Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
VIPL
नमो हितोपदेगाय
बुधजन-सतसई।
-988
अर्थात्
कविवर वुधजनजीके वनाय हुए
७०० दोहोंका संग्रह।
सगोवक पं० नाथूरामजी प्रेमी।
प्रचारा
जैन ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय
हीराबाग, बम्बई।
तृतीयावृत्ति]
[मूल्य सात याने।
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशक छगनमल वाकलीवाल
मालिक जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय हीरावाग, वम्बई न०४
मुद्रक ज्योतीप्रसाद गुप्त महावीर प्रेस, किनारीवाजार
आगरा।
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयपुर निवासी कविवर श्रीभदीचन्द्रजी (बुधजननी) संक्षिप्त परिचर्य
चा
जैन - साहित्य के इतिहास में जितना गारव जयपुर ( जैनपुर ) नगरको प्राप्त है, उतना शायद ही किसी अन्य नगरको हो । जयपुर राज्यका इतिहास इस बात का साक्षी है ।
मोक्षमार्गप्रकाशक के रचयिता विद्वद्वर्य पं० टोडरमलजी तथा न्याय और सिद्धांतके विद्वान् पं० जयचन्द्रजीको कौन नहीं जानता ? ये दोनों महापुरुष मी इसी नगर के निधि थे | परन्तु शोकका विषय हैं, कि आज उन उन विद्वानोंका देश तथा धर्मकी वलि-वेढीपर हॅसते हॅमते ग्राण दे देनेवाले सैकड़ों जैन बीका नाम लुप्तप्राय हो रहा है । सचमुच यह माहित्यिक हा एक स्वाभिमानी जैनीके लिए वज्राघातसे भी अधिक दुःखप्रद है । समाज और साहित्यका कितना घनिष्ट सम्बन्ध है, इसे कौन नहीं जानता, जिस समाजका साहित्य नष्ट हो चुका हैं उस समाजका अन्त भी निकट ही समझिये ।
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन सतसईजैन-साहित्यकी दयनीय दशाको देखकर वयोवृद्ध मास्टर मोतीलालजी संघी, प्रबन्धक श्रीसन्मति पुस्तकालय जयपुरसे न रहा गया । आपने जयपुरीय जैनविद्वानों तथा कवियोंकी कृतियोंका उद्धार करनेका संकल्प किया, उसीके फल स्वरूप आप अनेक कष्टोंको सहते हुए खोजका काम कर रहे हैं, इस खोजके सम्बन्धमें कई जैनपत्रोंमें लेख निकल चुके हैं। आज हम सतसईके पाठकोंके समक्ष उसके रचयिता कविवर श्रीमदीचन्द्रजी वजकी पवित्र जीवनी रखते हैं। यह हमें मास्टर सा० की कृपा से प्राप्त हुई है, इस कृपाके लिये हम उनके अत्यन्त कृतज्ञ हैं। हमारी हार्दिक भावना है, कि मास्टर साहेब को इस कार्यमें दिन दूनी रात चौगुनी सफलता प्राप्त हो, हर एक जैनी का कर्तव्य है कि वह मास्टर साहेब को इस कार्य में यथाशक्ति सहायता दे।
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
कवि - परिचय | वंशवृक्ष ।
कविवर भदीचन्द्रजी जयपुर निवासी श्री निहालचन्दजी के तीसरे पुत्र थे । आपका गोत्र वज था । जाति आपकी खण्डेलवाल थी। निम्नस्थ वंश-वृक्षसे आपके वंशका भली भांति परिचय मिलता है:
* शोभाचन्द्रजी पूरणमलजी + (१) निहालचन्द्रजी (२) जादुदासजी
(१) गुलाबचन्द्रजी, (२) श्रमीचन्द्रजी, (३) भदी चन्द्रजी, (४) श्योजीरामजी, (५) गुमानीरामजी, (६) भगतरामजी,
अमरचन्द्रजी
मोतालालजी
सोनजी
फूलचन्द्रजी
* श्रीशोभाचन्द्रजीकी जन्मभूमि आमेर थी । आप वहाँ बहुत समय तक रहे थे । परन्तु अब वहाँ निर्वाह नहीं हुआ, तब आप सामानेर ( जयपुर राज्यान्तर्गत एक नगर ) चले गये । सामामेश्मे रहते थे, परन्तु अपने निर्वाहके लिये आपको भी जयपुर जाना पड़ा था ।
+ श्रीदूरमलजी व
कवि-परिचय |
Ww
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन - सतसई
अभी तक आपके जन्मका समय तथा वाल्यकालका
41
हाल प्राप्त नहीं हुआ है, केवल इतना पता लग पाया है, कि आपने विद्याध्ययन पं० मांगीलालजीके पास किया था । जो टिक्कीवालोंके रास्ते में रहते थे । जैनधर्मके प्रति बाल्यकाल से ही आपकी भक्ति थी । आप श्रावक के पटावश्यकोंको यथाशक्ति पालते थे । आप दीवान अमरचन्द्रजीके मुख्य मुनीम थे। दीवानजी आपके कार्यसे सदैव सन्तुष्ट रहते थे, और आपपर पूर्ण विश्वास रखते थे । वे जो कुछ नवीन कार्य करते उसमें आपसे अवश्य सलाह ले लेते थे | दीवानजी प्रायः अपने खास काम इनकी अध्यक्षतामें ही कराते थे । एक बार दीवानजीने एक जैनमन्दिर बनवानेके लिये कहा तो आपने आज्ञा पाते ही एक की जगह दो मन्दिर बनवाना आरम्भ कर दिया । हमारे चरितनायककी यह हार्दिक इच्छा थी, कि इन दोनों मन्दिरोंपर दीवानजीका ही नाम रहे । इनको दो मन्दिर बनवाते देख कई लोगोंने दीवानजी से कविवरके विरुद्ध चुगली खाई और कहा कि देखिये, आपका गुमास्ता कैसा नीच कार्य कर रहा है । आपने तो उसको एक मन्दिर बनवानेका हुक्म दिया था, लेकिन वह दो बनवा रहा है, और दूसरे मन्दिरके लिये वह
४
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
कावि-परिचय।
आपके मन्दिरका मसाला चुरखा २ कर मॅगाता है। इससे मालूम होता है, कि उसकी नीयत खराब है। ऐसे व्यक्तिको आप नोकर न सिये। दीवानजीने उसकी बातें सुनकर कहा कि भदीचन्द्रजी मकान वगैरह अपने निर्वाहाय तो बनाते ही नहीं हैं। वे तो भव्यजीवोंके कल्यानाथ जिनालय बनवाने हैं। अच्छा है, उन्हें जमा चाहे बमा करने दो । उसके बाद एक दिन जब उनकी शिकायत करनेवाले मन्दिरजीके पास बड़े हा ये दीवानजी वहॉ जा पहुंचे और कहने लगे, भदीचन्द्रजी. दुसरे मन्दिर मी आप जी गोल कर काम करवाइये। किसी प्रकारकी कमी न रहने दें, दीवानजीकी यह बात सुनकर चुगलखोरोंका चहरा उनर गया। मन्दिगेक बन चुकनपर भदीचन्द्रजीन उनमें भगवानकी प्रतिमाओंके स्थापनका विचार किया । आपने गिलावटोंक पास ६ माह तक बैठकर गावानुकल बड़ी ही मनोज्ञ प्रतिमाएं बनवाई।
इन दोनों मन्दिरोंका पंचकल्याणक महोत्सव
2 दीवानजी मन्दिरमें श्री मूलनायककी प्रतिमा चवरीमें विराजमान है तथा श्रीभदीचन्द्रजीके जिनालय में श्रीमलनायक श्री १००८ श्रीचन्द्रप्रभ भगवानकी
