Book Title: Dash Lakshan Vidhan
Author(s): Tekchand Kavi
Publisher: Digambar Jain Pustakalay
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श्री दशलक्षण मण्डल विधान।
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आकिंचन्य धरम गढ नीका, ता बलघ्रौव्य राज है जीका। हम या व्रतको शीश नवावै, साधुजन गहि शिवपुर जावै॥
दोहा आकिंचन जो आदरे, शिव पहुँचावे सार । और सकल कर्मनि लुटै, इमि लखि गहु वृषसार॥ आकिंचन को सेवतें नशै करम बट मार । पूजौं मैं आकिंचना, ज्यौ पाऊँ भव पार ॥
ॐ ह्रीं आकिंचन्य-धर्माङ्गाय पूर्णायँ नि.। ( उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म पूजा )
अडिल्ल छन्द नारि देव नर पशु काष्ठ चित्रामकी।
ब्रह्मचर्य व्रतधारिनके नहिं कामकी॥ मन वच काया मात सुता भगिनी गिनै।
ऐसो व्रत ब्रह्मचर्य पूजि हम अघ हनै॥ ॐ ह्रीं उत्तम ब्रह्मचर्यधर्माङ्ग! अत्र अवतर२ संवौषट्। अत्र तिष्ठर ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणं।
त्रिभङ्गी छन्द ले निर्मल पानी अति सुखदानी, उज्जवल आनी गंग तनौ। धरि कनक सु झारी मन-हरकारी निज करधारी हरष ठनौं। करि भक्ति सुलाऊँ अति गुण गाऊँ, पुण्य बढ़ाऊं सुखदाई। जजि ब्रह्म जुचारी वर शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. ।
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