Book Title: Dash Lakshan Vidhan
Author(s): Tekchand Kavi
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 28
________________ २६] श्री दशलक्षण मण्डल विधान। * * * * * * * * * * * * * * * * ** * * * ** * * * * * * * * * * * ** *** सत धर्म अनूपा शुभ रस कूपा, पूण्य स्वरूपा मग मानौ। एसो सति धर्मा काटत कर्मा, धूप जु परमा जजि जानौ। ___ॐ ह्रीं श्री सत्यधर्माङ्गाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्व.। सतिधर्म अभ्यासौ शिवथल वासौ,पाप विनासौ हितकारी। गुण ज्ञान बढ़ावै आदर ल्यावै, पुण्य उपावै सति भारी॥ जगमें अति नीका बन्धु जीका, शिवतिय पीका गुण थानौ ऐसो सति धर्मा काटत कर्मा, ले फल परमा जजि जानौ । ॐ ह्रीं श्री सत्यधर्माङ्गाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्व.। जल चन्दन नीका अक्षत टीका, फूल चुनीका माल करौ। चरु दीप सु लाया धूप बनाया, श्रीफल आया अर्घ धरौ॥ उर भक्ति बढ़ाई मुख थुति गाई, सत सब भाई पहिचानौ। ऐसो सति धर्मा काटत कर्मा, अर्घ्यं परमा जजि जानौ॥ ___ॐ ह्रीं श्री सत्यधर्माङ्गाय अर्घ्य पदप्राप्तयेऽर्थ्य निर्व. स्वाहा। प्रत्येकााणि - चौपाई क्रोध सहित जिय सत नहिं कहै, झूठ वचन तें अघ शिर लहै। क्रोध रहित जे वचन प्रमानि, सो सतधर्म चयो जिनवानी॥ ___ॐ ह्रीं श्री क्रोधातिचाररहित-सत्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। लोभ सहित जिय झूठ बखानि, सांच धरम ताको नहिं मानि। लोभ रहित सत धरम सुभाय, सो सत धर्म जजौं थुतिगाय॥ ॐ ह्रीं श्री लोभातिचाररहित-सत्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। सांच न कहै भीतियुत जीव, बोले असत सु वचन सदीव। भयतै रहित सत्य वच भाख,सो सत धर्म करो थुति लाख ॥ ॐ ह्रीं श्री भयातिधाररहित-सत्यधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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