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतसईबड़ी धूमधामके साथ हुआ, सब काम समाप्त हो जानेपर यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि दूसरा मन्दिर किसके नामसे प्रख्यात हो। दीवानजी उसपर कविवरका नाम लिखवाना चाहते थे, परन्तु उनका कहना था, कि मेरा इसपर कुछ भी अधिकार नहीं है। दीवानजीका ही नाम लिखा जाना चाहिये । परन्तु दीवानजीने भदीचन्द्रजीका नाम ही खुदवाया, और इस ही नामसे इस मन्दिरको विख्यात किया । ___ हमारे चरित्रनायक उच्चकोटिके पंडित थे, आपकी शास्त्र बाँचने तथा शंका समाधान करनेकी शैली बहुत ही श्रेष्ठ तथा रुचिकर थी । आपकी शास्त्रसभामें अन्यमतावलम्बी भी आते थे। आप उनकी शंकाओंका निवारण बड़ी खूबीके साथ करते थे। प्रतिमा सफेद संगमरमरके बने हुए समोशरण में सुशोभित हैं। आपके मन्दिरजीकी विम्वप्रतिष्ठा सं० १८६४ में हुई थी। आपने अपने मन्दिरजीकी दीवार पर यह उपदेश खुदवाया था "समय पाय चेत भाई-(२)मोह तोड़ विषय छोड़-(३) भोग घटा।"
के इन दोनों मन्दिरोंमें गुमानपंथाम्नाय है । दीवानजा तथा कविवर भदोचन्द्रजी गुमानपंथानायी थे, दीवानजोका मन्दिर जयपुरमें छोटेदीवानजीके मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है।
-
-
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
कवि-परिचय। आप उच्च कोटिके कवि भी थे । आपकी कविताका विपय भव्य प्राणियोंको जैनधर्मके सिद्धान्त समझाना तथा प्रवृत्ति-मार्गसे हटा कर निवृत्ति-मार्ग में लगाना था। ___आपके बनाये हुए चार ग्रंथ प्रसिद्ध हैं, और वे चागें ही छन्दोबद्ध हैं। १ तत्वार्थबोध, २ बुधजनसतसई, ३ पंचारितकाय, ४ बुधजनविलास । ये चारों ग्रंथ क्रमसे विक्रम संवत् १८७१-७९-९१-९२ में बनाये गये है । नं० २ का ग्रन्य आपके हाथमें है । बुधजनविलास बहुत बड़ा ग्रंथ है, जिसका बहु भाग जैनपदमंग्रह पॉचवां भाग (२३३ पद) इष्टछत्तीसी छहढाला वगैरः जैन-ग्रंथ-लाकर कार्यालय द्वारा प्रकाशित हो - हम सहृदय पाठकोंके अवलोकनार्थ कुछ दोहे उद्धृत करते हैं, पाठक स्वयं ही देख लेंगे कि ये दोहे वर्तमान समयमें प्रचलित वृन्द, रहीम, विहारी, तुलसी, कवीर आदि स्वनामधन्य कवियोंके दोहोंसे किसी भी अंगमें कम नहीं हैं:
दुष्ट भलाई ना करे, किये कोटि उपकार । सर्प न दूध पिलाइये, विप ही के दातार बुधजन) मूरखको हितके वचन, सुनि उपजत है कोप । सॉपहि दूध पिलाइये, ज्यों केवल विप ओप ॥
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
बुधजन-सतसईएक चरनहू नित पढे, तो काटे अज्ञान । पनिहारीकी नेजसौं, सहज कटे पापाण ॥
(बुधजन) करत करत अभ्यासके, जड़मति होत सुजान । रसरी आवत जाततें, सिल पर होत निगान ।।
(रहीम) सीख सरलको दीजिये, विकट मिलें दुख होय । वया सीख कपिकों दई, दियो घोंसला खोय ।।
(बुधजन) सीख वाहिको दीजिये, जाको सीख सुहाय । सीख न दीजे वॉदग, वैया घर वह जाय ॥ सींग पूंछ दिन बैल हे, मानुप बिना विवेक । भख्य अभख समझे नहीं, भगिनी भामिनि एक ॥ मुखः बोले मिष्ट जो, उरमै राखै घात । मीत नहीं वह दुष्ट है, तुरत त्यागिये भ्रात ।। जननी लोभ लवारकी, दारिद दादी जान । कूरा कलही कामिनी, जुआ विपतिकी खान ॥ स्थार, सिंह, राक्षस, अधम, तिनका भख है मांस । मोक्ष होन लायक मनुप, गहैं न याकी वास ॥ मदिरा पी मत्ता मलिन, लोटे वीच बजार। मुखमें मूतँ कूकरा, चाटें बिना विचार ॥
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
कवि-परिचय।
द्विज सत्री कोली बनक, गनिका चाखत लाले। ताको सेवन मृह जन, मानत जन्म निहाल ।। जैसे अपने प्रान है, तसे परके जान । कैसे हग्ने दुष्टजन, विना वर पर प्रान ।। चारत इरत भोगत डरे, गरें कुगति दुःख घोर । लाम लिख्यो सोना टर, मृरस क्या है चोर ।। अपनी पग्तम देखिक, जैया अपने दर्द। तसे ही पानारिका, दुःखी होत है मर्द ॥
म्वयं कविजीने अपने ग्रन्थका सार निम्नस्थ पद्यम दर्गाया है।
भूरा गही दारिद्र सही, सहो लोक अपकार । निंद काम तुम मति कर्ग, यह ग्रन्थको सार ।
अन्य समाप्ति के समय-सम्बन्धमें आपने निम्न लिखित दोहा लिया है।
संवन ठागमै असी, एक बरमते घाट ।
जंट कृष्ण रवि अष्टमी, हुबै सतसई पाठ ।। इनके पढ भागचन्द्र, दौलत, भूपर, द्यानत, महाचन्द्र, जिनेश्वर आदि कवियोंके पदोंसे किसी भी बातमें कम
१लार।
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
बुधजन-सतसईनहीं हैं। पदोंकी भाषा विलकुल जयपुरी नहीं है, पर कुछ पद आपने ठेद जयपुरी भाषामें ही लिखे हैं । उनमेंसे कुछ पद हम पाठकोंके अवलोकनार्थ उद्धृत करते है।
चाल 'तिताला' और ठौर क्यों हेरत प्यारा,
तेरे हि घटमें जाननहारा ।। और ।। टेक ।। चलन हलन थल वास एकता,
जात्यान्तर ते न्यारा न्यारा ॥ और ॥१॥ मोह उदय रागी द्वेपी है,
क्रोधादिकका सरजन हारा । भ्रमत फिरत चारौं गति भीतर,
जनम मरन मोगत दुख भारा । और ॥२॥ गुरु उपदेश लखै पद आपा,
तबहिं विभाव करै परिहारा। है एकाकी "बुधजन" निश्चिय, पावै शिवपुर सुखद अपारा ॥ और ॥३॥
राग 'पूरवी' भजन विन यों ही जनम गमायो । भजन ॥ टेक ॥ पानी पैल्यां पाल न बांधी,
फिर पीछे पछतायो॥ भजन ॥१॥ रामा-मोह भये दिन खोवत,
आशापाश उधायो ।
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
देवानुरागशतक। यादि हियामैं नाम मुख, करौ निरन्तर वास । जौलौं वसवौ जगतमैं, भरवौ तनमैं साँस ॥१६॥ मैं अजान तुम गुन अनत, नाहीं आवै अंत । चंदत अंग नमाय वसु, जावजीव-परजंत ॥१७॥ हारि गये हौ नाथ तुम, अधम अनेक उधारि। धीरें धीरे सहजमें, लीजै मोहि उपारि ॥९८॥ आप पिछान विसुद्ध है, आपा कह्यौ प्रकास। आप आपमें थिर भये, बंदत बुधजन दास ॥१९॥ मन मूरति मंगल बसी, मुख मंगल तुम नाम । एही मंगल दीजिये, परयौ रह तुम धाम ॥१०॥
इति देवानुरागशतक।
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐ
नमः ।
बुधजन - सतसई ।
61 देवानुरागशनक
चोदा।
नमपिट सेनमरिन न्दी मंगलकार | चन्ने सुजन मनगट, निजपरहितकरतार ॥ १ ॥ परमधरमतर हो, भविजनकरतार |
