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श्री दशलक्षण मण्डल विधान।।
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नग्न रूप धारिके जु संग दुविधा तजै।
नेह देहको जु छोड़ी आप थिरता भजै॥ ता प्रसाद भक्ति माहिं ही रहै न आयजी।
धर्म आकिंचना सु पूजि भक्ति भायजी॥१६॥ ॐ ह्रीं विविधपरिग्रह त्यागाकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.।
जयमाला। (दोहा।) आकिंचन इस जीवको, मिल्यो न शिवमग पाय। अब मैं पूजों नगन पद, फल यह मोह मिटाय॥
बेसरी छन्द। आकिंचन्य वृष दुर्धर जान,याकों धारि सकै न अयानो। ज्ञानी तो यामैं रुक जावै वीतराग है धरम निभावै॥ वांछा रोग जासु उर नाहीं, सो आकिंचन धरम धराई। विषय भिखारी जीव न पावै, वीतराग है धरम निभावै॥ आकिंचन्य जगत जिय प्यारा, जो धारै सो गुरु हमारा। परिग्रहधारी ताहि न पावै, वीतराग है धरम निभावै॥ आकिंचन्य इन्द्र सुर सेवै, ता प्रसाद निज आतम बैवें। लोभी जन यातै डरि जावै, वीतराग है धरम निभावै॥ आकिंचन वृष मोह निधाना, याहीतै है केवलज्ञाना। तन धन रंचक याहि न पावै, वीतराग है धरम निभावै॥ आकिंचन हाथी का भारा, विषयी जीव सुसा किम धारा। रागी नाम सुनत मुरझावै, वीतराग है धरम निभावै॥
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