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________________ ४८1 श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** एक वरस तक वास करता, उत्तम तप जिनवाणी भणंता। ताके भेद बहुत है भाई, यह अनशन तप जजि सुखदाई॥ ॐ ह्रीं उत्कृष्ट-तपोधर्माङ्गायायँ नि.। भूख प्रमाण थकी लघु खईये, सो अवमौदर तप वरनईये। यह तप विधि भूधर पविमाना, सो मैं जजौं अरघ कर आना। . ॐ ह्रीं अवमौदर्य तपोधर्माङ्गायायँ नि.। । आज इसी विधि भोजन पइये, तो हम लेय नतर थिर रहिये। ऐसी विधि प्रतिज्ञा ठानै, सो तप जजौं कर्म गिरि भानै॥ ॐ ह्रीं व्रतपरिसंख्यान तपोधर्माङ्गायायँ नि.। त्यागै इक दुई त्रय रस भाई, चार पांच षट् तजि नहिं खाई। ऐसो रस परित्याग सु ठानै, सो तप जजौं कर्म गिरि भानै॥ ॐ ह्रीं रस परित्याग तपोधर्माङ्गायायँ नि.। आशन दिढ़ भू सोधि करावै, थिरता भजै सु तन न हिलावै। शय्यासन तप या विधि ठाने, सो तप जजौं कर्म गिरि भानै॥ - ॐ ह्रीं श्रीविविक्तशय्याशन तपोधर्माङ्गायायं नि.। काय कसैं मन आनन्द पावै, सो तप काय कलेश कहावै। शोक हरै सुख करै महानो, सो तप जजौं कर्म गिरि भानों॥ ___ॐ ह्रीं श्री कायकलेश तपोधर्माङ्गायायँ नि.। अडिल्ल छन्द। मुनिको जो परमादवशी दूषण लगै। ___ तत्क्षण गुरुपै जाय जु प्रायश्चित मंगै॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004081
Book TitleDash Lakshan Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand Kavi
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size7 MB
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