निन चंदन करना वह मेरा गहि का तार ॥ २॥ प पर आपके पाप गदैन ।
१८
चैन ॥ ३ ॥
सवावक जावक प्रभु, नायक कर्मले । लायक जानि नमन हैं, पांव भये सुरंग ॥ ४ ॥
WITHE -
१
स करके चरण । २ सन्मति यच्छो बुद्धि या म्यान करनेवाले । ३ नव तराए । १ जानिरजान फरहे। सेवक ।
-
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
२
वुधजन सतसई
नम्रं तोहि कर जोरिके. सिवेनरी कर जोरि । वरजोरी विधिकी हरौ, दीजै यौ वरै जोरि ॥ ५ ॥ तीन कालकी खबरि तुम. तीन लोकके तात । त्रिविधिमुद्ध वंदन करूं, त्रिविध ताप मिटिजात ॥ ६ ॥ तीन लोकके पति प्रभु, परमातम परमेस | मन-चच-तनतें नमत हूँ, मेटाँ कठिन कलेम ॥ ७ ॥ पूजूं तेरे पाँयकूं, परम पदार्थ जान । तुम पूजेतें होत है. सेवक आप नमान ॥ ८ ॥ तुम समान कोउ आन नहि, न जाय कर नाय | सुरपति नरपति नागपति, आय परै तुम पाँच ॥ ९ ॥ तुम अनंतगुन मुखथकी, कैसे गाये जात ईद सुनिंद फनिंद हू, गान करत थकि जात ॥ १० ॥ तुम अनंत महिमा अतुल, यौ मुख कर गान | सागर जल पीत न बनें, पीजें तृपा समान ॥ ११ ॥ कह्या बिना कैसे रहूं, मौसर मिल्यौ अचार | ऐसी विरियां टार गया, केसे बनत सुधार ॥ १२ ॥ जो हूं कहाऊं औरतै, तो न मिटे उरझार । मेरी तो मोपे बनै, तातै करूं पुकार ॥ १३ ॥ आनंदयन तुम निरखिर्के, हरपत है मन मोर । दूर भयौ आताप सत्र, सुनिकै मुखकी घोर ॥
१४ ॥
१ मोक्षरूपी दुलहनका प्राणिग्रहण कराके । २ जबर्दस्ती । ३ बरदान । ४ मुखसे । ५ अवसर - मौका । ६ इस समय ।
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
देवानुरागशतक। आन थान अब ना रुचै, मन राच्यौ तुम नाथ । रतन चिंतामनि पायकै, गहै काच को हाथ ॥ १५ ॥ चंचल रहत सदैव चित, थक्यौ न काहू ठोर । अचल भयौ इकटक अवै, लग्यौ रांबरी ओर ॥ १६ ॥ मन मोह्यौ मेरी प्रभू, सुन्दर रूप अपार। इन्द्र सारिखे थकि रहे, करि करि नैन हजार ॥ १७ ॥ जैसे भानुप्रतापते, तम नासे सब ओर । तैसे तुम निरखत नस्यौ संशयविभ्रम मोर ॥ १८ ॥ धन्य नैन तम दरस लखि थनि मस्तक लसि पॉय। श्रवन धन्य वानी सुने. रसनाधनि गनगाय ॥ १९॥ धन्य दिवस धनि या घरी. धन्य भाग मझ आज । जनम सफल अव ही भयो, बंदत श्रीमहाराज ॥ २० ॥ लखि तुम छवि चितचोरको, चकित थकित चित चोर। आनंद पूरन भरि गयौ, नाहिं चाहि रहि और ॥ २१ ॥ चित चातक आतुर लखै, आनंदघन तुम ओर वचनामृत पी वृप्त भौ, तृपा रही नहिं और ॥ २२ ॥ जैसौ वीरेंज आपमै, तैसौ कहूँ न और । एक ठौर राजत अचल, व्याप रहै सब ठौर ॥ २३ ॥ यो अद्भुत ज्ञातापनो, लख्यौ आपकी जाग । भली बुरी निरखत रहौ, करौ नाहिं कहुं राग ॥ २४ ॥
१ आपकी । २ पराक्रम।
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन सतसईधरि विसुद्धता भाव निज, दई असाता खोय । क्षुधा तृपा तुम परिहरी, जैसे करिये मोय ॥ २५ ॥ त्यागि बुद्धि-पग्जायक, लखे सर्व समभाय । राग दोप ततखिन टरचौ, राचे महज सुभाय ॥२६॥ मी ममता वमता भया, समता आतभराम । अमर अजन्मा होय सिच, जायला विसराम ॥ २७ ॥ हेत प्रीति सबसों तज्या, मगन निजातममाहि । रोग सोग अब क्यों बने, खाना पीना नाहि ॥ २८ ॥ जागि रहे निज ध्यानमैं, धरि वीरज बलबान । आवै किमि निद्रा जरा, निरखेदक भगवान ॥ २९ ॥ जातजीवतै अधिक बल, सुथिर सुखी निजमाहिं। वस्तु चराचर लखि लई, भय विसमै यौं नाहिं ॥ ३०॥ तत्वारथसरधान धरि, दीना मोह विनास ।। मान हान कीना प्रगट, केवलज्ञानप्रकास ॥ ३१ ॥ अतुल सक्ति परगट भई, राजत हैं स्वयमेव । खेद स्वेद विन थिर भये, सब देवनके देव ॥ ३२ ॥ परिपूरन हो सब तरह, करना रह्या न काज । आरत चिन्ता” रहित, राजत हौ महाराज ॥ ३३ ॥ बीजे अनंता धरि रहे, सुख अनंतपरमान । दरस अनंत प्रमानजुत, भया अनंता ज्ञान ॥ ३४ ॥
१ पर्यायबुद्धिको । २ समभाव-सबको एक भावसे । ३ मोह । ४ विस्मय-आश्चर्य।
-
-
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
देवानुरागशनक। अजर अमर सय अनत. अपाम अबरनवान | अग्ग अरूपी गंवधिन, चितानंद भगनान ॥ ३५ ॥ कहत यो मुग्गुर गुनी. मोमन किम मायें। ५ उग्म जिनन मरे. निननेह न जायें ॥३॥ अरज गन्जकी करन इ. नाग्न तग्न गु नाथ । भरमागरम दूप मह, नाग गहकारि हाथ ॥३७॥ पीती जिती न कहि नई नव भासत है नोय । याहीत विनती कर, फेरि न बात मोय ॥३८॥ वारण वानर बाब अहि, अंजन भील चेंडार । जाविधि प्रभु मुमिया किया, मो ही मेरी बार ॥३९॥ हूँ अजान जान बिना, फिरयो चतुरगति थान । अब चाना नग्ना लिया, कग कृपा भगवान ॥४०॥ जगजनकी गिनती मुनी, अहो जगतगुरुदंव । नाली हूँ जगमै रद, नाली पाऊँ संव ॥४१॥ तुम तो दीनानाथ हो, म हे दीन अनाय । अब तो डील न कीजिये. मला मिल गयो साथ ॥४२॥ बाग्वार विनती करू, मनपचन तोहि । पग्यों रहें तुम चग्गनट, मो सुधि दी मोहि ॥४३॥ और नाहि जाचं प्रभू, या वर ढीज मोहि । जाली मित्र पन्द्रनं नहीं, नाली मेऊ ताहि ॥४॥ या संमार अमाग्में, तुम ही देग मार। और सकल गस पफरि, आप निकासनहार ॥४५॥
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतसईया भववन अति सघनमैं, मारग दीख नाहि । तुम किरपा ऐसी करी, भास गयौ मनमाहि ॥४६॥ जे तुम मारगमैं लगे, सुखी भये ते जीव । जिन मारग लीया नहीं, तिन दुख लीन सदीच ॥४७॥
और सकल स्वारथ-सगे, विनस्वारथ हो आप । पाप मिटावत आप हौ, और बढ़ावत पाप ॥४८॥ या अद्भुत समता प्रगट, आपमाहिं भगवान । निंदक सहजै दुख लहै, चंदक लहै कल्यान ॥४९॥ तुम वानी जानी जिको, पानी ज्ञानी होय । सुर अरचे संचै सुभग, कलमप काटें धोय ॥५०॥ तुम ध्यानी पानी भय, सबमैं मानी होय । फुनि ज्ञानी ऐसा वन, निरख लेत सब लोय ॥५१॥ तुम दरसक देख जगत, पूजक पूर्जे लोग। सेवै तिहि सेवै अमर, मिलें सुरगके भोग ॥५२॥ ज्यौं पारसत मिलत ही, करि ले आप प्रमान । त्यौं तुम अपने भक्तकौं, करि हो आप समान ॥५३॥ जैसा भाव करै तिसा, तुमतें फल मिलि जाय । तैसा तन निरखै जिसा, सीसामैं दरसाय ॥५४॥ जब अजान जान्यौ नहीं, तब दुख लह्यौ अतीव । अब जानै मानै हियँ, सुखी भयौ लखि जीव ॥५५॥
