Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 39
________________ - - सुभापितनीति। दोस धात पखानमैं, नाहिं विराज देव । देवभाव भायें भला, फलै लाभ स्वयमेव ॥२७॥ तिसना दुसकी खानि है, नंदनवन संतोप । हिंसा बंधकी दायिनी, दया दायिनी मोप ॥२८॥ लोभ पापको वाप है, क्रोध कर जमराज । माया विपकी वेलरी, मान विपम गिरिराज ॥२९॥ विषेसाईत दर क्या, को विदेश विद्वान । कहा भार समर२५ को, मिष्टं वह को ओन ॥३०॥ कुलकी सोभा सीलत. तन सोहै गुनवान । पढ़िवा सोहे सिधि भये, धन सोह दै दान ॥३१॥ असंतोपि दुज भ्रष्ट है, संतोपी नृप हान। । निरलज्जा कुलतिय अधम, गनिका सलज अजान ॥३२॥ कहा करें मृरस चतुर, जो प्रभुद प्रतिकूल । हरि हर्ल हारे जतनकार, जरे जंदु निरमूल ॥३३॥ सेती लसिये प्रात उठि, मध्यान लखि गेह। अपरान्है धन निरखिये, नित सुत लखि करि नेह ॥३४॥ विद्या दय कुगिप्यकों, कर मुगुरु अपकार । , लास लैंडावा भानजा, खोसि लेय अधिकार ॥३५॥ १ लकडी। २ बंधकी करनेवाली । ३ वल्लरी-चेल । ४ व्यवसायी-उद्यमी। ५ मिष्ठवचन बोलनेसे कोई अन्य नहीं रहता-सब अपने हो जाते हैं। ६ वलदेवजी । ७ यादववंशी। प्यार करो । छीन लेय । - - - -

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