, हरै पाप मल सोय। जगत छुड़ावै शिव करै, ते भारक्षक होय॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तम मार्दव धर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। * * * * * * * * * * * * * ** * * * * * * ** * ** * * ** * * * * * * ** - - उत्तम आर्जव धर्म पूजा) बेसरी छन्द जग परपंच रहित जो भावा, सरल चित्त सबतै निरदावा। तिनको आर्जवभावसु कहियें,सो ह्यां थापि पूज फल लहिये। ॐ ह्रीं श्री उत्तमआर्जव धर्माङ्गाय अत्र अवतर२ संवौषट् । अत्र तिष्ठ२ ठः ठः। अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् सन्निधिकरणं। अथाष्टकं (बेसरी छन्द) क्षीर समुद्रका उज्जवल नीरा,कनक पियाले घर अति धीरा। जरा रोग नाशनको भाई, आर्जव भाव नमो शिर नाई। ___ॐ ह्रीं श्री आर्जवधर्माङ्गाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि.। चंदन बावन जल घसि लाया, कनकपात्रमें धरि उमगाया। शोकानल तप नाशन भाई, आर्जव धरम जजौ शिर नाई। __ॐ ह्रीं श्री आर्जवधर्माङ्गाय संसारताप विनाशनाय चदनं नि.। अक्षत मुक्ताफलसे जानो, उज्जवल खंड विवर्जित आनो। क्षय नहि होय इसी पद दाई, आर्जव भाव नमो शिर नाई। ॐ ह्रीं श्री आर्जवधर्माङ्गाय अक्षयपदप्राप्तयेऽक्षतान नि.। फूल सुगंध कल्पद्रुम लाया, तथा सुवर्ण रजतमय भाया। तिनकी माला गुंथिकर लाय, आर्जव भाव नमो शिरनाई॥ ____ॐ ह्रीं श्री आर्जवधर्माङ्गाय कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं नि. नाना रस नैवेद्य करावै, मोदक आदि भक्तिते लावे। भूख व्याधि नाशनको भाई, आर्जव भाव नमो शिरनाई। ॐ ह्रीं श्री आर्जवधर्माङ्गाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि.! For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] *** श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ******************** **** दीपक रतन थालि धरि लीजै, मनवचकाय शुद्ध करी लीजै । घाति अज्ञान ज्ञान दरशाई, आर्जव धरम जजै शिरनाई ॥ ॐ ह्रीं श्री आर्जवधर्माङ्गाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं नि. । धूप अगरजा चंदन भीनी, गंध सहित निज करमें लीनी । कर्म दहनकी अगनि जराई, आर्जव भाव नमौ शिर नाई ॥ ॐ ह्रीं श्री आर्जवधर्माङ्गाय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. । ले नारियल बादाम सुपारी, खारिक लौंग आदि हितकारी सिद्ध लोक वांछा मन मांही, आर्जव धरम जजौ शिरनाई ॥ ॐ ह्रीं श्री आर्जवधर्माङ्गीय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. । जल चंदन अक्षत कामारी, चरु दीपक फल धूप विथारी । अर्घ लेय मनवचतन भाई, आर्जव धरम जजौं शिर नाई ॥ ॐ ह्रीं श्री आर्जवधर्माङ्गाय अनर्घ्यपद प्राप्तयेऽर्घ्यं नि. । प्रत्येकार्याणि ( बेसरी छन्द) गुण छयालीस जहां प्रभु तेरा, अष्टादश तहां दोष न हेरा । तिनपदसरल भावशिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिव पावै ॥ ॐ ह्रीं श्री छियालीसगुणसहितजिन चरणनमनार्जवधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । मुक्तजीव अरहंत थूति कीजै, मनवच कूटिल भाव तजि दीजै । तिनपद सरलभाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिव धावै ॥ ॐ ह्रीं श्री मुक्तजीव अरहन्तपदनमनार्जवधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । कर्म काटि शिवलोक सिधारे, सिद्ध सुदेव हरौ अघ सारे । तिनपद सरल भाव शिरनावै, सो आर्जव वृष जजि शिवधावै ॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपदनमनार्जवधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान । *********************** * सिद्ध शिला पैतालीस लाखा, योजन विस्तृत जिन वच भाषा । तत्रस्थित आतम शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिव धावै ॥ ॐ ह्रीं श्रीसिद्धशिलास्थित मुक्तात्मपद नमनार्जवधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । गुण छत्तीस सुधारक सुरा, आचारज सब गुण भरपूरा। तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिवधावै ॥ [२१ ****** ॐ ह्रीं श्री आचार्यपद - नमनार्जव-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । आचारज सब गुण भरपूरा, आचारादि गुणन युत सूरा। तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिवधावै ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्य - पदपरोक्ष- नमनार्जव-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । गुण पचीस उवझाय सु माहीं, ग्यारह अंग चौदह पुरवाहीं । तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिव धावै ॥ ॐ ह्रीं श्री उपाध्यायपद- नमनार्जव-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । बहु गुण धर उवझाय सु जानौं, दूरहितै तिनको चित आनो । तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिवधावै ॥ ॐ ह्रीं श्री उपाध्यायपद-परोक्ष- नमनार्जवधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । बीस आठ गुण साधन साधा, सो नहि लहै जगत की बाधा । तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिव धावै ॥ ॐ ह्रीं श्री साधुपदनमनार्जव - धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । दूरहितै मुनि गुण जु चितारै, मन वच काया निज वश धारै । तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिव धावै ॥ ॐ ह्रीं श्री साधुपद - परोक्षनमनार्जव-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । वरण विहीन सु जिनवर वानी, तिनको सुनि सुख पावै प्रानी । तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिव धावै ॥ ॐ ह्रीं श्री जिनमुनि नमनार्जव-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] ******** श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ******************* **** अतिशय क्षेत्र सु तीरथ ठामा, यात्री गण कै पूरैं कामा । तिसथल सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृषजजि शिवधावै ॥ ॐ ह्रीं श्री अतिशय क्षेत्रपद- नमनार्जव-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । शिखरसम्मेद आदि सिद्ध थाना, तहँमुनि लियशिव कर्म नशाना । तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिव धावै ॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्ध क्षेत्रपद- नमनार्जव-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । विगर किये जिनबिंब अनूपा, लक्षण चिह्न जानि जिन रूपा । तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिव धावै ॥ ॐ ह्रीं श्री अकृत्रिम - जिनचैत्यपद - नमनार्जव - धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । कृत्रिम जे जिन बिंब बिराजे, विनय सहित पुन दायक छाजै तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिव धावै । ॐ ह्रीं श्री कृत्रिम - जिनचैत्यपद - नमनार्जव-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । इत्यादिक बहु क्षेत्र सुथाना, पूजनीक तीरथ अघ हाना तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिव धावै । ॐ ह्रीं श्री सकलपूज्यस्थानकपदद- नमनार्जव-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । जयमाला दोहा - सरल भाव सारै सरस, सुरनर पूज्य महान । तातै तजनी कुटिलता, आरजव भाव लहान ॥ बेसरी छन्द सरल भाव समता उर आनै, सरल भाव सब औगुन भानै आरजव भाव धेरै जो जीवा, तिनने जिनवानी रस पीवा For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। [२३ *************************************** आरजव भाव धरै जे प्राणी, तिनके होनहार शिवरानी। दोष भाग तिनतें नहिं छीवा, आरजव भाव धरै जे जीवा॥ आरजव भाव अमरपद द्यावै, आरजव में औगुन नहिं पावै। कुटिलभाव विष जिन नहिं पीवा, आरजवभाव धरैजे जीवा आरतिको आरजव ही खोवै, आरजव भाव पापमल धोवै। रोग शोक ताको नहिं छीवा, आरजव भाव धरै जे जीवा। आरजव शुद्धभाव जिन पाया, तिनने लहि पुन, पाप गमाया। अनुभव आनन्द तानै छीवा, आरजव भाव धरै जे जीवा। आरजवभाव दोष सब खोवै, आरजव कर्म कालिमा धोवै। शुद्ध सुभाव सु तानै लीवा, आरजव भाव धरै जे जीवा॥ आरजवभाव सकलको प्यारा, आरजवभाव भ्रमणते न्यारा। ताकों और रुचे न मतीवा, आरजवभाव धरै जे जीवा। आरजव सुर शिवके सुख ठांने आरजवभाव पूर्व अघभाने। अद्भुत आपापर भिनकिवा, आरजवभाव धरै जे जीवा॥ दोहा अन्तरंग निरदोष के, प्रगटै आरजव भाव। जाके फल मरनौ मिटै, छुटै कर्म को दाव॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तम-आर्जव-धर्माङ्गाय-पूर्णाऱ्या नि.। इति उत्तम आर्जव धर्मपूजा संपूर्ण। For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** उत्तम सत्य धर्म पूजा.. अडिल्ल छन्द सत्य सरीसो धर्म जगत में है नहीं, सत्य धरम परभाव लहै शिव की मही। . तारौं भव दुख हरण सत्य वृष भाइये, यहां थापि मैं जजौं सत्य मन लाइये। ॐ ह्रीं श्री उत्तमसत्यधर्माङ्गा अत्र अवतर२ संवौषट् । अत्र तिष्ठर ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भवर वषट्। अथाष्टकं - त्रिभङ्गी छन्द जो झूठ विनाशै जग विसवासै, पुण्य प्रकाशै हितदानी। सब दोष निवारै समता धारै शिवपुर कारै गुण थानी॥ जग आदरकारी मोह निवारी, आनंदधारी जग मानौ। एसो सति धर्मा काटत कर्मा, जल ले परमा जजि जानौ॥ ___ ॐ ह्रीं सत्यधर्माङ्गाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्व.। सति सो वृष नाही या जग माहीं, पूज्य कहाही शिव थानी। सब औगुण धोवै पाप बिलोवै, धर्म मिलावै दुख हानी॥ पावत शिवनारी मुनिजन प्यारी, सुख करतारी भवि मानौ। एसो सति धर्मा काटत कर्मा,गंध ले परमा जजि जानौ॥ ॐ ह्रीं श्री सत्यधर्माङ्गाय संसारताप विनाशनाय चंदनं निर्व.। For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *************************************** श्री दशलक्षण मण्डल विधान। ......