१ जिन्होंने । २ पाप । ३ लोक ।
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
देवानुरागशतक ।
ऐसे तो कहन न बने, मो उर निवसों आय । तातें मोकूं चरनतट, लीजै आप बसाय | ५६ || तो माँ और न ना मिल्यो, धाय थक्या चहूँ ओर । ये मेरेँ गाड़ी गड़ी, तुम ही हो चितचोर ॥५७॥ बहुत चकत डरपत रहूँ, थोरी कही सुनै न । तरफत दुखिया दीन लखि, ढीले रहे च न ॥५८॥ रखूं रेग्वरो मुजस मुनि, तारन-तरन जिहाज | भव बोरत राखें रहै, तोरी मोरी लाज ॥५९॥ वत जलधि जिहाज गिरि, तारौ नृप श्रीपाल । वाही किरपा कीजिये, वोही मेरो हाल ॥ ६० ॥ तोहि छोरिकै आनकूं, नर्मू न दीनदयाल | जैसे तैसे कीजिये, मेरौ तौ प्रतिपाल ॥ ६१ ॥ विन मतलब बहुते अधम, तारि ढये स्वयमेव । त्यों मेरौ कारज सुगम, कर देवनके देव ॥ ६२ ॥ निंदी भावी जस करों, नाहीं कछु परवाह । लगन लगी जात न तजी, कीजो तुम निरवाह ॥ ६३॥ तुम त्यागि और न भई, मुनिये दीनदयाल । महाराज की सेव तजि, से कौन कॅगाल ||६४ || जाछिन तुम मन आ बसे, आनंदवन भगवान | दुख दावानल मिट गयौ, कीनों अमृतपान ॥ ६५ ॥
१ श्रापका ।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतसईतो लखि उर हरपत रहूं, नाहि आनकी चाह । दीखत सर्व समान से, नीच पुरुष नरनाह ॥६६॥ तुममैं मुझमैं भेद यो, और भेद कछु नाहि । तुम तन तजि परब्रह्म भये, हम दुखिया तनमाहिं।।६७॥ जो तुम लखि निजकौं लखै, लच्छन एक समान । सुथिर वन त्यागै कुवुधि, सो है है भगवान ॥६८॥ जो तुम नाहीं मिले, चलै सुछंद मदवान । सो जगमैं अविचल भ्रमै, लहै दुखांकी खान ॥६९॥ पार उतारे भविक बहु, देय धर्म उपदेश । लोकालोक निहारिकै, कीनौं सिव परवेस ॥७०॥ जो जांचै सोई लहै, दाता अतुल अछेव । इंद नरिंद फनिंद मिलि, करें तिहारी सेव ॥७१॥ मोह महाजोधा प्रवल, औंधा राखत मोय । याकौं हरि सूधा करौ, सीस नमाऊं तोय ॥७२॥ मोह-जोरकौं हरत हैं, तुम दरसन तुम वैन । जैसैं सर सोषन करै, उदय होयकै ऐनॆ ॥७३॥ भ्रमत भवार्णव मिले, आप अपूरव मीत । संसों नास्या दुख गया, सहजै भया नचीत ॥४॥ तुम माता तुम ही पिता, तुम सज्जन सुखदान ।
तुम समान या लोकमैं, और नाहिं भगवान ॥७५॥ - १ नरनाथ-राजा । २ दुःखोकी । ३ हरके नष्ट करके।
४ सूर्य (1) 1 ५ संशय-शक । ६ निश्चिन्त बेफिकर ।
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
देवानुरागशतक। जोग अजोग लखौ मती, मो व्याकुलके वैन । करुना करिके कीजियो, जैसे तैसें चैन ।।७६॥ मेरी अरजी तनक सी, बहुत गिनोगे नाथ । अपना विरद विचारिकै, चूड़त गहियौ हाथ ||७७॥ मेरे औगुन जिन गिनौ, मैं औगुनको धाम । पतितउधारक आप हो, करौ पतितको काम ||७८॥ सुनी नहीं औजूं कहूं, विपति रही है घेर ।
औरनिके कारज सरे, ढील कहा मो वेर ॥७९॥ सार्थवाहि विन ज्यों पथिक, किमि पहुंचे परदेस । त्यों तुमत करि हैं भविक, सिवपुरमैं परवेस ॥८॥ केवल निर्मलज्ञानमैं, प्रतिबिंवित जग आन । जनम मरन संकट हरयो भये आप रतध्यान ॥८१॥ आपमतलवी ताहितै, कैसे मतलब होय । तुम विनमतलब हो प्रभू, कर हौ मतलब मोय ॥८२॥ कुमति अनादी सॅगि लगी, मोह्यौ भोग रचाय । याको कोलौं दुख सहूं, दीजै सुमति जगाय ||८३।। भववनमाही भरमियो, मोह नींदमैं सोय । कर्म ठिगौरे ठिगत हैं, क्यों न जगावौ मोय ॥४॥ दुख दावानलमैं जलत, घनै कालको जीव । निरखत ही समता मिली, भली सुखांकी सीवें ॥८५॥ १अौं -अभीतक । २ कब तक । ३ ठग । ४ सीमा हद्द ।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतसईमो ममता दुखदा तिनै, मानत हूँ हितवान । मो मनमाही उलटि या, सुलटावों भगवान ।।८६॥ लाभ सर्व साम्राज्यका (१) वेदयता (१) तुम भक्त । हित अनहित समझ नहीं, तातै भये असक्त ॥८७॥ विनयवान सर्वस लहै, दहै गहै तो गर्व । आप आपमैं हौ तदपि, व्याप रहे हौ सर्व ॥८८॥ मैं मोही तुम मोह विन, मैं दोपी तुम सुद्ध । धन्य आप मो घट बसे, निरख्यौ नाहिं विरुद्ध ॥८९॥ मैं तो कृतकृत अब भया, चरन सरन तुम पाय । सर्व कामना सिद्ध भई, हर्ष हियै न समाय ॥९॥ मोहि सतावत मोह जुर, विषम अनादि असाधि । वैद अतार हकीम तुम, दूरि करौ या व्याधि ॥११॥ परिपूरन प्रभु विसरि तुम, नमूं न आन कुठोर । ज्यौं त्यौं करि मो तारिये, विनती कर निहोर ॥१२॥ दीन अधम निरबल स्टै, सुनिये अधम उधार । मेरे औगुन जिन लखौ, तारौ विरद चितार ॥१३॥ करुनाकर परगट विरद, भूले पनि है नाहि ।। सुधि लीजै सुव कीजिये, दृष्टि धार मो-माहि ॥१४॥ एही वर मो दीजिये, जांचू नहिं कुछ और । अनिमिष दृग निरखत रहूं, सान्त छवी चितचोर ॥१५॥ । १ मोह । २ मुझको । ३ शुद्ध ।
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
देवानुरागशतक। ___ यादि हियामें नाम मुख, करौ निरन्तर बास ।
जौलौं वसा जगतमै, भरवौं तनमैं सॉस ॥१६॥ — मैं अजान तुम गुन अनत, नाही आवे अंत । : चंदत अंग नमाय वसु, जावजीव-परजंत ॥९७।।
हारि गये हो नाय तुम, अधम अनेक उधारि।। धीरे धीरे सहजमें, लीजै मोहि उबारि ॥९८॥ आप पिछान विमुद्ध है, आपा कयौ प्रकास । आप आपमैं थिर भये, बंदत बुधजन दास ॥१९॥ मन मूरति मंगल बसी, मुख मंगल तुम नाम । एही मंगल दीजिये, परयो रहूं तुम धाम ॥१०॥
इति देवानुरागशतक ।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुभाषितनोति । अलपथकी फल दे घना, उत्तम पुरुष मुभाय । दूध झरै तनकौं चरै, ज्यौं गोकुलकी गाय ॥१॥ जेताका तेता करै, मध्यम नर सनमान । घटै बट्टै नहिं रंचहू, धरयो कोठरै धान ॥२॥ दीजै जेता ना मिले, जघन पुरुषकी वान । जैसे फूटै घट घरचौं, मिलै अलप पय थान ॥३॥ भला कियै करि है बुरा, दुर्जन सहन सुभाय । पय पायें विप देत है, फणी महा दुखदाय ॥४॥ सह निरादर दरवचन, मार दण्ड अपमान । चोर चुगल परदाररत, लोभि लबार अजान ॥५॥ अमर हारि सेवा करें, मानसकी कहा बात । जो जन सील संतोपजुत, करै न परकी घात ॥६॥ अगनि चोर भूपति विपति, डरत रहै धनवान । निर्धन नींद निसंक ले, मानै काकी हान ॥७॥ एक चरन हू नित पढे, तौ काटै अज्ञान । पनिहारीकी लेजसौं, सहज कटै पापान ||८|| पतिव्रता सतपुरुषका, गाढ़ा धीर सुभाव। भूख सहै दारिद सह, करै न हीन उपाव ॥९॥ बैर करौ, वा हित करो, होत सवलतै हारि।
