Book Title: Dash Lakshan Vidhan
Author(s): Tekchand Kavi
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 69
________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। [६७ *************************************** मैं करौ आरती गाय भारती, धर्म सारथी शिवदाई। जजि ब्रह्म जुचारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि.। करि धूप पियारी दशविधि धारि, गंध अपारी मनमानी। शुभ चंदन डारा अगर अपारा,द्रव्य सु प्यारा बहु आनी॥ अपने कर लाया नेह लगाया, अगनि जराया जस गाई। जजि ब्रह्म जुचारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ___ ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय दुष्टाष्टकर्मदहनाय धूपं नि.। ले लौंग बदामा श्रीफल कामा, खारिक ठामा हम लाये। पुंगीफल आदि बहुफल स्वादी,भक्ति अराधी सुखपाये॥ भरि थाल अपारा शिव फलकारा,पाप विडारा सुखदाई। जजि ब्रह्म जुचारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई॥ ___ ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि.। जल चंदन लाया अखित सुभाया, फूल मिलाया गंध भारी। चरू दीपक आनो धूप दहानो, फल अधिकानो शिवकारी। वसु द्रव्य मँगाई अर्घ बनाई, भक्ति बढ़ाई शिवदाई। जजि ब्रह्म जुचारी वरि शिवनारी, आनंदकारी थिरथाई॥ ___ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय अनर्घ्यपदप्राप्तयेऽयं नि.। _प्रत्येकााणि तिया वास तहँ वास न कीजै, अपना शील भाव रखि लीजै। सकल नारिजननी समजोवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥ ॐ ह्रीं श्री स्त्रीसहवासवर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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