Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 16
________________ २ वुधजन सतसई नम्रं तोहि कर जोरिके. सिवेनरी कर जोरि । वरजोरी विधिकी हरौ, दीजै यौ वरै जोरि ॥ ५ ॥ तीन कालकी खबरि तुम. तीन लोकके तात । त्रिविधिमुद्ध वंदन करूं, त्रिविध ताप मिटिजात ॥ ६ ॥ तीन लोकके पति प्रभु, परमातम परमेस | मन-चच-तनतें नमत हूँ, मेटाँ कठिन कलेम ॥ ७ ॥ पूजूं तेरे पाँयकूं, परम पदार्थ जान । तुम पूजेतें होत है. सेवक आप नमान ॥ ८ ॥ तुम समान कोउ आन नहि, न जाय कर नाय | सुरपति नरपति नागपति, आय परै तुम पाँच ॥ ९ ॥ तुम अनंतगुन मुखथकी, कैसे गाये जात ईद सुनिंद फनिंद हू, गान करत थकि जात ॥ १० ॥ तुम अनंत महिमा अतुल, यौ मुख कर गान | सागर जल पीत न बनें, पीजें तृपा समान ॥ ११ ॥ कह्या बिना कैसे रहूं, मौसर मिल्यौ अचार | ऐसी विरियां टार गया, केसे बनत सुधार ॥ १२ ॥ जो हूं कहाऊं औरतै, तो न मिटे उरझार । मेरी तो मोपे बनै, तातै करूं पुकार ॥ १३ ॥ आनंदयन तुम निरखिर्के, हरपत है मन मोर । दूर भयौ आताप सत्र, सुनिकै मुखकी घोर ॥ १४ ॥ १ मोक्षरूपी दुलहनका प्राणिग्रहण कराके । २ जबर्दस्ती । ३ बरदान । ४ मुखसे । ५ अवसर - मौका । ६ इस समय ।

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