१ पिलानेसे । २ सर्प । ३ रस्सीसे।
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३
मुभापितनीति। मीत भय गौरव घटे, शत्रु भय दे मारि ॥१०॥ जाकी प्रकृति का अनि, मुलान होय लस न । भज मदा आधीन परि, तंज जुर्म मैन ॥११॥ सिथिल वैन ढाढम विना. ताकी पैठ बनै न । ज्या प्रसिद्ध रितु मन्दको. अम्बर नै जर न ॥१२॥ जतनथकी नको मिल, विना जतन ल आन । वासन भरि ना पीत है, पशु पवि मत्र थान ॥१३॥ इटी मीठी तनकनी, अधिकी मान कौन । अनमरत बोली इमी. ज्यों आटेम नीन ॥१क्षा चारी विभिचारीनित, डर निकमतं गल। मालनि ढांक टोकग, स्टे लसिक छल ॥१५॥ आसर लखिये बोलिये, जयाजोगता बैन । सावन भादी बग्नत, मन ही पाय चन ॥१६॥ चोलि उंट आमर विना, ताफा रहे न मान । जम कानिक वग्मत, निद माल जहान ॥१७॥ लाज कान पर दरब, लाज काज संग्राम । लाज गर्य सम्वग गर्यो, लाज पुरुषकी माम (१) ॥१८॥ आरंभ्या पूग्न कर, कन्या वचन निरवाह । धीर मलज सुन्दर रम (१), येते गुन नरमांह ॥१९॥
१ काम नहीं चल सकता हो, तो।२ "सारै थान ऐसा भी पाठ है।
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतसईउद्यम साहस धीरता, पराक्रमी मतिमान । एते गुन जा पुरुपमै, सो निरभै बलवान ॥२०॥ रोगी भोगी आलसी, वहमी हठी अज्ञान । ये गुन दारिदवानके, सदा रहत भयवान ॥२१॥ अछती आस विचारिक, छती देत छिटकाय । अछती मिलवौ हाथ नहिं, तब कोरे रह जाय ॥२२॥ विनय भक्ति कर सवलकी, निवल गोरै सम भाय । हितू होय जीना भला, घेर सदा दुखदाय ||२३|| नदीतीरको रुंखरा, करि विनु अंकुश नार। राजा मंत्री रहित, विगरत लगै न वार ॥२४॥ महाराज महावृक्षकी, सुखदा सीतल छाय । सेवत फल लाभ न तो, छाया तौ रह जाय ॥२५॥ अति खानेतें रोग है, अति बोलें ज्या मान । अति सोयें धनहानि है, अति मति करौ सयान ॥२६॥ झूठ कपट कायर अधिक, साहस चंचल अंग। गान सलज आरंभनिपुन, तियन तृपति रतिरंग ॥२७॥ दुगुण छुधा लज चौगुनी, षष्ठ गुनौ विवसाय । काम वसु गुनौ नारिके, वरन्यौ सहज सुभाय ॥२८॥ पतिचितहित अनुगामिनी, सलज सील कुलपाल ।
१.शक्की-सन्देह, करनेवाला। २ जो मौजूद नहीं। ३ गायके । ४ वृक्ष । ५ हाथी । ६ जाता है । ७ सजाना
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
सुभापितनीति । या लछमी जा घर बने, मो है मदा निहाल ॥२९॥ कृर कुरूपा कलहिनी, करकम बन कठोर ।
मी भूतनि भोगिवा सिधा नम्बनि घोर ॥३०॥ वरज्यं पुलकी यालिका. स्प पुस्प न जाये। रूपी आली पणता, हीन कं ना कोय ॥३१॥ विपति धीर ग्न पिकामी, मपति क्षमा दयाल । कलागुगल कोविद कर्वा, न्याय नीति भूपाल ॥३२॥ मांच झूट भाप महिन. हिमा दयामिलाय । अति आमद अति व्यय कर, ये गजनिकी सास ॥३३॥ मुजन मुनी दरजन दंग करें न्याय धन संच । प्रजा पले पंच ना करें, श्रेष्ठ नृपति गुन पंच ॥३४॥ काना ढूंडा पांगुला, वृट कयग अंध । वेवारिस पालन करें, भूपति रचि परबंध ॥३५॥ कृपनयुटि अन्युग्रचित, मृट कपट अदयाल । ऐमा स्वामी संवत, केंट न होय निहाल ॥३६॥ इंकारी व्यसनी हटी, आरसंगान अनान । भृत्य न एमा गमिये, कर मनोरथहान ॥३७॥ नृप चाल ताही चलन, प्रजा चल वा चाल । जा पथ जा गजगज तह, जात जूथ गजवाल ||३८॥
१देखकर । २ पत। ३ कभी।४ अहंकारी-घमंडी। ५पालसवान। ६ दास-नीकर। ७ वह। समूह ।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतमईसूर सुधीर पराक्रमी, सब वाहनअसवार । जुद्धचतुर साहसि मधुर. सेनावीम उदार ॥३९॥ निरलोमी सांचौ सुवर. निरालसी मति धीर। हुकमी उदमी चौकमी. भंडारी गंभीर ॥४०॥ निरलोमी यांची निडर, मुब हिमावकारतार । स्वामिनामनिरलसी. नौमंदी (1) हितकार ॥४॥ दरस परम पूछ कर निरने रोग र आय । पथ्यापयमै निपुन चिर. वह चतुर मुखदाय ॥४२॥ जुक्त सौत्र पाचक मधुर. देश काल वय जोग । मुपकार भोजन चतुर, बोझे सत्य मनोग ।।४।। मृद दद्धिी आयु लघु. व्यसनी लुब्ध कसर । नाधिरती (1) नहिं दीजिये, जाना मन मगहर श्या सील सरलकों दीजिये, विकट मिल दुख होय ।
ये सीख कपिकों दई. दिया घामला सोय ॥४५॥ अपनी पढे नहिं तोरिये. रचि रहिये करि चाहि । में तंदुल तुस सहित, तुस दिन अग नाहि ॥४॥ अति लोलुप आसक्तके, विपदा नाही दूर। मीन मरे कंटक फंस, दोरि मांस लखि कर ॥४७॥ आवत उठि आइर करे, बोले मीठे वैन । जाते हिलमिल बैठना, जिय पारे अति चैन ॥४
१ आयु-उमर २ रसोइया । ३ क्यानामले पनीने। ४ पक्षा
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुभापितनीति । भला बुरा लखिये नहीं, आये अपने द्वार । मधुर बोल जस लीजिये, नातर अजस तयार ॥४९॥ सेय जती कै भूपती, वसि वन के पुर बीच । या विन और प्रकारत, जीवांत वर मीचं ॥५०॥ घनौ सुलप आरंभ रचि, चिगै नाहिं चित धीर । सिंह उठकै ना मुग, करै पराक्रम वीर ॥५१॥ इंद्री पंच मकोचिक, देश काल वय पेखि । वकवत हित उद्यम करे, जे हैं चतुर विसेखि ॥५२॥ प्रातः उठि रिपुतै लरै, बांट बंधुविभाग । रमनि रमनमैं प्रीति अति, कुंरकट ज्यौं अनुराग ॥५३॥ गृढ मईथुनं चख चपल, संग्रह सजै निधान । अविसासी परमादच्युत, वायस ज्यौं भतिवान ॥५४॥ बहभ्यासी संतोपजुत, निद्रा स्वलप सचेत । रन प्रवीन मन स्वान ज्यों, चितवत स्वामी हेत॥५५॥ बहै भार ज्यों आदरचौ, सीत उष्ण क्षत देह । सदा सतोपी चतुर नर, ये रसब गुन लेह ॥५६॥ टोटा लाभ संताप मन, घरमैं हीन चरित्र । भयौ कढा अपमान निज, भा नाहि विचित्र ॥५७॥
१ नहीं तो। २ जीनेसे । ३ मृत्यु । ४ वगुलेके समान । ५ कुक्कुट-मुर्गा।६ मैथुन । ७अविश्वासी । रासभ-गधा। है यहां विचित्रसे विचक्षण-बुद्विमानका अभिप्राय होगा।
-
-
