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श्री दशलक्षण मण्डल विधान।
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भाव अवांछित कर नैवेद्यं, नाना रस मय ले निरखेद्यं । भूख नाशि चित साता पावै, सो संयम वृष जजि शिरनावै॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. । सम्यग्ज्ञान दीप करि भाई, शुद्ध भाव भाजन धरवाई। ताके फल अज्ञान मिटावै,सो संयम वृष जजि शिरनावै॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि.। कर्म आठमय धूप करीजै,धरम सु ध्यान अगनि खेवीजै। ताफल दुष्ट कर्म नशि जावै, सो संयम वृष जजि शिरनावै॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गायदुष्टाष्टकर्मदहनाय धूपं नि.। उत्तम परिणति को फल कीजै,शुद्धभाव कन थाल धरीजै। तातै मनवांछित फल पावै, सो संयम वृष जजि शिर नावै॥ ___ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गाय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि.। आठौ द्रव्य अमोलिक जानी, प्रासुक भाव सहित हित दानी। पद अनार्य तासु फल पावै, सो संयम वृष जजि शिरनावै॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयम धर्माङ्गाय अनर्घ्य पद प्राप्तयेऽयं नि.।
. प्रत्येकााणि। - ॥ चौपाई॥ ताल कूप खाई न खुदाय, भूमि काय तब दया पलाय। पृथ्वीकायकी रक्षा होय, संयम धर्म जजो मद खोय॥१॥
ॐ ह्रीं पृथ्वीकायजीवरक्षणरूपसंयम धर्माङ्गायायँ नि.। अनगालो जल बरतै नाहिं, नदी तलाब कुड़ावै नाहिं। जलकायिक जिय रक्षा करै,संयम वृष जजि शिवतियवरै॥
ॐ ह्रीं जलकायिकजीवरक्षणरूपसंयम-धर्माङ्गायार्घ्य नि.।
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