Book Title: Dash Lakshan Vidhan
Author(s): Tekchand Kavi
Publisher: Digambar Jain Pustakalay
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६८]
श्री दशलक्षण मण्डल विधान। . .
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नारी तन रति भाव न देखै, हाव भाव विभ्रम नहिं पेखै। शील धर्म निज सुख जोवै ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥
ॐ ह्रीं श्रीमनोहरांगनिरीक्षण-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायार्घ्य नि.। राग वचन कबहुँ नहिं बोलै, निज वच जिनवाणी समतोलै। राग वचन 1 प्रीति न होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥
ॐ ह्रीं रागवचन-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायायँ नि.। पूरव भोग किये न चितारै, सो ही शील भाव उर धारै। राग भाव तजि निज रस जोवे, ब्रह्मचर्य जजि सब अघखोवै॥ ___ ॐ ह्रीं पूर्वभोगानुस्मरण-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायायँ नि.। काम उदीपक अशन न खावै, षट्रस माहिंन जिय ललचावै। निशदिन शील भावना होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥
ॐ ह्रीं वृष्येष्ट-रस-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायायँ नि.।। तन श्रृङ्गार नहिं मन भावै भूषित देखि नहीं हरषावै। शीलाभरण विभूषित होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥ ___ ॐ ह्रीं स्वशरीर-संस्कार-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायायँ नि.। नारी की शय्या नहिं पौढ़े, कपड़ा नारी तनी नहिं ओढे। शील विरत ताके दिढ होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥
ॐ ह्रीं स्त्रीशय्यासन-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायावँ नि.। कबहूँ न काम कथा मन आई, विकथा काननते न सुनाई। ताके मदन चाह नहिं होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥ ___ॐ ह्रीं काम कथा-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायार्घ्य नि.। पूरण उदर अशन नहिं खावै, ऊनोदर में चित्त रमावै। शील पालना ताके होवै,ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै॥ ___ॐ ह्रीं उदरपूर्णाशन-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्य-धर्माङ्गायायँ नि.।
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