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतसईकोविद रहैं संतोपचित, भोजन धन निज दार। पठन दान तप करनमें, नाहीं तुपति लगार ॥५८॥ विद्या संग्रह धान धन, करत हार व्योहार। अपन प्रयोजन साधत, त्यागें लाज सुधार(?) ॥५९॥ दोय विप्रमधि होम पुनि, सुंदर जुग भरतार । मंत्री नप मसलत करत, जातें होत विगार ॥६॥ वारि अगनि तिय मूढजन, सर्प नृपति रुंज देव । अंत प्रान नासै तुरत, अजतन करते सेव ॥६॥ गज अंकुश हय चावुका, दुष्ट खड़ग गहि पान । लकरीत शृंगीनकुं, बसि राखें बुधिवान ॥६२॥ वसि करि लोभी देय धन, मानीकौं कर जोरि । मूरख जन विकथा वचन, पंडित सांच निहोरि ॥६॥ भूपति वसि है अनुग वन, जोवत तन धन नार । ब्राह्मण वसि है वेदतें, मिष्टवचन संसार ॥ ६॥ अधिक सरलता सुखद नहि, देखो विपिन निहार । सीधे विरवा कटि गये, बॉके खरे हजार ॥६५॥ जो सपूत धनवान जो, पनजुत हो विद्वान । सब बांधव धनवानके, सरव मीत धनवान ॥६६॥
1 १ सुधार-यहां सुधी वा बुद्धिमानका मतलव होना चाहिये। २ रोग । ३ अयत्नसे-विना विचारे । ४ सींगवालोको। ५,जंगल । ६ वृक्ष।
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुभापितनीति। नहीं मान कुलरूपको, जगत मान धनवान । लखि चॅडालके विपुल धन, लोक करें सनमान ॥१७॥ संपतिके सब ही हितू . विपढामें मर दूर । मृखौ मर पंखी तज, से जलते पूर ॥६८॥ तज नारि सुत बंधु जन, दारिद आयें साथि । फिरि आमद लखि आयकै मिलि है बांधावथि ।।६९॥ संपति माय घट बढे, भरत बुधि बल धीर । ग्रीपम सर सोभा हरे, सोह वरमत नीर ॥७॥ पटभूपन मोह सभा, धन द मोह नारि । खेती होय दरिद्रते (१), सज्जन भो मनुहार (2) ॥७॥ धर्महानि संक्लेश अति, शत्रुविनयकरि होय । एमा धन नहि लीजिये, भूखे रहिये सोय ॥७२॥ धीर सिथिल उदमी चपल, मूरस सहित गुमान | दोप धनदके गुन कहे, निलज सग्लचितवान ॥७३॥ काम छोरि मा जीमजे, न्हाजे छोरि हजार । लाख छोरिक दान करि, जपिजे वारंवार ॥७४॥ गुरु राजा नट भट वनिक, कुटनी गनिका थान । इन माया मति करी, ये मायाकी खान ॥७५॥ खोटीसंगति मति करी, पकरी गुरुका हाथ । कगै निरन्तर दान पुनि, लखौ अथिर सब साथ ॥७६॥
१ श्रालिंगन करके।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
बुधजन-सतसईनृप सेवा” नष्ट दुज, नारि नष्ट विन सील । गनिका नष्ट संतोपत, भूप नष्ट चित ढील ॥७॥ नाहीं तपसी मूढ़ मन, नहीं सूर कृतघाव । नहीं सती तिय मद्यपा, फुनि जो गान सुभाव ॥७८॥ सुतको जनम विवाहफल, अतिथिदान फल गेह । जन्म सुफल गुरुतै पठन, तजिवा गग सनेह ॥७९॥ जहां तहां तिय व्याहिये, जहां तहां सुत होय । एकमात सुत भ्रात बहु, मिल न दुरलभ सोय ।।८०॥ निज भाई निरगुन भलो, पर गुनजुत किहि काम ।
आंगन तरु निरफल जदपि, छाया राखे धाम ॥८॥ निसिमें दीपक चंद्रमा, दिनमै दीपक सूर । सर्व लोक दीपक धरम, कुल दीपक सुत सूर ॥८२॥ सीख दई सरधै नहीं, कर रैन दिन सोर । पूत नहीं वह भूत है, महापापफल घोर ॥८॥ सुंसक एक तरु सघनवन, जुरतहिं देत जराय । त्यौ ही पुत्र पवित्र कुल, कुबुधि कलंक लगाय ॥८४॥ तिसना तुहि प्रनपति करूँ, गौरव देत निवार । अंभु आय वाचन भये, जाचक बलिके द्वार ॥८५॥ मिष्ट वचन धन दानतें, सुखी होत है लोक। सम्यग्ज्ञान प्रमान सुनि, रीझत पंडित थोक ॥८॥
१ एक माके पेटसे उत्पन्न हुए भाई।२ शुष्क-सूखा। ३ जुड़ते ही। ४ विष्णु भगवान 1 ५ वामन-ठिगने ।
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
मुभापितनीति। अगनि काठ सरिना उदधि, जीवनत जमगज । मृग नननि कामी पुरुष, पति न होत मिजाज।।८७।। दारिदजुन हु महंत जन, करवे लायक काज । दंतमंग हस्ती जदपि, फोरि करत गिरिगज ||८|| दई होत प्रतिकूल जब, उद्यम होत अकाज । मम पिटार्ग काटिया, गया मग्प करि खाज ||८|| बाघ नरम भीतर नरम, सज्जन जनकी वान । बाय नरम भीतर कठिन, बहुत जगतजन जान ।।९०॥ चाह कछ हो जाय कछ, हारे विद्युध विचारि। होतंवत हो जाय है, युट्टि करम अनुमारि ॥ ९१ ।। जाके मुखमैं मुख लह, विन मित्र कुल भ्रात । ताहीकी जीवों मुफल, पिटभरकी का बात ॥१२॥ हुए होहिंगे मुभट मत्र, करि करि थके उपाय । तिमना खानि अगाध है, क्यों हु भरी न जाय ॥१३॥ भोजन गुरुजवसेन जो, नान वह बिन पाप । हिन पगेख कारज किय, घग्मी रहितकलाप ॥९॥ काल जिनार्य जीपको, काल कर संहार । काल सुवाय जगाय है, काल चाल विक्रगल ||९५|| काल करा दे मित्रना, काल कग दे रार । कालखेप पंडित कर, उलझे निपट गॅवार ॥९॥
१खा गया।२ पंडित।३होतव्यमे होनहारसे। पेट भरनेवाले-पेटायूं १५कलापरहित-बकवादरहित थोड़ा बोलनेवाला।
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
बुधजन-सतसईसांप दर्श दे छिप गया, वैद थके लखि पीर।। वैरी करतें छुटि गया, कौन धरि सकै धीर ॥१७॥ वलधनमैं सिंह न लसँ, ना कागनमै हंस । पंडित लसैं न मृमैं, हये खरमैं न प्रशंस ॥९८॥ हय गय लोहा काठि पुनि, नारी पुरुप पखान । वसन रतन मोतीनमैं, अंतर अधिक विनान ॥९९॥ सत्य दीप वाती क्षमा, सीय तेल संजोय । निपट जतनकरि धारिये, प्रतिबिंवित सब होय॥१०० परधन परतिय ना चित, संतोपामृत राचि । ते सुखिया संसारमै, तिनकौं भय न कदाचि ॥१०१।। रंक भूपपदवी लहै, मूरखसुत विद्वान । अंधा पावै विपुल धन, गिनै तुना ज्यौ आन ||२|| विद्या विपम कुशिष्यकों, विप कुपथीको व्याधि । तरुनी विष सम वृद्धकौं, दारिद प्रीति असाधि ॥३॥ सुचि असुची नाहीं गिने, गिने न न्याय अन्याय । पाप पुन्यकों ना गिने, भूसा मिलै सु खाय ॥ ४ ॥ एक मातके सुत भये, एक मते नहिं कोय । जैसे कांटे वेरके, बांके सीधे होय ॥५॥ देखि उठै आदर करै, पूछ हिततै वात । जाना आना ताहिका, नित नवहित सरसात ॥६॥
१ बैलोंमें । २ एक प्रतिमे 'पुत्रविना नहि वंश' पाठ है ।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२३
-
