Book Title: Dash Lakshan Vidhan
Author(s): Tekchand Kavi
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 51
________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान । ** जो आचारज दण्ड देय सो लेय ही । तप प्रायश्चित जजौं अरघ शुभ देय ही ॥ ॐ ह्रीं श्री प्रायश्चित तपोधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । देव धर्म गुरु और थान जो पूज हैं । तीरथ अतिशय सिद्धक्षेत्र अघ धूज हैं। तिनकी विनय अनूप करै तजि मानजी । सो तप विनय विचार जजौं शिवदानजी ॥ ॐ ह्रीं श्री विनय तपोधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । जो मुनिको मग चलत तथा तप करत ही । उपजै तनमें खेद कर्मबलतें सही ॥ तो मुनिके करि पांव चम्पिये जो सुधी । सो तप वैय्यावृत्य जजौं नाशक कुधी ॥ ॐ ह्रीं श्री वैय्यावृत्यतपोधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । जिन धुनि वाचै सुनै हरष करि चिंतवै । धरि जिनकी आम्नाय पाप मलको चवै ॥ सो तप है: स्वाध्याय ज्ञान उर लावनो । [४९ ***** सो यह तप मैं जजौं स्वर्ग सुख पावनो ॥ ॐ ह्रीं श्री स्वाध्याय - तपोधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । काय ममतको त्याग यतिश्वर थिति करै । Jain Education International काय त्याग तप धार कर्म अरि मद हरें ॥ तप व्युत्सर्ग महान जानिं मन भावनो । सो मैं पूजौं अर्घ धारि कर पावनो ॥ ॐ ह्रीं श्री व्युत्सर्ग- तपोधर्माङ्गायार्घ्यं नि. । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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