[२५ या सत्य समानौ रतन न आनौ, सम्यक दानौ शिवकारी। भवदधिको नावा अशुभ गमावा, सरल स्वभावा दुखहारी॥ सिधलोक नसैनी शिवसुख दैनी, ध्यावत जैनी अनलानौ। एसो सति धर्मा काटत कर्मा, अक्षत ले परमा जजिजानो॥ ॐ ह्रीं सत्यधर्माङ्गाय-अक्षयपदप्राप्तयेऽक्षतान् निर्व.। सति सौ नहिं मिन्ता मिटन चिन्ता, अघ अरिहन्ता जसदाई। सति जगत पियारो भव उद्धारो दुख जलतारो थुति गाई॥ याको मुनि ध्यावै शिवसुख पावै, पाप गमावै भव हानौ एसो सति धर्मा काटत कर्मा, पुष्पं परना जजि जानौ॥ ____ॐ ह्रीं श्री सत्यधर्माङ्गाय यामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्व.। सति धर्म सु पूजै सब अघ धूजै, शिवमग सूजै अधिकाई। यातै वृष सारा काज संवारा, अशुभं विहारा सिद्धि दाई॥ सति सारा नीका सुखदा जीका, शिवमग टीका शुभआनौ। एसो सति धर्मा काटत कर्मा, ले चरु परमा जजि जानौ॥ ____ ॐ ह्रीं श्री सत्यधर्माङ्गाय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं नि.। सति धर्म उजाला जग का पाला, विभ्रम टाला धर्म करा। यह ज्ञान उजालै अशुभ सु टालै, संजम पालै झूठ हरा॥ सति प्रिति उपावै वैर गमावै, जो थुति लावै उर ज्ञानौं। एसो सति धर्मा काटत कर्मा, दीपक परमा जजि जानौ॥ ॐ ह्रीं श्री सत्यधर्माङ्गाय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्व.। सति धर्म प्रभावै मुनि शिव जावै, जगजस गावै थुतिलाई। सति धर्म जु मूला अघ-क्षय थूला, झूठ कुसूला दहभाई॥ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] श्री दशलक्षण मण्डल विधान। * * * * * * * * * * * * * * * * ** * * * ** * * * * * * * * * * * ** *** सत धर्म अनूपा शुभ रस कूपा, पूण्य स्वरूपा मग मानौ। एसो सति धर्मा काटत कर्मा, धूप जु परमा जजि जानौ। ___ॐ ह्रीं श्री सत्यधर्माङ्गाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्व.। सतिधर्म अभ्यासौ शिवथल वासौ,पाप विनासौ हितकारी। गुण ज्ञान बढ़ावै आदर ल्यावै, पुण्य उपावै सति भारी॥ जगमें अति नीका बन्धु जीका, शिवतिय पीका गुण थानौ ऐसो सति धर्मा काटत कर्मा, ले फल परमा जजि जानौ । ॐ ह्रीं श्री सत्यधर्माङ्गाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्व.। जल चन्दन नीका अक्षत टीका, फूल चुनीका माल करौ। चरु दीप सु लाया धूप बनाया, श्रीफल आया अर्घ धरौ॥ उर भक्ति बढ़ाई मुख थुति गाई, सत सब भाई पहिचानौ। ऐसो सति धर्मा काटत कर्मा, अर्घ्यं परमा जजि जानौ॥ ___ॐ ह्रीं श्री सत्यधर्माङ्गाय अर्घ्य पदप्राप्तयेऽर्थ्य निर्व. स्वाहा। प्रत्येकााणि - चौपाई क्रोध सहित जिय सत नहिं कहै, झूठ वचन तें अघ शिर लहै। क्रोध रहित जे वचन प्रमानि, सो सतधर्म चयो जिनवानी॥ ___ॐ ह्रीं श्री क्रोधातिचाररहित-सत्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। लोभ सहित जिय झूठ बखानि, सांच धरम ताको नहिं मानि। लोभ रहित सत धरम सुभाय, सो सत धर्म जजौं थुतिगाय॥ ॐ ह्रीं श्री लोभातिचाररहित-सत्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। सांच न कहै भीतियुत जीव, बोले असत सु वचन सदीव। भयतै रहित सत्य वच भाख,सो सत धर्म करो थुति लाख ॥ ॐ ह्रीं श्री भयातिधाररहित-सत्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। [२७ *************************************** हास्य सत्य को नाशनहार, तातै सहै महा दुख भार। हास्य रहित सब धर्म कहाय, सो सत धर्म जजौं थुति गाय॥ ॐ ह्रीं श्री हास्याचाररहित-सत्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.।। जिन आज्ञा बिन भाखै बैन, पूर्वापर वच ठीक कहै न। एसे दोष रहित सति भाय, सो सत धर्म जजौ थुति गाय॥ ___ॐ ह्रीं श्री जिनाज्ञालंघनातिचाररहित-सत्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। गीता छन्द जा देशमें जिस वस्तुको तिस मानिए सो सति सही। जिम भातकी गुजरात मालवदेश में चोखा क ही॥ करनाटकमें कूलू कहैं द्राविड मे चौरु बखानिये। इमजानि जनपद सत्यको जजि हर्ष उरमें आनिये ।। ॐ ह्रीं श्री जनपद-सत्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। अडिल्ल छन्द बहु नर ताको कहैं तिसो ही मानिये। रंक नाम लक्ष्मीधर जाही बखानिये ॥ तो यह रूढी नाम सत्य संवृत कही। - या नयतें सत जानि जजौं सत वृष सही। ॐ ह्रीं श्री संवृतसत्य-धर्माङ्गायायँ नि. स्वाहा। काहु नर आकार तथा पशु के सही। चित्र काष्ठ में थापि नाम नर पशु कही। यह थाषम सत भेद शास्त्र में गाइयो। ताकों सत वृष जानि जजौं मन लाइयो। - ॐ ह्रीं श्री स्थापनसत्य-धर्माङ्गायावँ नि. स्वाहा। For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** जाकों जगमें नाम प्रसिद्ध बखानिये। सोई ताको नाम सत्य सों मानिये ॥ नाम सत्य सो जानि वानि जिन इमि कही। ताको मन वच काय जजौं शुभ सुखमही॥ __ ॐ ह्रीं श्री नामसत्य-धर्माङ्गायायँ नि. स्वाहा। पीत श्याम अरु रक्त श्वेत गोरा सही। रूपवान इत्यादि अंग बहुतें कही। रूप सत्य सो जानि कह्यों जिनवानिजी। ऐसो सत्य सु जानि जजौं सुखदानजी॥ ॐ ह्रीं श्री रूपसत्य-धर्माङ्गायायँ नि. स्वाहा। कही वस्तु यह यातें छोटी है सही। यातें है यह बडी अपेक्षा इमि कही। याको नाम प्रतिति सत्य सो जानिये। ताको भी है जजौं भक्ति उर आनिये॥ ॐ ह्रीं श्री अपेक्षासत्य-धर्माङ्गायायँ नि. स्वाहा। जो नरपतिको पुत्र ताहि राजा कहै। सो नैगमनय जानि सत्य तातै यहै । यहीसत्य व्योहार जिनेश्वर धुनि कही। मैं जजिहौं कर भक्ति नाय मस्तक सही॥ ॐ ह्रीं श्री व्यवहार-सत्य-धर्माङ्गायावँ नि. स्वाहा। शक्ति इन्द्रमें इसी लोक उलटा करै।। सो तो लोक अनादि उलटि कैसे धरै । For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | २९ *************************************** श्री दशलक्षण मण्डल विधान। पै यह शक्ति अपेक्षा वचन प्रमान है। यह सम्भाव सत्य जजौं थिति आन है। __ॐ ह्रीं श्री सम्भावना-सत्यधर्माङ्गायायँ नि. स्वाहा। जीव अनन्त अनादि नजर आवै नहीं। द्रव्य अमूर्ती पांच नरक सुरकी मही॥ ये नहि देखें नयन सूत्रसौं जानिये। __ भाव सत्य सो जानि जजों मन आनिये॥ ॐ ह्रीं श्री भावसत्यधर्माङ्गायावँ नि. म्वाहा। किसी वस्तुकी उपमा जाको लाइये। ज्यों दानी नर देख कल्पद्रुम गाइये। याको उपमा सत्य नाम जानौं सही। सो मैं पूजौं भक्ति नाय मस्तक मही॥ ॐ ह्रीं श्री उपमा-सत्यधर्माङ्गायाऱ्या नि. स्वाहा। इत्यादिक बहु भेद सत्य के जानिये। कहे देव जिनराय अपनी वानिये ॥ सो मैं मन वच काय शुद्ध थुति गायजी। पूजौँ सत्य सुधर्म अरथ कर लाइजी॥ ॐ ह्रीं श्री सत्य-धर्माङ्गायाय नि. स्वाहा। जयमाला (बेसरी छन्द) सत्य धरम जग पूज्य बताया, सत्य श्रेष्ठव्रत जिनधुनि गाया। सत्य धरम भवदधिको नावा, सो सत धर्म जजौं शुध भावा॥ For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** सत्य धरम वर अंग प्रवीना, सत्य धरम ज्यों कंचन मीना। सत्य धर्मका सबको चावा, सो सत धर्म जजौं शुभ भावा। सत्य धरम का राखनहारा, सत्य धरम मुनिजनको प्यारा। सत्य शिरोमणि धर्म कहावा, सो सत धर्म जजौं शुभ भावा॥ सत्य समान और नहिं मिंता, सत्य धर्म मेटे भव चिंता। सत्य करै अघतै निरदावा, सो सत धर्म जजौं शुध भावा॥ सत्य धरम अपयश क्षयकारी, सत्य सुरक्षा करैं हमारी। सतहीका सुरनर जस गावा, सो सत धर्म जजौं शुध भावा॥ सत्य सहित सब सार्थक धर्मा, तासौ कटैं चिरंतन कर्मा। सत्य समान और नहि ठावा, सो सत धर्म जजौं शुध भावा। सत्य जगतमें पूजा पावै, सत्य धरम शिव राह बतावै। सत्य जजौं सति धर्म लहावा, सो सत धर्म जजौं शुध भावा॥ धर्म सरोवर में सत नीरा, सत्य धर्म खोवै सब पीरा। सत्य धर्म सों कुगति न पावा, सो सत धर्म जजौं शुधभावा॥ दोहा सत सागर में जे रमें, ते वृष नायक जोय। जजै धर्म सतको सही, मन वच काया सोय। ॐ ह्रीं श्री उत्तमसत्यधर्माङ्गाय पूर्णायँ नि.। इति उत्तम सत्य धर्म पूजा। For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******** श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ***************************** [३१ उत्तम शौच धर्म पूजा बेसरी छन्द । शौच धर्म पर चाह निवारै, तनतैं हू ममता निरवारै । जग वांछा तजि निर्मल भावा, शौच धर्म पूजों कर चावा ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्माङ्गाय अत्र अवतर२ संवौषट् अत्र तिष्ठर ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् । अथाष्टकम् - पद्धड़ी छन्द । जल क्षीरसमुद्रको सुभग लाय, धरि कनकपात्र में भक्तिभाय । न धरन मिटै वह फल सुजान, मैं शौच धर्म जजि हर्ष आन । ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्माङ्गाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. । बसि बावन चंदन नीर आन, अलि गुंजत मानों करत गान । धरि कनकपियाले भक्तिजान, मैं शौच धर्म जजि हर्ष आन ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्माङ्गाय संसारतापविनाशनाय चंदनं नि. । उज्जवलअखंड शुभ गंध दाय, अक्षतअनूप लखिशशिलजाय । कनपात्र विषै धरि भक्ति आन, मैं शौच धर्म जजि हर्षआन ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्माङ्गाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. । ने फूल कल्पद्रुमके मनोग, आसक्त भ्रमर थित करत भोग । तिन गुथि मालउर भक्ति ठान, मैं शौच धर्म जजि हर्ष आन ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्माङ्गाय कामबाण विध्वंशनाय पुष्पं नि. । शुभ मोदक आदि अनेक भाय, रसना रंजन नैवेद्य लाय । धरि पुरट थालमें भक्ति ठान, मैं शौच धर्म जजि हर्ष आन ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्माङ्गाय - क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं नि. । For Personal & Private Use Only 1 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] *** श्री दशलक्षण मण्डल विधान । **************** ** मणि दीपक वा घृतमय संजोय, मनुनिबिडमोह तम नाशहोय । अरु ज्ञान प्रकाश करै महान, मैं शौच धर्म जजि हर्ष आन । ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्माङ्गाय मोहान्धकार - विनाशनाय दीपं नि. । • शुभ धूप अगरजा गंध लाय, कन धूपायन ताकों खिवाय । मिश धूम वसुविधि उड़ान, मैं शौच धर्म जजि हर्षआन ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्माङ्गाय दृष्टाष्टकर्मदहनाय धूपं नि. । ले फल बादाम खारक अनूप, अरू पुंगी फलआदिक स्वरूप । धरि भक्तिभाव मन मांहि सोय, मैं शौच जजौं शुध भाव होय ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्माङ्गाय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. । जल गंधाक्षत वर कुसुम होय, चरु दीप धूप फल सुभगजोय । कर अरघ धरौं कनपात्र लाय, मैं जजौं शौच वर भक्तिभाय ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्माङ्गायार्घ्यं नि. स्वाहा । अथ प्रत्येकार्थ्याणि ( चाल मणुयणानन्दकी ।) देवके सकल सुख जानि चंचलमयी । आयु पल्य सागरकी तुरत ही क्षय गयी ॥ जान सब अथिर उरभाव निर्मल करै । पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धरै ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्री देवसुखवांछा-विहीन- शौचधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । चाह चक्री तने सुखनको उर नहीं । सहस छिनवै तिया और षट्खंड मही । For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। [३३ .************************************** जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धरै॥२॥ ॐ ह्रीं श्री चक्रिपदभोग-वांछा-विहीन-शौचधर्माङ्गायायँ नि.। खण्ड तिनको जु राज नारि बहु जानिये। चारि विधि सैन सुर नर खगादि मानिये॥ जान सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धरै॥३॥ ॐ ह्रीं श्री नारायणपदभोगवांछा-विहीन-शौचधर्माङ्गायायँ नि.। कामदेवको सुरूप देखि देव मन हरे। भोग वांछित सकल देव सेवा करें। जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धरै॥४॥ ॐ ह्रीं श्री कामदेवपदभोगवांछा-विहीन-शौचधर्माङ्गायायँ नि.। आठ पर कार सपरस विषै जानिये। द्रव्य क्षेत्रकाल अनुसारं भाव मानिये॥ जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धरै॥५॥ ॐ ह्रीं श्री स्पर्शनेन्द्रिय-भोगवांछा-विहीन-शौचधर्माङ्गायायँ नि.। पांच परकार रस जानि शुभ सारजी। भोग वांछै सभी जगत दुखकारजी। जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धरै॥६॥ ॐ ह्रीं श्री रसनेन्द्रियभोगवांछा-विहीन-शौचधर्माङ्गायायँ नि.। For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] ********** ******** श्री दशलक्षण मण्डल विधान । घ्राण इन्द्रियनते गंध दो हैं सही । ताहि अनुकूल पाय जीव साता लही || जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै । पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धेरै ॥७ ॥ ॐ ह्रीं श्री घ्राणेन्द्रियभोगवांछा-विहीन- शौचधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । चक्षु इन्द्रियतने पांच रूप भोग हैं । ताहि चाहें अमर नाहिं तन रोग है । जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै । पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धेरै ॥८ ॥ ॐ ह्रीं श्री चक्षुरिन्द्रियभोगवांछा-विहीन- शौचधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । राग संगीत इन आदि सुर साजिये । सप्त स्वर भेद कर्ण भोग मन राजिये ॥ जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै । पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धेरै ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं श्री कर्मणेन्द्रियभोगवांछा-विहीन- शौचधर्मादायार्घ्यं नि. । भोग वांछित घने चित्त आधारजी । ताहि सेयर जीव सुख लहे अपारजी ॥ जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै । *** पूजि शौच धर्मको जु शौच स्थानक धेरै ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्री मनवांछितभोगवांछा-विहीन- शौचधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । तन अशुभ आपको सु चाम मय जानिये । सप्त मल घात पूरित सु घिन आनिये । For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************************************** श्री दशलक्षण मण्डल विधान। जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धरै॥११॥ ॐ ह्रीं श्री तनसम्बन्धीभोगवांछा-विहीन-शौचधर्माङ्गायायँ नि.। रतन नवधादि भरपूर घर में सही। कोटि नित दान देते सु क्षय हो नहीं। जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। __पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धरै॥१२॥ ॐ ह्रीं श्री धनवांछा-विहीन-शौचधर्माङ्गायावँ नि.। रूपमें शची समान नारी घरमें घनी। शीश आज्ञा धरै प्रीत रस में सनी॥ जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धरै ॥१३॥ ___ॐ ह्रीं श्री वनिताभोगवांछा-विहीन-शौचधर्माङ्गायायँ नि. । कामदेव के समान पुत्र रूप धारजी विनयवान सर्व बलवन्त तेज सारजी॥ जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धरै॥१४॥ ___ ॐ ह्रीं श्री पुत्र भोगवांछा-विहीन-शौचधर्माङ्गायायँ नि.। भ्रात बहु विनय जुत आनि-पालक सही। संग तिन भोग भोगी जीव साता लही॥ जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धरै॥१५॥ ॐ ह्रीं श्री भ्रातृसुखवांछा-विहीन-शौचधर्माङ्गायायँ नि.। For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] *** श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ********************* मन्त्र दाता विपति मांहि मित्र सारजी । प्रेम अन्तरङ्ग धारि नित्य रहें लारजी ॥ जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै । पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धेरै ॥ १६ ॥ ॐ ह्रीं श्री मित्रानुबन्धवांछा-विहीन- शौचधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । मित्र तिय पुत्र सब घरतने दासिया । आदि परिजन सकल और घरवासिया ॥ जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै । पूजि शौच धर्मको जु शौच थानक धेरै ॥ १७॥ ॐ ह्रीं श्री सकलपरिजनानुकारित्ववांछा - विहीन- शौचधर्माङ्गायार्घ्यं नि. जयमाला दोहा शौच सकल उर सुख करै, हरै लोभ मद सोइ । मोक्ष धेरै मरनो टरै, ताहि जजैं शिव होइ ॥ *** शौच भावतैं पुण्य बड़ोई, कटै पाप जगमें जस होई । शौच भाव संतनको प्यारा, जजौं शोच यह धर्म हमारा ॥ शौच भाव पर - चाहे निवारै, शौच भाव दुख शोकविड़ारे । शौच सरवको बड़ा सहारा, जजौं शौच यह धर्म हमारा ॥ शौच सांच के बड़ा सनेहा, शौच मुनिव्रत की इक देहा । शौच भाव मंगल करतारा, जजौं शौच यह धर्म हमारा ॥ For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३७ *************************************** **श्री दशलक्षण मण्डल विधान****** शौच भावमें नांहि कषाया, शौच भाव सब जग काभाया। शौच धर्मका शरण गहारा, जजौं शौच यह धर्म हमारा॥ शौच धर्मको मुनिगण सेवैं,ताफल स्वयं सिद्ध थललेवें। शौच धर्म समता रस धारा, जजौं शौच यह धर्म हमारा॥ शौच समान और नहिं मिंता,शौच भाव टारै सब चिंता। शौच सदा सब जियका प्यारा,शौच जजौं यह धर्म हमारा॥ दोहा शौच सार संसार में करै पवित्र जु भाव। तातें धारो शौचको, भलो मिलो यह दाव॥.. ॐ ह्रीं श्री उत्तम शौचधर्माङ्गाय-पूर्णायँ नि. स्वाहा। इति उत्तम शौच धर्म पूजा। परस्परोपग्रहो जीवानाम् For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *************************************** ३८] ...... श्री दशलक्षण मण्डल विधान। ( उत्तम संयम धर्म पूजा ) . अडिल्ल छन्द संयम धर्म अनूप दोय विधि जानिये। इक रक्षा षट् काय दया उर आनिये॥ मन इन्द्रिय वश करै दूसरो संयमा। सो मैं पूजौं थापि लहौं उत्तम रमा॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयम धर्माङ्ग! अत्र अवतर२ संवौषट्। अत्र तिष्ठर ठः ठःस्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भवर वषट्। . अथाष्टकम् बेसरी छन्द। निर्मल नीर भाव कर भीजै, मन मनोज्ञ बासन धरि लीजै। जिनको जन्म मरणगद जावै, सो संयम वृष जजि शिरनावै॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि.। चन्दन शीतल भावन भाया, तापर मन भंवरा जु लुभाया। जग आताप तासु नशि जावै, सो संयम वृष जजि शिरनावै॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गाय संसारताप विनाशनाय चंदनं नि.। शालि अखंड अखत ले भाई, शुभ परणति भाजन भरवाई। जो अखंड थानक ले धावै, सो संयम वृष जजि शिर नावै॥ ___ ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि.। फूल प्रफुल्लित भाव सु लीजै, भक्ति तारमें माल करीजै। मदन वाण हरि सो बल पावै, सो संयम वृष जजि शिरनावै॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गाय कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं नि.। For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** भाव अवांछित कर नैवेद्यं, नाना रस मय ले निरखेद्यं । भूख नाशि चित साता पावै, सो संयम वृष जजि शिरनावै॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. । सम्यग्ज्ञान दीप करि भाई, शुद्ध भाव भाजन धरवाई। ताके फल अज्ञान मिटावै,सो संयम वृष जजि शिरनावै॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि.। कर्म आठमय धूप करीजै,धरम सु ध्यान अगनि खेवीजै। ताफल दुष्ट कर्म नशि जावै, सो संयम वृष जजि शिरनावै॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गायदुष्टाष्टकर्मदहनाय धूपं नि.। उत्तम परिणति को फल कीजै,शुद्धभाव कन थाल धरीजै। तातै मनवांछित फल पावै, सो संयम वृष जजि शिर नावै॥ ___ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गाय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि.। आठौ द्रव्य अमोलिक जानी, प्रासुक भाव सहित हित दानी। पद अनार्य तासु फल पावै, सो संयम वृष जजि शिरनावै॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयम धर्माङ्गाय अनर्घ्य पद प्राप्तयेऽयं नि.। . प्रत्येकााणि। - ॥ चौपाई॥ ताल कूप खाई न खुदाय, भूमि काय तब दया पलाय। पृथ्वीकायकी रक्षा होय, संयम धर्म जजो मद खोय॥१॥ ॐ ह्रीं पृथ्वीकायजीवरक्षणरूपसंयम धर्माङ्गायायँ नि.। अनगालो जल बरतै नाहिं, नदी तलाब कुड़ावै नाहिं। जलकायिक जिय रक्षा करै,संयम वृष जजि शिवतियवरै॥ ॐ ह्रीं जलकायिकजीवरक्षणरूपसंयम-धर्माङ्गायार्घ्य नि.। For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** अगनि जलावन काज न करै, नाहिं बुझावै करुणा धरै। अगनिकाय जिय रक्षा होय,संयम धर्म जजौ शुचि होय॥ __ॐ ह्रीं अग्निकायजीवरक्षणरूपसंयम धर्माङ्गायायँ नि.। पवन कायकी रक्षा सार, पंखा आदि काज नहिं धार। पवनकाय जिय रक्षा होय, संयम धर्म जजौं मद खोय॥ ____ॐ ह्रीं वायुकायिकजीवरक्षणरूपसंयम धर्माङ्गायावँ नि.। फूल पात तरु तोड़े नाहिं, वन बागादि लगावै नाहिं। हरितकाय जिय रक्षा होय, संयम धर्म जजौं मद खोय॥ ___ॐ ह्रीं वनस्पतिकायिकजीवरक्षणरूपसंयम धर्माङ्गायायँ नि.। इल्लो जोंक गिंडोला जान, बाला आदि जीव पहिचान। बे इन्द्रिय जिय रक्षा होय, संयम धर्म जजौं मद खोय॥ ॐ ह्रीं द्वीन्द्रियजीवरूपरक्षणसंयम धर्माङ्गायायँ नि.। चीटी कुंथवा खटमल लोक, जुआ तिबूला जिय करिठीक। ते-इन्द्रिय जिय रक्षा होय, संयम धर्म जजौं शुचि होय॥ ॐ ह्रीं त्रीन्द्रियजीवरक्षणरूपसंयम धर्माङ्गायायँ नि.।। मक्खी भँवरा टीडी जान मच्छर आदिजीव पहिचान। चउ-इन्द्रिय जिय रक्षा होय,संयम धर्म जजौ मद खोय॥ ॐ ह्रीं चतुरिन्द्रियजीवरक्षणरूपसंयम धर्माङ्गायायँ नि.। जीव असैनी बहुत प्रकार, जलचर सर्प आदि निर धार। पंचेन्द्रिय जिय रक्षा होय, संयम धर्म जजौं शुचि होय॥ ॐ ह्रीं असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव रक्षणरूपसंयम धर्माङ्गायायँ नि.। नर सुर नारकि सब जिय संज्ञि,तिर्यंच गति में संज्ञि असंज्ञि। संज्ञी जियकी रक्षा होय, संयम धर्म जजौं मद खोय॥ ___ॐ ह्रीं संज्ञीपंचेन्द्रियजीवरक्षणरूपसंयम धर्माङ्गायायँ नि.। For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। [४१ *************************************** सपरस इन्द्रिय विषय निवार, वीतरागता वरतै सार। शीत उष्ण उर चाह न होय संयम धर्म जजौं शुचि होय॥ ___ॐ ह्रीं स्पर्शनेन्द्रिय विषयवर्जनरूपसंयम धर्माङ्गायावँ नि.। रसनेन्द्रिय पांच भट जान, तिन वशभये सकल गुणखान। रसनेन्द्रियके वश नहिं होय, संयम धर्म जजौं मद खोय॥ __ॐ ह्रीं रसनेन्द्रियविषयवर्जनरूपसंयम धर्माङ्गायायँ नि.। घ्राणेन्द्रियके भट दुई जान,नित प्रसाद जिय दुख लहान। घ्रानेन्द्रियके वश नहिं होय,संयम धर्म जजौं शुचि होय॥ ॐ ह्रीं घ्राणेंद्रियविषयवर्जनरूपसंयम धर्माङ्गायायँ नि.। चक्षु विषय भट जानों पांच, ते दुख देय सकल जियसांच। चक्षु अक्षके वश नहिं होय, संयम धर्म जजौं मद खोय॥ ____ ॐ ह्रीं चक्षुरिन्द्रियविषयवर्जनरूपसंयम धर्माङ्गायायँ नि.। कर्णेन्द्रिय शुभाशुभ वैन, ता वश होय सुरासुर ऐन। शब्द शुभाशुभ वश नहिं होय, संयम धर्म जजौं शुचि होय॥ ___ॐ ह्रीं कर्णेन्द्रियविषयवर्जनरूपसंयम धर्माङ्गायायँ नि.। मन चंचल कपिकी गति जिसौ ताके वश जगजिय दुखफँसौ। मनके वश कबहूँ नहिं होय, संयम धर्म जजौं मद खोय॥ ॐ ह्रीं मनोविषयवर्जनरूपसंयम धर्माङ्गायावँ नि.। सब जियमें धरि समता भाव, तप संयम करिबेको चाव। आरत रौद्र भाव नहिं होय, संयम भाव जजौं शुचि होय॥ ____ॐ ह्रीं सामायिक रूपसंयम धर्माङ्गायायँ नि. । For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] *************************************** श्री दशलक्षण मण्डल विधान।। जो प्रमादवश संयम जाय, प्रायश्चित ले पुनि थिर थाय। छेदोपस्थापन नामा सोय, संयम धर्म जजौं मद खोय॥ ॐ ह्रीं छेदोपस्थापनारूपसंयम धर्माङ्गायायँ नि.। दोय कोष नित गमन कराय, तन निहार नहिं बहु रिध पाय। सो परिहार विशुद्धी जोय, संयम धर्म जजौं शुचि होय॥ ॐ ह्रीं परिहारविशुद्धि संयम रूप धर्माङ्गायायँ नि.। सकल कषाय नाश है जाय,नाम मात्र कछु लोभ रहाय। सूक्षम सांपराय है सोय, संयम धर्म जजौं मद खोय॥ ॐ ह्रीं सूक्ष्म सांपरायरूपसंयम धर्माङ्गायायँ नि.। सकल मोह नाशै जिस काल, या उपशमै मोह जंजाल। यथाख्यातमें रहे न मोह, संयम धर्म जजौं शुचि होय॥ ॐ ह्रीं यथाख्यातरूपसंयमधर्माङ्गायार्थ्यनि.। - अडिल्ल छन्द। इस प्रकार बहु विधि को संयम जानिये। शिव-सुखदायक होय दयाकी खानिये॥ पूरण मुनिके होय धर्म हितदायजी। ताहि जजौं मैं अर्घ थकी यश गायजी॥ ॐ ह्रीं उत्तमसंयम धर्माङ्गाय महायँ नि.। जयमाला। (बेसरी छन्द) संयम सार जगतमें भाई संयमतें जिय शिव सुख पाई। संखाम्म सबका साखानहास्या, संयम है शिास्त्मसाज हम्माता॥ For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान । म सकलजीव सुखदाई, संयम जगत जीव बड़भाई । म जगत गुरुनिको प्यारा, संयम है शिरताज हमारा ॥ ण संयम मुनिजन पावै, संयमतैं ही शिवमग धावै । म अघनाशन असिधारा, संयम है शिरताज हमारा ॥ म मुकुट धर्मधर धारै, संयमतैं विषधर उर हारै । म जामन मरण निवारा, संयम है शिरताज हमारा ॥ प्रम के सब दास बताये, संयम बिना जगत भरमाये । प्रम मोह सुभटको मारा, संयम है शिरताज हमारा ॥ यम मनका जीतनहारा, संयम इन्द्रिय रोग निवारा । प बेलिको नाशनहारा, संयम है शिरताज हमारा ॥ यम जग - विरक्त जिय भावै, संयमको मुनि जन जसगावै । यम धर्म बहू अघ जारा, संयम है शिरताज हमारा ॥ यम भवसागर नवका सी, संयम धरि जिय शिवपुर जासी । यम कर्म कलंक निवारा, संयम है शिरताज हमारा ॥ दोहा [४३ संयम जगका बन्धु है, संयम मात रु तात । संयम भवभव शरण है, नमों 'टेक' अघ जात ॥ ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्माङ्गाय पूर्णार्घ्यं नि. । इति उत्तम संयम धर्म पूजा । For Personal & Private Use Only *** Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्षण मण्ड ************************************** ४४] श्री दशलक्षण मण्डल विधान। (उत्तम तपो धर्म पूजा) ... अडिल्ल -छन्द। अन्तर बाहर भेद कहे तप सारजी। दुविध भाव अघहार करन भव पारजी॥ तप बारह परकार कर्म गज के हरी। ___ मैं पूजौं इस थानि जानि नित शुभ धरी॥ ___ॐ ह्रीं श्री उत्तमतपोधर्माङ्ग ! अत्र अवतर२ संवौषट् । अ तिष्ठ२ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भवर वषट्। अथाष्टकम्। (चौपाई।) भवजलतरण नाव तप भाव, करि अघनाश जु दैव उछाव ऐसो तप निर्मल जल लाय, पूजौं जामन मरण नशाव। ___ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि.। त्रिभुवन में तप तिलक समान, याको मुनि धरै हित ठान तपहर चन्दन सुभग मँगाय, मैं पूजौं भव तप नशि जाय। ____ ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय संसारताप-विनाशनाय चदनं नि.। बेसरी छन्द। तपपै निरत लखे बहुतेरे, तपको जपै जु साहब मेरे ऐसो तप अक्षत शुभ आनो,पूजौं फल अक्षय उपजानो। ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय अक्षयपदप्राप्तयेऽक्षतान नि.। पद्धडी छन्द यह तप त्रिभुवन में पूज्य सार, यह तप नाना मंगल सुधार ऐसो तप बहु शुभ फूल लाय,मैं पूजौं तसु फल मदन जाय। ___ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं नि.। For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री दशलक्षण मण्डल विधान। ************************************** प सुर वंछे पै नाहिं पाय, तातै सुर पूजै तप सुभाय। सो तप चरु ले भक्ति लाय, मैं पूजौं तसु फल क्षुधाजाय॥ ___ ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि.। प कल्पवृक्ष वांछित सुदेई, तप दीप अनोपम तम हरेई। तपको दीपक रतन लाय, मैं पूजौं तसु फल ज्ञान पाय॥ ___ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि.। प ही तै तीर्थङ्कर जु होय, तप ही तैं शिव लहि कर्म खोय। ऐसो तपको शुभ धूप लाय, मैं पूजौं विधि ईधन जराय॥ ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय दुष्टाष्ट कर्मदहनाय धूपं नि.। सप पूजत जग करिपूज्य होय,तप औषधि दुखगद हरन जोय। ना तपको बहुविधि फलमंगाय,मैं पूजौं तसुफल शिवलहाय॥ - ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि.। नपरौं उर करुणा भाव होय, तप तपैं जगत में पूज्य सोय। ता तप को उत्तम अर्घ लाय, मैं पूजौं पद अनर्घ लहाय॥ ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय अनर्घ पदप्राप्तयेऽयं नि.। प्रत्येकााणि। गीता छन्द। . तप सार जगमें भेद बारह भव उदधिको नाव है। पाप दाहक तप करन हित साधु मन उच्छाव हैं। तप देय सुख दुख दूरि करि है, और कहँ लग गाइये। इमि जानि पूजौं अर्घ लेकर, तासु फल शिव जाइये॥ ... . ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय अर्घ्यं नि.। For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] **** श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ************ बेसरी छन्द । जिन गुण सम्पति है तप मीता, त्रेसठ वास होय जिन गीत भिनर तिथियनमें सुखदाई, यह तप अनशनजजिगुणगाई ॐ ह्रीं जिनगुणसम्पत्ति तपोधर्माङ्गाय अर्घ्यं नि. । कर्म क्षपण तपके उपवासा, इकसो अड़तालिस जिन भास भिन२ तिथियनमें सुखदाई, यह तप अनशन जजि गुण गाई ॐ ह्रीं कर्मक्षपणतपोधर्माङ्गाय अर्घ्यं नि. । जोगी रासा । सिंह निष्क्रिडित तप दिन सौ, अरु जान सतत्तरिभा तिनमें इकसौ जानि पैतालिस, वास कहै सुखदाई *** बाकी बत्तिस जानि पारणा यह विधि जिन धुनिमांह यह अनशन तप जानि जजौं मैं अर्घ लेय हित ठांहीं ॐ ह्रीं सिंहनिष्क्रीडित तपोधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । भद्र सर्वतो तपके शुभ दिन एक सैकड़ा जाने है उपवास पचत्तर अद्भुत पारण पचविस मानों इसकी विधि भिनर जिन भासी सो तप अनशन गाय अर्घ लेय मैं पूजौं मन वच काय भक्ति जुत भाया ॐ ह्रीं सर्वतोभद्र- तपोधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । महा सर्वतो भद्र बडो तप दिन दोसै पैंताल इकसौ छिनवै वास कहे जिन पारण गिन नव चाली For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। . [४७ *************************************** ताकी विधि जिन शासनमें लखि,विधिजुत करताभाई यह अनशन तप जानि जजौं मैं, अर्घ लेय हितदाई। ॐ ह्रीं महासर्वतोभद्र तपोधर्माङ्गायायँ नि. स्वाहा । . लघु निष्क्रीडितके दिन जिन धुनि बीसी चारि कहे हैं। तिन में बीस जु कहे पारणा साठि उपास लहे हैं। करनेकी विधि जिन धुनिमें लखि ताको करिये भाई। यह तप अनशन जानि जजौं मैं अर्घ आनि सुखदाई॥ ॐ ह्रीं लघुनिष्क्रीडित तपोधर्माङ्गायायँ नि.। बेसरी छन्द। नव पारण उपवास पचीसा दिन चौंतीस कहे जगदीशा। मुक्तावलितपविधिजिनगाई,यहअनशनतपजजिसुखदाई॥ . ॐ ह्रीं मुक्तावली तपोधर्माङ्गायायँ नि.। मास मासके छह उपवासा, एक वरष दुइ सत्तरि खासा। यहकनकावलीविधिश्रुतगाई,यहतपअनशनजजिसुखदाई। ॐ ह्रीं कनकावलि तपोधर्माङ्गायायँ नि.। . सो अनशन पारन उनईसा, इकसौ उनईस दिन शुभ दीसा। जिन भाषित आचामल भाई,यह अनशन तपजजि सुखदाई ___ॐ ह्रीं आचाम्ल तपोधर्माङ्गायायं नि.। चौबिस वास. पारना चौई, सब दिन अड़तालीस गिनोई। तपजुसुदरशनविधिश्रुतजानो,यहअनशनतपजजिसुखदानी॥ . ॐ ह्रीं सुदर्शन-तपोधर्माङ्गायायँ नि. । For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८1 श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** एक वरस तक वास करता, उत्तम तप जिनवाणी भणंता। ताके भेद बहुत है भाई, यह अनशन तप जजि सुखदाई॥ ॐ ह्रीं उत्कृष्ट-तपोधर्माङ्गायायँ नि.। भूख प्रमाण थकी लघु खईये, सो अवमौदर तप वरनईये। यह तप विधि भूधर पविमाना, सो मैं जजौं अरघ कर आना। . ॐ ह्रीं अवमौदर्य तपोधर्माङ्गायायँ नि.। । आज इसी विधि भोजन पइये, तो हम लेय नतर थिर रहिये। ऐसी विधि प्रतिज्ञा ठानै, सो तप जजौं कर्म गिरि भानै॥ ॐ ह्रीं व्रतपरिसंख्यान तपोधर्माङ्गायायँ नि.। त्यागै इक दुई त्रय रस भाई, चार पांच षट् तजि नहिं खाई। ऐसो रस परित्याग सु ठानै, सो तप जजौं कर्म गिरि भानै॥ ॐ ह्रीं रस परित्याग तपोधर्माङ्गायायँ नि.। आशन दिढ़ भू सोधि करावै, थिरता भजै सु तन न हिलावै। शय्यासन तप या विधि ठाने, सो तप जजौं कर्म गिरि भानै॥ - ॐ ह्रीं श्रीविविक्तशय्याशन तपोधर्माङ्गायायं नि.। काय कसैं मन आनन्द पावै, सो तप काय कलेश कहावै। शोक हरै सुख करै महानो, सो तप जजौं कर्म गिरि भानों॥ ___ॐ ह्रीं श्री कायकलेश तपोधर्माङ्गायायँ नि.। अडिल्ल छन्द। मुनिको जो परमादवशी दूषण लगै। ___ तत्क्षण गुरुपै जाय जु प्रायश्चित मंगै॥ For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ** जो आचारज दण्ड देय सो लेय ही । तप प्रायश्चित जजौं अरघ शुभ देय ही ॥ ॐ ह्रीं श्री प्रायश्चित तपोधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । देव धर्म गुरु और थान जो पूज हैं । तीरथ अतिशय सिद्धक्षेत्र अघ धूज हैं। तिनकी विनय अनूप करै तजि मानजी । सो तप विनय विचार जजौं शिवदानजी ॥ ॐ ह्रीं श्री विनय तपोधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । जो मुनिको मग चलत तथा तप करत ही । उपजै तनमें खेद कर्मबलतें सही ॥ तो मुनिके करि पांव चम्पिये जो सुधी । सो तप वैय्यावृत्य जजौं नाशक कुधी ॥ ॐ ह्रीं श्री वैय्यावृत्यतपोधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । जिन धुनि वाचै सुनै हरष करि चिंतवै । धरि जिनकी आम्नाय पाप मलको चवै ॥ सो तप है: स्वाध्याय ज्ञान उर लावनो । [४९ ***** सो यह तप मैं जजौं स्वर्ग सुख पावनो ॥ ॐ ह्रीं श्री स्वाध्याय - तपोधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । काय ममतको त्याग यतिश्वर थिति करै । काय त्याग तप धार कर्म अरि मद हरें ॥ तप व्युत्सर्ग महान जानिं मन भावनो । सो मैं पूजौं अर्घ धारि कर पावनो ॥ ॐ ह्रीं श्री व्युत्सर्ग- तपोधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] *** श्री दशलक्षण मण्डल विधान । **************** मन वच काय एक थान थिरि लाइये । आरत रौद्र कुभाव सबै ढाइये ॥ ** या वपुर्ते जिय भिन्न शुद्ध जानै सही । सो तप ध्यान अनूप पूजि लूं शिवमही ॥ ॐ ह्रीं श्री ध्यान तपोधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । इमि धारि तपके भेद बारह सकल कर्म विनाशियो । यह कर्म भूधर नाश कारण वज्रसम जिन भाषियो । मैं जीव चाहैं तरन भवदधि, ते लहैं तप सारजी हम शक्तिहीन न कर सकत, तातै जजै उर धारजी ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तम तपोधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । जयमाला । दोहा । तप तारैं भव उदधिसों, टारै पाप असाधि । धेरै महा सुख थल विषै, देहे ध्यान समाधि ॥ तप ही सार धरम है भाई, तप ही तै मुनिवर शिव पाई । सिद्धक्षेत्र जे सिद्ध सजै हैं, ते सब पहिले तपहि भजे हैं | तप भव उदधि तरण नवकाया, तपको जस गणधरनेगाया । ये तपही जग जिन सुखदाई, तात मात स्वामी तप भाई ॥ तपको तो तीर्थङ्कर ध्यावै, तप बिन मोक्ष कभी नहिं पावै । तप शिव महल तनों मग जानों, तपहीतैं सब कर्म हरानों । तपसा तीर्थ और नहिं कोई, तप ही तारन सब विधि होई ॥ For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ****** तप शिव वाट दिखावन दीवा, तपहीतै सुख होय अतीवा । तपतैं इन्द्री मन भट हारै, तप निज बलतैं मोह निवारें । तपको कायर जिय नहिं पावैं, तपको महत पुरुष उमगावै । अविचल तपतै सुख बहु होई, तपतै लच्छि अखै पुनिजोई ॥ तपतै खानपान परमाना, तपहीतै रस बिन सब खाना । दिढ़ आसन तन तपतै जानों, काय कष्टतैं जिय सुख जानों । तप ही लगे पापको धोवै, तपतैं विनय भाव उर होवै ॥ धरमी काय तनी सुश्रुषा, तप ही करवावै अघ - लूसा । शास्त्र पठन है तप सुखकारा, यातै होवै वपुतैं न्यारा ॥ तप ही मन इन्द्रिय वश आनै, ध्यान धरत वसु कर्म हराने। यातै तप लागत है प्यारा, शुद्ध भावतै है अघ छारा ॥ [५१ ****** दोहा तप मेटत भव तापको, शान्त भाव दिढ़ होय । हरै भरम देवै धरम, सो तप पूजौं लोय ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तम तपोधर्माङ्गाय पूर्णार्घ्यं निर्व. । इति उत्तम तप-धर्म पूजा । For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] ** श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ******* * उत्तम त्याग धर्म पूजा चौपाई | त्याग धरममें ममत न कोई, त्याग धरम सुरतरु अवलोई। वांछा त्याग धरममें नाहीं, सो वृष थापि जजों इस ठाहीं ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्माङ्ग ! अत्र अवतर२ संवौषट् । अत्र तिष्ठर ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणं । अथाष्टकम् । मयानंद की चाल नीर शुभ क्षीरदधि सार सो लाइजी । साधु चित तुल्य निर्मल सु मन भायजी ॥ कनक झारी भरी भक्ति मन लाइयो । त्याग धर्म जजौं स्वर्ग शिवदाइयो ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्माङ्गाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि । चन्दनादि गन्ध सार नीर में रलाइयो । अमर सौरभ थकी भक्ति भरवाइयो ॥ कनक पातर विषै धार ढरवाइयो । त्याग धर्म जजौं स्वर्ग शिवदाइयो ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्माङ्गाय संसारतापविनाशनाय चंदनं नि. । तन्दुलं समुज्जवलं जु अक्षतं सुहायजी । खण्ड बिन सोहने विलोकि हलषायजी ॥ For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। [५३ *************************************** थाल कंचन भरौ भाव शुभ लाइयो। त्याग धर्म जजौं स्वर्ग शिवदाइयो। ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्माङ्गाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि.। पुष्प नाना प्रकार गन्धजुत सारजी। कल्पवृक्षादिके हेम थाल धारजी॥ माल करि सोहनी भक्ति उर लाइयो। त्याग धर्म जजौं स्वर्ग शिवदाइयो। ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्माङ्गाय कामबाण विध्वंशनाय पुष्पं नि. । लाय नैवेद्य बिन खेद अति सोहना। ___मोदकादि सरल सार धार मन मोहना॥ स्वर्ण भाजन विर्षे भक्ति भर लाइयो। त्याग धर्म जजौं स्वर्ग शिवदाइयो॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्माङ्गाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि.। रत्नमय दीप कर ज्योति परकाशिया। ___मोह अन्धकार तासु तेजते विनाशिया॥ हेमथाल धारि भक्ति भाव चित्त लाइयो। - त्याग धर्म जजौं स्वर्ग शिवदाइयो॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्माङ्गाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं नि.। धूप दश गन्धकी सार सौरभि भरी। चन्दनादि ले कनक धूप-आयन धरी॥ अग्नि संग खेय मिस धूम विधि जाइयो। त्याग धर्म जजौं स्वर्ग शिवदाइयो॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्माङ्गाय दुष्टाष्टकर्मदहनाय धूपं नि. । For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान । श्रीफल सु लौंग पुंगीफल जु सारजी । खारक बादाम नारियल सु मनहारजी ॥ धारि स्वर्णपात्र में सु भक्ति उर लाइयो । त्याग धर्म जजौं स्वर्ग शिवदाइयो ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्माङ्गाय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. । नीरगन्धाक्षतं पुष्प चरु सारजी । दीप अरु धूप फल अर्घ मनहारजी ॥ भक्ति भाजन विषै धारि चढ़वाइयो । त्याग धर्म जजौं स्वर्ग शिवदाइयो ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्माङ्गाय अनर्घ्यपदप्राप्तयेऽर्घ्यं नि. । ५४ ] ** प्रत्येकार्थ्याणि । चाल मणुयणानन्दकी । कामदेव के समान काय सुन्दर घनी । सुभग आकार मनुदेव तनसी बनी ॥ जानि पुद्गलीक जिमि चपल चञ्चल सही । मोह तजि तासुको सु पूजि त्याग शिवलही ॥ ॐ ह्रीं तनममत्वत्याग-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । मात रज मेल मिलि कर्म वश थायजी । गर्भमें रह्यो सु मास नव दुख पायजी ॥ दूध माँगे बिना न देइ निज मातही । मोह तजितासुकों पूजि त्याग शिव लही ॥ ॐ ह्रीं जननीममत्वत्याग- धर्माङ्गायायं नि. स्वाहा । बाप वीरज थकी आप मैलों भयो 1 कालाप्याय्य है जुदा ना सांगा त्ताको रयो । For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * ** * * ** * * * * * * * ** * * * * * * ** * * * * ** ** * * * * * श्री दशलक्षण मण्डल विधान। विधान! ........५५ कौन का को भयो सर्व स्वारथ सही। मोह तजि तासुको सु पूजि त्याग शिव लही। ____ॐ ह्रीं पितृममत्वत्याग-धर्माङ्गायायँ नि.। पुत्र रूपवंत पूर्व पुण्यतै लहाइये। पापके विपाकतें सुशीघ्र नशि जाइये ॥ मोहवश होय जिय लहै दुख धाम ही।। ___ तासुको ममत्व त्यागधर्म पूजि शिव लही। ॐ ह्रीं पुत्रममत्वत्याग-धर्माङ्गायायँ नि.। पाप साजि राज काज भाग्य” लहाइये। तासु रक्षोपहार में स्वतन गमाइये ॥ भोग परिजन करै आप स्वभ्र धाम ही। मोह तजि तासुको सु पूजि त्याग शिव लही॥ ___ॐ ह्रीं राज्यममत्वत्याग-धर्माङ्गायार्घ्य नि.। रत्न सुवरण रजत आदि धन पाइये। घोटका विमान वाहनादि हूं लहाइये। जानि चपला समान अथिर दुखधाम ही। __ मोह तजि तासुको सु पूजि त्याग शिव लही। ॐ ह्रीं धनवाहनादिममत्वत्याग-धर्माङ्गायायँ नि.। सहस छिनवै तिया जानि अपछर जिसी। विनय भरपूर रुपरंग रंभा जिसी। जानि सम्पति सकल पाप विपदा महीं। मोह तजि तासुको सु पूजि त्याग शिव लहो॥ ॐ ह्रौं स्त्रीममत्यत्यापा-धामीझाल्यार्थी मि.॥ For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ************ संग परिजन मनो हाट मेलौं बनो । धर्मशाला विषै तीर्थयात्री मनो॥ 4 जानि गृह मोहकी सांकली है सही । मोह तजि तासुको सु पूजि त्याग शिव लही ॥ ॐ ह्रीं गृहकुटुम्बममत्वत्याग - धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । मूल वसु कर्मको कषाय भाव मानिये । ** तासुके प्रसंग चार योनीमें भ्रमानिये ॥ सकल संसारका भार यह ही सही । मोह तजि तासुको सु पूजि त्याग शिव लही ॥ ॐ ह्रीं कषायभावत्यागधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । राग अरु द्वेष दोय मोह विधितैं बने । तासु वश जीव जगमें लहै दुख घने ॥ पाप पुण्यको प्रसार तासुतैं ही सही । राग द्वेष मोहको सु त्याग पूजि शिवलही ॥ ॐ ह्रीं श्री रागद्वेषत्यागधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । मात सुत नारि धन राज तन सारजी । राग अरु द्वेष सर्व दुःख कर्तारजी ॥ पाप पुण्य धारि संसार दुख धाम ही । मोह तजितासुको सु पूजि त्याग शिव लही ॥ ॐ ह्रीं ममत्वत्याग - धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । जयमाला । (दोहा।) त्याग तरण तारण सही, भव सागरमें नाव । त्याग बने नहिं देव पै, मनुज लह्यो यह दाव ॥ For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। • * ** * * * ** * * * ** * * * * * * * * ** * ** * * ** * ** * * * * * बेसरी छन्द। त्याग जोग सबही संसारा, पुद्गल द्रव्य त्याग निरवारा। त्याग रतन कंचन भंडारा, जो त्यागै सो गुरु हमारा॥ हाथी घोटक रथ सब त्यागा,साधु आप आतम रस लागा। मात ताततैं नेह निवारा, जो त्यागै सो गुरु हमारा॥ त्याग राज बन्धन दुखदाई, नारि पुत्र नेह तुड़ाई। अनुभव रस मारग विस्तारा जो त्यागै सो गुरु हमारा॥ आरत भाव त्यागि दुखदाई, त्याग योग्य सब मान बड़ाई। रौद्र ध्यान त्यागै अधिकारा, जो त्यागै सो गुरु हमारा॥ क्रोध मान छल लोभ गमावै, सो उत्कृष्टा त्याग कहावै। हास्य शोक भय भाव निवारा, जो त्यागै सो गुरु हमारा॥ मद मत्सरको त्याग कराया, त्याग अरति रति बिसन बताया। राग द्वेषका तजै प्रसारा, जो त्यागै सो गुरु हमारा। परमें ममत त्यागिकै भाई, निज परिणतिमें प्रिति लगाई। त्याग पाप परिणतिकी धारा, जो त्यागै सो गुरु हमारा॥ जगतै विरचित आप रस भीना, तिनने शिवमग नीकैचीना। त्याग जगत दुखतें सिर भारा,जो त्यागै सो गुरु हमारा॥ सोरठा- त्याग धरम तप सार, भव भव शरणो में गहों। जजौं त्याग भवतार, ता प्रसादः शिव लहों। ___ ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्माङ्गाय पूर्णार्घ्य नि.। इति उत्तम त्याग धर्म पूजा संपूर्ण। For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] ***** श्री दशलक्षण मण्डल विधान । *************** उत्तम आकिंचन्य धर्म पूजा आकिंचन वृष नगन अवस्था है सही । तामें दुविध परिग्रह त्याग सु धुनि कही ॥ धन धान्यादिक बाह्य राग अन्तर गिनो । इनतैं रहित सु नगन धरम जजि अघ हनो ॥ ॐ ह्रीं उत्तमाकिंचन्यधर्माङ्ग ! अत्र अवतर२ संवौषट् । अत्र तिष्ठर ठः ठः । अत्र मम सिन्नर्हितो भवर वषट् । अथाष्टकं त्रिभंगी छन्द | जल लाया नीका सुरतरिणीका उज्जवल ठीका धार करी । अति गंध सुहाई निर्मल भाई हर्ष बढ़ाई पाप हरी ॥ ले कनक सु झारी भक्ति उचारी भव दुखहारी हाथ लई । आकिंचन धर्मा जजि शुभ कर्मा दे फल परमा थानसही ॥ ॐ ह्रीं उत्तमाकिंचन्यधर्माङ्गाय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं नि. । शुभ चन्दन आनी घसि सँगपानी गन्ध सुहानी हाथ धरि । अलि ऊपर आवै वासु लुभावै शुद्ध करावे नेह भरी ॥ एसी गंध लावो हरष बढ़ाओ ज्ञान जगावो मोक्ष मही । आकिंचन धर्मा जजि शुभ कर्मा दे फल परमा थानसही ॥ ॐ ह्रीं उत्तमाकिंचन्यधर्माङ्गाय संसारताप विनाशनाय चंदनं नि. । शुभ अक्षत लाया विमल सुहाया खंडें बिन भाया सुखदाई। मुकाफल जानौ अधिक सुहानो गंध सुथानौ गह भाई ॥ ** For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ************ सो ले अक्षत जनमन हर्षत भक्ति करत ते शीश नवाई । किंचन धर्मा जजि शुभ कर्मा दे फल परमा थान सही ॥ ॐ ह्रीं उत्तमाकिंचन्यधर्माङ्गाय- अक्षयपदप्राप्तयेऽक्षतान् नि. । फूलसु प्यारा गंध भरारा वर्ण अपारा शोभ घने । ना आकारा अलिगण धारा सुरद्रुम सारा जेम ठने ॥ ने कुसुम जु आया माल बनाया नेह लगाया भक्तिमयी । किंचन धर्मा जजि शुभ कर्मा दे फल परमा थान सही ॥ ॐ ह्रीं उत्तमाकिंचन्यधर्माङ्गाय कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं नि. । नारस आने अधिक सुहाने षट्विधि जानै सुखदाई। शुभ मोदक कीने हाथ सु लीने मधु रस भीने चरु लाई ॥ रि कंचन थाला भक्ति विशाला कह गुण माला ज्ञानमई ॥ गकिंचन धर्मा जजि शुभ कर्मा दे फल परमा थान सही ॥ ॐ ह्रीं उत्तमाकिंचन्यधर्माङ्गाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. । णि दीपक नाना तेज महाना मोह नशाना ज्ञान करा । रि कंचन थारी भक्ति उचारी अर्थ अपारी पाप हरा ॥ या तम धोवै गुणमणि पोवै शिवमग जोवै ज्योतिमयी । गकिंचन धर्मा जजि शुभ कर्मा दे फल परमा थान सही ॥ ॐ ह्रीं उत्तमाकिंचन्यधर्माङ्गाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. । श गंध मिलाई धूप बनाई अधिक सुहाई सुखकारी । लयागिरि डारा अगर सुधारा अलि गुंजारा मद धारी ॥ [५९ **** For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] ** श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ******************* ऐसी करि लीनी धूप नवींनी, भक्ति सुभीनी भावमई आकिंचन धर्मा जजि शुभ कर्मा दे फल परमा थान सही । ॐ ह्रीं उत्तमाकिंचन्यधर्माङ्गाय दुष्टाष्टकर्मदहनाय धूपं नि. । फल लौंग सुपारी श्रीफल भारी भक्ति भरारी गह आनौ फिर लाय बदामा खारिक ठामा, वांछित कामा फल जानौ एसो फल लायो अति हरषायां मुख गुन गायो पुण्य लही आकिंचन धर्मा जजि शुभ कर्मा दे फल परमा थान सही। ॐ ह्रीं उत्तमाकिंचन्यधर्माङ्गाय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. । जल चंदन लाया अक्षत भाया फूल मंगाया चरु जु धरी ले दीपक थारा धूप अपारा श्रीफल धारा अर्घ करी वह द्रव्य जु लाये भक्ति बढ़ाये ज्ञान सु पाये ध्यान नही आकिंचन धर्मा जजि शुभ कर्मा दे फल परमा थान सही ॐ ह्रीं उत्तमाकिंचन्यधर्माङ्गाय अनर्घपदप्राप्तयेऽर्घ्यं नि. । प्रत्येकार्थ्याणि ( मणुयणानंदकी चाल । स्वर्ग जग है अथिर ध्रौव्य नहिं मानिये । तात माता तिया भ्रात सुत जानिये ॥ चक्रवर्ती तने भोग क्षय जायजी । धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं अनित्यरूपोत्तम आकिञ्चन्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं नि. । आयु पूरन भये शर्ण नहिं कोय जी । औषधी मन्त्र बल तन्त्र बहु होयजी ॥ *: For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६१ :************************************* श्री दशलक्षण मण्डल विधान। व खग शर्न नहिं मर्न दिन आयजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी॥२॥ ॐ ह्रीं अशरणरूपोत्तम-आकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। पन्यतै प्रिति संसार सो है सही। या थकी राग अरु द्वेष उपजै मही॥ गरुख चारि गति माहिं दुखदायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी॥३॥ ॐ ह्रीं संसाररूपोत्तम-आकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। व एकहि फिरै चार गति आपही। एक भोगै सदा पुण्य या पापही॥ कोउ नहिं दुसरो आप दुःख पायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी ॥४॥ ॐ ह्रीं एकत्वरूपोत्तम-आकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। र्व द्रव्य भिन्न कोई मिले न जानिये। नीर क्षीर के समान जीव देह मानिये॥ नि इमि साधु निर्ग्रन्थ सुख पायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी ॥५॥ ___ ॐ ह्रीं अन्यत्ररूपोत्तम-आकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। ह में पवित्र वस्तु एक नहिं पाय हैं। सप्त धातु भरी द्वार नौ बहाय हैं। व निर्मल महा शुद्ध चेतनायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी॥६॥ ॐ ह्रीं अशुचिरूपोत्तम-आकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] ***** ** श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ******************* जोग मिथ्यात्व अव्रत कषाय जानिये । और परमाद भाव कर्म आठ मानिये ॥ त्यागि दुर्भावसाधु शुद्ध रूप ध्यायजी । धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी ॥७ ॐ ह्रीं आस्रवरूपोत्तम आकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं नि. । अन्यतैं विरक्त है जु आपरूप ध्यावही । राग द्वेषको विहाय शुद्ध तत्त्व पावही ॥ भाव संवर यही जानि सुखदायजी । धर्म आकिंचना पूजि भक्ति गायजी ॥८ ॐ ह्रीं संवररूपोत्तम आकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं नि. । पाप पुण्य भावतै जु कर्म बन्ध है सही। शुद्धता प्रभाव कर्म जाय निर्जरा लही ॥ जानि इस भांति बिन राग पद ध्यायजी । धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी ॥९ ॐ ह्रीं निर्जरारूपोत्तम आकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं नि. । तीन लोक नित्यरुप जानि नराकारजी । चार गति घूमि जीव दुःख ले अपार जी ॥ लोक को स्वरुप जानि आत्मतत्व ध्यायजी । धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी ॥ १० ॐ ह्रीं लोकरूपोत्तम आकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं नि. । वस्तुको स्वभाव धर्म जीव रक्षा कही । दर्श बोध आचरण जु रत्न तीनो सही ॥ For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। [६३ *************************************** चार विधि दान अरु धर्म दश ध्यायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी॥११॥ ॐ ह्रीं धर्मरूपोत्तम-आकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। गैर वस्तुको जु है सुलभ अपनावना। ज्ञान निधि आपनी न सहज ही लहावना॥ ताही पाय साधु शुद्ध आत्मरुप ध्यायजी। धर्म आकिंचना पूजि. भक्ति भायजी ॥१२॥ ___ ॐ ह्रीं बोधिदुर्लभरूपोत्तम-आकिंचन्यधर्माङ्गाय अयं नि.। भ्रात सुत नारि गज घोटकादि भाई है। दास दासी पिता सुतादि परिजनाइ है। संग चेतन तजो जानि दु:खदायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी॥१३॥ ॐ ह्रीं चेतनरुपब्रह्म परित्यागआकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं नि.। रत्न कंचन रजत ठाम वस्तर सही। ___ महल वन बाग बहुग्राम जुत शुभ सही। संग निर्जीव छांड़ि शुद्ध रूप ध्यायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी॥१४॥ ॐ ह्रीं अचेतनरूप बाह्यपरित्याग आकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। अंतरंग संग राग आदि अरु द्वेष है। या थकी जीव लहै चार गति क्लेश है। जानि यह अंतरंग संग छुड़वायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी ॥१५॥ ॐ ह्रीं अन्तरंगपरिग्रहत्यागाकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] श्री दशलक्षण मण्डल विधान।। *************************************** नग्न रूप धारिके जु संग दुविधा तजै। नेह देहको जु छोड़ी आप थिरता भजै॥ ता प्रसाद भक्ति माहिं ही रहै न आयजी। धर्म आकिंचना सु पूजि भक्ति भायजी॥१६॥ ॐ ह्रीं विविधपरिग्रह त्यागाकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। जयमाला। (दोहा।) आकिंचन इस जीवको, मिल्यो न शिवमग पाय। अब मैं पूजों नगन पद, फल यह मोह मिटाय॥ बेसरी छन्द। आकिंचन्य वृष दुर्धर जान,याकों धारि सकै न अयानो। ज्ञानी तो यामैं रुक जावै वीतराग है धरम निभावै॥ वांछा रोग जासु उर नाहीं, सो आकिंचन धरम धराई। विषय भिखारी जीव न पावै, वीतराग है धरम निभावै॥ आकिंचन्य जगत जिय प्यारा, जो धारै सो गुरु हमारा। परिग्रहधारी ताहि न पावै, वीतराग है धरम निभावै॥ आकिंचन्य इन्द्र सुर सेवै, ता प्रसाद निज आतम बैवें। लोभी जन यातै डरि जावै, वीतराग है धरम निभावै॥ आकिंचन वृष मोह निधाना, याहीतै है केवलज्ञाना। तन धन रंचक याहि न पावै, वीतराग है धरम निभावै॥ आकिंचन हाथी का भारा, विषयी जीव सुसा किम धारा। रागी नाम सुनत मुरझावै, वीतराग है धरम निभावै॥ For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। [६५ * ** ** * ** * * ** ** * * ** * * * ** * ** * * * * * * ** ** * * * आकिंचन्य धरम गढ नीका, ता बलघ्रौव्य राज है जीका। हम या व्रतको शीश नवावै, साधुजन गहि शिवपुर जावै॥ दोहा आकिंचन जो आदरे, शिव पहुँचावे सार । और सकल कर्मनि लुटै, इमि लखि गहु वृषसार॥ आकिंचन को सेवतें नशै करम बट मार । पूजौं मैं आकिंचना, ज्यौ पाऊँ भव पार ॥ ॐ ह्रीं आकिंचन्य-धर्माङ्गाय पूर्णायँ नि.। ( उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म पूजा ) अडिल्ल छन्द नारि देव नर पशु काष्ठ चित्रामकी। ब्रह्मचर्य व्रतधारिनके नहिं कामकी॥ मन वच काया मात सुता भगिनी गिनै। ऐसो व्रत ब्रह्मचर्य पूजि हम अघ हनै॥ ॐ ह्रीं उत्तम ब्रह्मचर्यधर्माङ्ग! अत्र अवतर२ संवौषट्। अत्र तिष्ठर ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणं। त्रिभङ्गी छन्द ले निर्मल पानी अति सुखदानी, उज्जवल आनी गंग तनौ। धरि कनक सु झारी मन-हरकारी निज करधारी हरष ठनौं। करि भक्ति सुलाऊँ अति गुण गाऊँ, पुण्य बढ़ाऊं सुखदाई। जजि ब्रह्म जुचारी वर शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. । For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** ले बावन चंदन दाह निकंदन, अगर घिसन्दन नीर करी। तिस गंध लुभाया षट्पद आया, गुंज कराया हर्ष धरी॥ शुभ गंध मंगायो पात्र धरायो, बहु महकायो सुखदाई॥ जजि ब्रह्म जुचारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ॐह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय संसारताप विनाशनाय चंदनं नि.॥३॥ ले अक्षत चोखे लखि निरदोखे, उज्वल धोके हित धारी। मुक्ता फल जैसे गंधित तैसे, दीरघ जैसे जो भारी॥ निर्मलजु अखंडित सौरभ मंडित, शशिमदखंडित सुखदाई। जजि ब्रह्म जु चारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ___ ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय-अक्षयपदप्राप्तयेऽक्षतान नि.॥४॥ बहु फूल जु लाया गंध लुभाया, रंग सुहाया सुखखानी। तसु माल बनाई सुभग सुहाई, अलिगण भाई मनमानी॥ मैं निज कर लायो हरष बढायो, जिन गुण गायो सुखदाई। जजि ब्रह्म जुचारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं नि.॥५॥ नैवेद्य सु नीका रसजुत ठीका, सुखदा जीका गुण थानो। करि भोदक लाया मधुर सुहाया, थाल भराया थुति गानो। जिन अग्र चढ़ाऊं मुख गुण गाऊं, अति हरषाऊं सुख पाई। जजि ब्रह्म जुचारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय क्षुध रोगविनाशनाय नैवेद्यं नि.॥६॥ मणि दीपक करीया तिमिर सुहरिया,ज्योति सुधरिया तेज खरा। धरि थाल सुलाया हरष बढाया, अति गुण गाया नेह धरा॥ For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। [६७ *************************************** मैं करौ आरती गाय भारती, धर्म सारथी शिवदाई। जजि ब्रह्म जुचारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि.। करि धूप पियारी दशविधि धारि, गंध अपारी मनमानी। शुभ चंदन डारा अगर अपारा,द्रव्य सु प्यारा बहु आनी॥ अपने कर लाया नेह लगाया, अगनि जराया जस गाई। जजि ब्रह्म जुचारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ___ ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय दुष्टाष्टकर्मदहनाय धूपं नि.। ले लौंग बदामा श्रीफल कामा, खारिक ठामा हम लाये। पुंगीफल आदि बहुफल स्वादी,भक्ति अराधी सुखपाये॥ भरि थाल अपारा शिव फलकारा,पाप विडारा सुखदाई। जजि ब्रह्म जुचारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ___ ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि.। जल चंदन लाया अखित सुभाया, फूल मिलाया गंध भारी। चरू दीपक आनो धूप दहानो, फल अधिकानो शिवकारी। वसु द्रव्य मँगाई अर्घ बनाई, भक्ति बढ़ाई शिवदाई। जजि ब्रह्म जुचारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिरथाई॥ ___ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय अनर्घ्यपदप्राप्तयेऽयं नि.। _प्रत्येकााणि तिया वास तहँ वास न कीजै, अपना शील भाव रखि लीजै। सकल नारिजननी समजोवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥ ॐ ह्रीं श्री स्त्रीसहवासवर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] श्री दशलक्षण मण्डल विधान। . . *************************************** नारी तन रति भाव न देखै, हाव भाव विभ्रम नहिं पेखै। शील धर्म निज सुख जोवै ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥ ॐ ह्रीं श्रीमनोहरांगनिरीक्षण-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायार्घ्य नि.। राग वचन कबहुँ नहिं बोलै, निज वच जिनवाणी समतोलै। राग वचन 1 प्रीति न होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥ ॐ ह्रीं रागवचन-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायायँ नि.। पूरव भोग किये न चितारै, सो ही शील भाव उर धारै। राग भाव तजि निज रस जोवे, ब्रह्मचर्य जजि सब अघखोवै॥ ___ ॐ ह्रीं पूर्वभोगानुस्मरण-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायायँ नि.। काम उदीपक अशन न खावै, षट्रस माहिंन जिय ललचावै। निशदिन शील भावना होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥ ॐ ह्रीं वृष्येष्ट-रस-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायायँ नि.।। तन श्रृङ्गार नहिं मन भावै भूषित देखि नहीं हरषावै। शीलाभरण विभूषित होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥ ___ ॐ ह्रीं स्वशरीर-संस्कार-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायायँ नि.। नारी की शय्या नहिं पौढ़े, कपड़ा नारी तनी नहिं ओढे। शील विरत ताके दिढ होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥ ॐ ह्रीं स्त्रीशय्यासन-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायावँ नि.। कबहूँ न काम कथा मन आई, विकथा काननते न सुनाई। ताके मदन चाह नहिं होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥ ___ॐ ह्रीं काम कथा-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायार्घ्य नि.। पूरण उदर अशन नहिं खावै, ऊनोदर में चित्त रमावै। शील पालना ताके होवै,ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥ ___ॐ ह्रीं उदरपूर्णाशन-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायायँ नि.। For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६९ *** वा शील धेरै जो कोई, ताके ब्रह्मचर्य व्रत होई । इस व्रततै भव तरनो होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ॥ श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ******************** ॐ ह्रीं नवधाशील पालनोत्तमब्रह्मचर्य धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । कामदेव वश तन तप होई, जिमि तरु होय तुषार दसोई । यह शोषण शर काम न होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ॥ ॐ ह्रीं शोषणकामबाण - वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । कामबाण जाके मन माहीं, मन संताप रहे अधिकाई । काम बाण संताप न होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ॥ ॐ ह्रीं संतापकामबाण - वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । काम बाण उच्चाट करावै, रहै उदास कछु न सुहावै । उच्चाटन शर काम न होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ॥ ॐ ह्रीं उच्चाटनकामबाण - वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । कामीजनको काम सतावै, ता वश ताहि न कछु सुहावै । वशीकरण शर बाण न होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ॥ ॐ ह्रीं वशीकरणकामबाण-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य - धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । कामदेवतै गहल जु होई, सुधि बुधि ताहि रहै नहिं कोई। सो मोहन शर काम न होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खावै ॥ ॐ ह्रीं मोहनकामबाण - वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । ये शर काम कहे लौकीका, सबतै बडौ मोह रिपु जीका । जहँ ये पांच बाण नहिं होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ॥ - ॐ ह्रीं पंचप्रकारकामबाण - वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । रूप तियाको लखि मुलकावै वृथा पाप शिर माहिं चढ़ावै । ये शर ताके मांहि न होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ॥ ॐ ह्रीं मुलकनकामबाण - वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] *** श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ********* बार बार तिय देखन चाहै, जाके उर अवलोकन दाहै। जाके उर यह सर नहिं होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ॥ ॐ ह्रीं अवलोकनकामबाण-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । ये चाहै पै ताहि न भावै, हास्य वचन कहि ताहि रिझावै । यह शर काम तहां नहिं होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ॥ . · ॐ ह्रीं हास्यकामबाण - वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । परगट वचन कहन नहिं पावै, सैन करै तिय जिय ललचावै। जाके यह शर काम न होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ॥ ॐ ह्रीं इङ्गितचेष्टा- वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । कामदेव जब अधिक सतावै, मिलै तिया नहिं प्राण गमावै । शर काम जहां नहिं होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ॥ ॐ ह्रीं मारणकामबाण - वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायार्घ्यं नि. । दशविधि कामबाण नशि जाई, शील बाड़ि पाले नवधाई । सो जिय शिवसुंदरिकों जोवै, ब्रह्मचर्य जजिं सब अघ खोवै ॥ ॐ ह्रीं शुद्धब्रह्मचर्य - धर्माङ्गायार्घ्यं नि. स्वाहा । दोहा - शील शिरोमणी जगतमें, सकल धरम शिरमौर । शिवकर अघहर पुण्यभर, जजौ शील गुण ठौर ॥ शील सिद्ध थलका मग जानो, शील सुरग सरिता मन आनो शील भावतै अघ नशि जाई, सांचा धर्म शील है भाई ॥ शील मनुज भवमें ही गाया, नहिं निज जन्म सफल करि भाया शील समुद्र संसार तराई, सांचा शील धर्म है भाई ॥ शील सहाय करे जग जाकी, सुरनरसेव करत हैं ताकी । ताको नाम लेत दुख जाई, सांचा धरम शील है भाई ॥ For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। [७१ *************************************** शील सती सीताने धारौ, अग्निकुण्ड शीतल करि डारौ। शील प्रभाव जगत पुजवाई, सांचा धरम शील है भाई॥ शील सती द्रोपदिने धारौ, ताफल कीचक भीमविदारौ। भूप हरी पीछे फिर आई, सांचा धरम शील है भाई॥ शील सती नीली मन आनौ, सुरनर पूज भईजग जानौ। दोष सकल जातै नशि जाई,सांचा धरम शील है भाई॥ शील गुणवती कन्या लीनों, ताको देव सहाय जु कीनों। शील विरततै सुरगति पाई, सांचा धरम शील है भाई॥ शील सती सोमाने धारा, ताफल सर्प भयो मणि-हारा। जग जस ले सुरलोक सिधाई,सांचा धरम शील है भाई॥ सेठ सुदर्शन यह व्रत कीनो,पुण्य प्रताप सुयश जगलीनो। शील सुरेन्द्र सिद्ध पद दाई, सांचा धरम शील है भाई॥ ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गाय-महायँ नि.। समुच्चय जयमाला। धरम जगतमें सार, उत्तम क्षमा जु आदि दे। भवदधि तारनहार, नमों धरम दशलक्षिणी॥ क्षमा धरम सब जगमें आला, निज परिणतिको है रखवाला। क्षमा रतन गुण रतन भंडारो, मोकू भवसागरतै तारों। मार्दव धरम सकल गुण वृन्दा, मान विहंडन शिवसुखकंदा। मार्दव गुणते विनय प्रसारौ, मोकू भवसागर” तारो॥ आर्जव रीति सकल सुखदानी, सरल स्वभाव कुटिलता हानी। आर्जव शिवपुर पंथ सहारो,मोकू भवसागरतें तारो॥ सत्य धरम सम सार न कोई, सत्य धरम जिन भाषित होई। सत्य सकल संतनिकू प्यारो,मोकू भवसागरतें तारो॥ For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] ***** श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ***************: *** शौच धरम निर्मलता होई, शौच धरम सब विधि मल खोई । शौच धरम शिवमंदिर द्वारो, मोकूं भवसागरतैं तारो ॥ संयम मन इन्द्रियवश लावै, त्रस थावरके प्राण रखावे । संयम भाव सदा उर धारो, मोकूं भवसागरतैं तारो ॥ तप सब आशा पाशी तोरै, कर्म अनादि बंधको छोरै । तप जलतै ह्वै अघ मल न्यारो, मोकूं भवसागर तारो ॥ त्याग पाप मल धोवनहारा, त्याग धरम उर करै उजारा । त्याग भावतै कर्म निवारो, मोकूं भवसागरतैं तारो ॥ नगन मोक्षका बड़ा निशाना, नगन बिना नाहीं शिवथाना । आकिंचन वृष नगन विचारो, मोकूं भवसागरतैं तारो ॥ ब्रह्मचर्य शिवनारी मिलावै, ता बिन जीव जगत भरमावै । ब्रह्मचर्य थिर मन धारो, मोकूं भवसागरतैं तारो ॥ ऐसे दश विधि धरम पियारा, जन्म- रोग - ह औषधि सारा । 'टेक' धरम निजपर निरवारो, मोकूं भवसागर तारो ॥ दोहा - आतम अवलोकन धरम, दशविधि धरि मनलाय । जल फलादि वसु द्रव्यतैं, धरम जजौ हरषाय ॥ दशविधि धरम उपायकै, भवसागर तिरि जाय । मनवांछा मेरी यही भव भव होय सहाय ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादि- ब्रह्मचर्य - पर्यंत दशलक्षण धर्माङ्गायपूर्णा नि. । इत्याशीर्वादः । फिर १०८ जाप्य देकर आरती करके शान्ति विसर्जन करे । इति दशलक्षण मण्डल विधान [ समाप्त ] For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजन व व्रतोद्यापनके लिये हस्तलिखित पक्के रंगीन मांडने मोटे कपडे पर इस प्रकार तैयार है। इसके हम सोल एजन्ट हैं। साईज ४॥x ४॥ फीट। पंचकल्याणक ५००) शांति विधान ५००) समोशरण ५५०) तेरहद्वीप ७५०) इन्द्रध्वज ७५०) ढाईद्वीप ७५०) वर्तमान चौवीसी ५००) नन्दीश्वर ५००) जम्बूद्वीप ५५०) कर्मदहन ५००) चौसठऋद्धि ५५०) दशलक्षण ५००) नवग्रह ५००) पंचपरमेष्ठी ५००) सोलहकारण ५००) रत्नत्रय ५००) सुदर्शनमेरु वि. ५००) तीन चौबीसी ५००) पंचमेरु ५००) भक्तामर ५००) सिद्धचक्र ५५०) ऋषिमंडल ५५०) सहस्त्रनाम ५५०) तीस चौवीसी ५५०) बीस विरहमान ५००)तीनलोक विधान २॥x२ गजका ७५०) सभी मांडने रंगीन व पक्के रंगके है। मंदिरोंमें कायम रखनेको अवश्य मंगाइये। मांडने मंगवानेवाले ३००) एडवांस भेजें। एडवांस आनेपर ही मांडना भेजा जायेगा। भक्तामर रहस्य जिसमें मुगलकालीन ५० भाव चित्रोंसे सुसज्जित, ललित ४८ यंत्रकृतियोंसे मंडित, संशोधित दिव्य यंत्रसे विभूषित, पौराणिक भव्य कथाओंसे अलंकृत भावार्थ, विवेचन, पूजन, विधान आदिसे समर्चित डिमाई साईझमें बढिया कागज पर मुद्रित पृष्ठ ५२५ मूल्य १००) प्रमोद कापडिया दिगम्बर जैन पुस्तकालय खपाटिया चकला, गांधीचौक सूरत-३.टे. नं.(०२६१) २५९०६२१ al Education International For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परोपग्रहो जीवानाम् सभी तरहके दिगम्बर जैन धार्मिक ग्रंथ मंगानेका पता Serving Jin Shasan खपाटिया रत-३ 134666 .Ph. gyanmandirikobatirth.org 90621 Mob.: 9374724727 For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.com