सुभापितनीति । आदि अलप मधिमै धनी, पद पद वधती जाय । सरिता ज्या सतपुरुपहित, क्यों हू नाहिं अघाय ||७॥ गुहि (2) कहना गुहि (१) पूछना, दैना लैना रीति । खाना आप खवावना, पटविधि अधि है प्रीति ||८|| विद्या मित्र विदेगमे, धर्म मीत है अंत । नारि मित्र घर त्रिप, व्याधी ओपधि मिंत ॥९॥ नृपहित जो पिरजा अहिन, पिरजा हित नृपरोप । दोऊ सम साधन कर, मो अमात्य निरदोष ॥१०॥ पाय चपल अधिकारकी, शत्रु मित्र परवार । सोप तोप पोप विना, ताका है धिक्कार ॥११॥ निकट रहे सेवा कर, लपटत होत खुस्याल । दीन हीन लखते नहीं, प्रमदा लता भुऑल ॥१२॥ दुष्ट होय परधान जिहि, तथा नाहि परधान । ऐमा भूपति सेवतां, होत आपकी हान ॥१३॥ पराक्रमी कोविद गिलपि, सेवाविद विद्वान | एते सोहे भूप घर, नहिं प्रतिपाले आन ॥१४॥ भूप तुष्ट है करत है, इच्छा पूरन मान । ताके काज कुलीन ह, करत प्रान कुरवान ॥१५॥ बुद्धि पराक्रम वपु बली, उद्यम साहस धीर । संका मान देव , ऐसा लखिकै वीर ॥१६॥ • १ प्रजा । २ मंत्री । ३ स्त्री । ४ भूपाल-राजा । ५ शिल्पीकागगर।
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
२४
बुधजन-सतसईरसना रखि मरजादि तू, भोजन वचन प्रमान । अति भोगति अति बोलते, निह होहै हान ॥१७॥ वन वसि फल भखिवी भलो, मीनत भली अजान । भलो नहीं बसिवौ तहां, जहां मानकी हान ॥१८॥ जहां कछु प्रापति नहीं, है आदर वा धाम | थोरे दिन रहिये तहां, सुखी रहैं परिनाम ॥१९॥ उद्यम करवौ तज दियौ, इंद्री रोकी नाहिं । पंथ चलें भूखा रहैं, ते दुख पावे आहिं (१) ॥२०॥ समय देखिकै बोलना, नातरि आछी मौन । मैना सुख पकरै जगत, बुंगला पकरै कौन ॥२१॥ जाका दुरजन क्या करें, छमा हाथ तरवार । विना तिनांकी भूमिपर, आगि बुझै लगि वार ॥२२॥ बोधत शास्त्र सुबुधि सहित, कुवुधी बोध लहै न । दीप प्रकास कहा करै, जाके अंधे नैन ॥२३॥ परउपदेस करन निपुन, ते तो लखे अनेक । करें सैमिक वोलें समिक, जे हजारमैं एक ॥२४॥ विगड़े करें प्रमादतें, बिगड़े निपट अग्यान । विगडै वास कुवासमैं, सुधरै संग सुजान ॥२५॥ वृद्ध भये नारी मरै, पुत्र हाथ धन होत । बंधू हाथ भोजन मिले, जीनैः वर मौत ॥२६॥
१ मिहनत-मजदूरी । २ बकपक्षी । ३ तृणको । ४ सम्यक्-उत्तम।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
सुभापितनीति। दोस धात पखानमैं, नाहिं विराज देव । देवभाव भायें भला, फलै लाभ स्वयमेव ॥२७॥ तिसना दुसकी खानि है, नंदनवन संतोप । हिंसा बंधकी दायिनी, दया दायिनी मोप ॥२८॥ लोभ पापको वाप है, क्रोध कर जमराज । माया विपकी वेलरी, मान विपम गिरिराज ॥२९॥ विषेसाईत दर क्या, को विदेश विद्वान । कहा भार समर२५ को, मिष्टं वह को ओन ॥३०॥ कुलकी सोभा सीलत. तन सोहै गुनवान । पढ़िवा सोहे सिधि भये, धन सोह दै दान ॥३१॥
असंतोपि दुज भ्रष्ट है, संतोपी नृप हान। । निरलज्जा कुलतिय अधम, गनिका सलज अजान ॥३२॥
कहा करें मृरस चतुर, जो प्रभुद प्रतिकूल । हरि हर्ल हारे जतनकार, जरे जंदु निरमूल ॥३३॥ सेती लसिये प्रात उठि, मध्यान लखि गेह। अपरान्है धन निरखिये, नित सुत लखि करि नेह ॥३४॥ विद्या दय कुगिप्यकों, कर मुगुरु अपकार । , लास लैंडावा भानजा, खोसि लेय अधिकार ॥३५॥
१ लकडी। २ बंधकी करनेवाली । ३ वल्लरी-चेल । ४ व्यवसायी-उद्यमी। ५ मिष्ठवचन बोलनेसे कोई अन्य नहीं रहता-सब अपने हो जाते हैं। ६ वलदेवजी । ७ यादववंशी। प्यार करो । छीन लेय ।
-
-
-
-
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
वुधजन-सतसईना जाने कुलशीलके, ना कीजै विसवास । तात मात जातै दुखी, ताहि न रखिये पास ॥३६॥ गनिका जोगी भूमिपति, वानर अहि मंजारे। इनत राखें मित्रता, परै प्रान उरझार ॥३७॥ प्पट पनही बहु खीर गो, ओषधि वीज अहार । ज्यों लाभै त्यौं लीजिये, कीजै दुख परिहार ॥३८॥ नृपति निपुन अन्यायमै, लोभनिपुन परधान । चाकर चोरीमैं निपुन, क्यों न प्रजाकी हान ॥३९॥ धन कमाय अन्यायका, वृष दश थिरता पाय । रहै कदा पोड़स बरस, तौ समूल नस जाय ॥४०॥ गाड़ी तरु गो उदधि वन, कंद कूप गिरराज | दुरविपमैं नो जीवका, जीवो कर इलाज ॥४१॥ जाते कुल शोभा लहै, सो सपूत वर एक । भार भरै रोड़ी चरै, गर्दभ भये अनेक ॥४२॥ दूधरहित घंटासहित, गाय मोल क्या पाय । त्यौं मूरख ऑटोपकरि, नहिं सुघर है जाय ॥४३॥ कोकिल प्यारी वैनत, पतिअनुगामी नार। नर वरविद्याजुत सुघर, तप वर क्षमाविचार ॥४४॥ दूरि वसत नर दूत गुन, भूपति देत मिलाय। ढांकि दूरि रखि केतकी, बास प्रगट है जाय ॥४५॥
१ मार्जार-विल्ली । २ प्रधान-मंत्री। ३ वर्ष-साल । ४ घरेपर । ५ आडम्बर-ठाठ वाट । ६ गुणरूपी दूत ।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
सुभापितनीति । मुंसक साकका असन वर, निरजनवन वर वास । दीन-वचन कहियो न वर, जौ लौ तनमैं साँस ॥४६॥ एकाक्षरदातार गुरु, जो न गिनै विनज्ञान । सो चडाल भवको लहे, तथा होयगा स्वान ॥४७॥ . सुख दुख करता आन है, यो कुबुद्धिश्रद्धान । करता तेरे कृतकरम, मेटे क्यों अज्ञान ॥४८॥ मुख दुख विद्या आयु धन, कुल बल वित अधिकार । साथ गर्भमै अवतरें, देह धरी जिहि पार ॥४९॥ वन रन रिपु जल अगनि गिरि, रुज निद्रा मद मान । इनमें पुंन रक्षा करे, नाहीं रक्षक आन ॥५०॥ दुराचारि तिय कलहिनी, किंकर कर कठोर । सरप साथ वसिवा सदन, मृत समान दुख घोर ॥५१॥ संपति नरभव ना रहे, रहे दोपगुनवात । हे जु बनम बासना, फूल फुलि झर जात ॥५२॥ रक त्यागि कुल राखिये, ग्राम राख कुल तोरि । ग्राम त्यागिये राजहित, धर्म राख सब छोरि ॥५३।। नहिं विद्या नहि मित्रता, नाहीं धन सनमान । नहीं न्याय नहि लाज भय, तजौ वास ता थान ॥५४॥ किंकर जो कारज कर, बांधव जो दुख साथ । नारी जो दारिद सहै, प्रतिपाले सो नाथ ॥५५॥
१ सूखा । २.पुएव ।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९
