Book Title: Dash Lakshan Vidhan
Author(s): Tekchand Kavi
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 67
________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। [६५ * ** ** * ** * * ** ** * * ** * * * ** * ** * * * * * * ** ** * * * आकिंचन्य धरम गढ नीका, ता बलघ्रौव्य राज है जीका। हम या व्रतको शीश नवावै, साधुजन गहि शिवपुर जावै॥ दोहा आकिंचन जो आदरे, शिव पहुँचावे सार । और सकल कर्मनि लुटै, इमि लखि गहु वृषसार॥ आकिंचन को सेवतें नशै करम बट मार । पूजौं मैं आकिंचना, ज्यौ पाऊँ भव पार ॥ ॐ ह्रीं आकिंचन्य-धर्माङ्गाय पूर्णायँ नि.। ( उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म पूजा ) अडिल्ल छन्द नारि देव नर पशु काष्ठ चित्रामकी। ब्रह्मचर्य व्रतधारिनके नहिं कामकी॥ मन वच काया मात सुता भगिनी गिनै। ऐसो व्रत ब्रह्मचर्य पूजि हम अघ हनै॥ ॐ ह्रीं उत्तम ब्रह्मचर्यधर्माङ्ग! अत्र अवतर२ संवौषट्। अत्र तिष्ठर ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणं। त्रिभङ्गी छन्द ले निर्मल पानी अति सुखदानी, उज्जवल आनी गंग तनौ। धरि कनक सु झारी मन-हरकारी निज करधारी हरष ठनौं। करि भक्ति सुलाऊँ अति गुण गाऊँ, पुण्य बढ़ाऊं सुखदाई। जजि ब्रह्म जुचारी वर शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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