Book Title: Dash Lakshan Vidhan
Author(s): Tekchand Kavi
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 68
________________ ६६ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। *************************************** ले बावन चंदन दाह निकंदन, अगर घिसन्दन नीर करी। तिस गंध लुभाया षट्पद आया, गुंज कराया हर्ष धरी॥ शुभ गंध मंगायो पात्र धरायो, बहु महकायो सुखदाई॥ जजि ब्रह्म जुचारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ॐह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय संसारताप विनाशनाय चंदनं नि.॥३॥ ले अक्षत चोखे लखि निरदोखे, उज्वल धोके हित धारी। मुक्ता फल जैसे गंधित तैसे, दीरघ जैसे जो भारी॥ निर्मलजु अखंडित सौरभ मंडित, शशिमदखंडित सुखदाई। जजि ब्रह्म जु चारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ___ ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय-अक्षयपदप्राप्तयेऽक्षतान नि.॥४॥ बहु फूल जु लाया गंध लुभाया, रंग सुहाया सुखखानी। तसु माल बनाई सुभग सुहाई, अलिगण भाई मनमानी॥ मैं निज कर लायो हरष बढायो, जिन गुण गायो सुखदाई। जजि ब्रह्म जुचारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं नि.॥५॥ नैवेद्य सु नीका रसजुत ठीका, सुखदा जीका गुण थानो। करि भोदक लाया मधुर सुहाया, थाल भराया थुति गानो। जिन अग्र चढ़ाऊं मुख गुण गाऊं, अति हरषाऊं सुख पाई। जजि ब्रह्म जुचारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय क्षुध रोगविनाशनाय नैवेद्यं नि.॥६॥ मणि दीपक करीया तिमिर सुहरिया,ज्योति सुधरिया तेज खरा। धरि थाल सुलाया हरष बढाया, अति गुण गाया नेह धरा॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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