बुधजन-सतसईनदी नेखी भंगीनिमें, शस्त्रपानि नर नारि । बालक अर राजान ढिग, वसिये जतन विचारि ॥५६॥ कामीका कामिन मिलन, विभवमाहि रुचिदान । भोजशक्ति भोजन विविध, तप अत्यंत फल जाना|५७|| किंकर हुकमी सुत विवूध, तिय अनुगामिनि जास। विभव सदन नहिं रोग तन, ये ही सुरगनिवास ।।५८॥ पुत्र वहै पितुभक्त जो, पिता वह प्रतिपाल । नारि वहै जो पतिवृता, मित्र वहै दिल माल ॥५९॥ जो हँसता पानी पिय, चलता खावै खान । द्वे चतरावत जात जो, सो सठ ढीट अजान ॥६॥ तेता आरॅम ठानिये, जेता तनमैं जोर। तेता पॉव पसारिये, जेती लांबी सोर ॥६॥ बहुते परप्रानन हरें, बहुते दुखी पुकार । बहुते परधन तिय हरें, विरले चलें विचार ॥६२॥ कर्म धर्म विरले निपुन, विरले धन दातार | विरले सत बोले खरे, विरले परदुखटार ॥३॥ गिरि गिरि प्रति मानिक नहीं, वन वन चंदन नाहिं । उंदघि सारिसे साधुजन, ठौर ठौर ना पाहि ॥६४॥
१ नखवाले । २ सींगवाले । ३ हाथमे हथियार रखनेवाला मनुष्य । ४ दान करनेमे रुचि । ५ पंडित। यह "सन्न जल्पेत्" का अनुवाद ठीक नहीं हुआ, "जो हंसता भाषण करे। ऐसा ठीक होता । ७ समुद्रसरीखे गंभीर ।
--
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
-
सुभाषितनीति । परघरवास विदेसपथ, मृग्ख मीत मिलाप । जोवनमाहिं दरिद्रता, क्या न होय संताप ॥६५॥ घाम पगया बत्र पर, परमय्या पग्नारि । परवर बसियो अधम ये, न्याग विबुध विचारि ॥६६।। हुन्नर हाय अनालसी, पढ़िवी, करिबी मीत । सील, पंच निधि ये असय. गम्ये रहा नंचीत ॥६॥ कष्ट समय रनके ममय, दुरभिस अर भय घोर । दुरजनकृत उपनगम, बच विवध कर जोर ॥६८|| धरम लई नहिं दृष्टचित, लोभी जस किम पाय । भागहीनको लाम नहिं, नहिं आपधि गर्ते-आय ॥६९॥ दृष्ट मिलत ही माधुजन, नहीं दुष्ट है जाय । चंदन तरुको मर्प लगि, विप नहिं देत बनाय ||७०॥ सोक हन्त ई बुद्धिको, मोक हरत है धीर । सोक हरत है धर्मको, मोक न कीज वीर ॥७१॥ अस्व मुंपत गज मस्त ढिग, नृप भीतर रनवास । प्रथम व्यायली गाय ढिग, गये प्रानका नास ॥७२॥ भूपति विमनी पाहना. जाचक जड़ जमराज । ये परदुख जावे नहीं, कीयाँ चाहें काज ७३॥
१ कलाकौशल्य । २ निश्चिन्त-बेफिकर । ३ दुर्भिक्षअकाल । ४ गतायु-जिमकी आयु वाकी न रही हो, उसको। ५ मोता हया (१)।६ देखते नहीं हैं। .
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतसई
मिनखे-जनम ले ना किया, धर्म न अर्थ न काम । सो कुचे अजके कंठमैं, उपजे गये निकाम ||७४॥ सरता नहिं करता रहौ, अर्थ धर्म अर काम । नित तड़का द्वै घटि रह्या, चितवौ आतमगम ||७|| को स्वामी मम मित्र को, कहा देशमैं रीत । खरच किता आमद किती, सदा चिंतवौ मीत ॥७६।। वमन करते कफ मिटै, मरदन मेटै बात । स्नान कियेतें पित मिटै, लंघनते जुर जात ||७७॥ को मांस घृत जुरवि, सूल द्विदल यो टार । इंग-रोगी मैथुन तजी, नवौं धान अतिसारं ॥७८|| अनदाता साता विपत, हितदाता गुरुज्ञान । आप पिता फुनि धायपति, पंच पिता पहिचान ॥७९॥ गुर्ररानी नृपकी तिया, बहुरि मित्रकी जोयं । पतिनी-मा निजमातजुत, मात पांच विधि होय ||८०॥ घसन छेद ताड़न तपन, सुवरनकी पहिचान । दयासील श्रुत तप गुननि, जान्या जात सुजान ॥८॥
१ मनष्य जन्म | २ बकरके गलेके स्तन । ३ सबेरेन्दो घड़ी रात रहने पर । ४ कोढ रोगमे मास खाना 1 शन गोगमे दो दालोंवाला अन्न खाना । ६ नेत्ररोगी। ७ अतीसार रोगमे अर्थात् दस्तोकी बीमारीमें नया अन्न गुरुकी स्त्री.। ६ खी।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुभापितनीति। जाप होम पूजन किया, वेदतत्त्वश्रद्धान । करन करावनमें निपुन, दुजे-पुरोत गुनवान ||८२॥ भली बुरी चितम बसत, निरखत ले उर धार । सोमवदन वक्ता चतुर, दुत खामिहितकार ||८|| याहीत सुकुलीनता, भूप कर अधिकार । आदि मध्य अवमानमें, करते नाहि विकार ॥८४|| दुष्ट तियाका पोपना, मृरखको समझाय । वैरीत कारज पर, कौन नाहि दुख पाय ॥८५॥ विपताका धन रासिये, धन दीजे रखि दार । आतमहितको छांडिये, धन दारा परिवार ॥८६॥ दारिदमै दुरविसनमें, दुरभिख फुनि रिपुघात । राजद्वार समसानमै, साथ रहै सो भ्रात ।।८७॥ सर्प दुष्ट जन दो बुरे, तामै दुष्ट विसेख । दुष्ट जतनका लेख नहि, सर्प जतनका लेख ||८||
हा धन भूपन वसन, पंडित जदपि कुरूप। मुघर सभामै यो लस, जैसे राजत भूप ।।८९।। स्नान दान तीरथ किये, केवल पुन्य उपाय । एक पिताकी भक्तित, तीन वर्ग मिलि जाय ।।९०॥ जो कुदेवको पूजिकै, चाहै शुंभका मेल । सो वालुको पेलिक, कादया चाहै तेल ॥११॥
१ द्विज पुरोहित । २ खी। ३ स्मशानमे-मुदखानेमें । ४ तीन पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम । ५ पुण्य ।
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतसईधिक विधवा भूपन सजै, वृद्ध रसिक धिक होय। धिक जोगी भोगी रहै, सुत धिक पढ़े न कोय ॥१२॥ नारी धनि जो सीलजुन, पति धनि रनि निजनार। नीतिनिघुन जो नृपति धनि, संपनि धनि दातार ॥१३॥ रसना रखि मरजाढ तू , भोगत बोलत बोल । बहु भोजन बहु बोलतै, परिहै सिरपै धोलें ॥९॥ जो चाहो अपना भला, तौ न सतावो कोय । नृपहकै दुर्गसीसते, रोग सोग भय होय ॥९५|| हिंसक जे छुपि बन बस, हरि अहि जीव भगान । (फिरे) बैल हय परधवा, गऊ में मुखदान ।।९६॥ वैर प्रीति अबकी करी, परभवमै मिलि जाय । निवल सबल हैं एकसे, दई करत है न्याय ॥१७॥ संसकार जिनका भला, ऊँचे कुलके पूत । ते सुनि मुलटें जलद, जैसे ऊन्याँ मूत ॥१८॥ पहलें चौकस ना करी, चूड़त विसनमॅझार । रंग मजीठ छटै नहीं, कीये जतन हजार ॥१९॥ जे दुरवलको पोपि हैं, दुखते देत बचाय । ताते नृप घर जनम ले, सीधी संपति पाय ॥३००||
इति सुभाषितनीति । १ कुछ भी। २ थप्पड़। ३ वुरा आशीर्वाद-शाप । ४ महा। ५ गधा। ६विधाता या कर्म । ७ नटाईपर चढ़ाया हुआ साफ सूत ।
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपदेशाधिकार। ध्याचे सो पावै सही, कहत बाल गोपाल । बनिया देत कंपर्दिका. नरपति कर निहाल ॥१॥ उलझे सुंलझिर मुंध भये, त्यौ तू उलन्यौ मान । मुलअनिको माधन कर, तो पहुंच निजथान ॥२॥ लखत सुनन मुंषत चखत. इंद्री त्रिपन न होय । मन रोक इंद्री तक, ब्रह्म परापति होय ॥३॥ तृष्णा मिटै सॅतोपतै, सेये अति बढ़ि जाय । दन डार आग न बुझे, तृनारहित बुझ जाय ॥४॥ चाहि कर सो ना मिले, चाहि समान न पाप । चाहि रखें चाकरि कर, चाहि विना प्रभु आप ॥५॥ पाप नान पर-पीड़यो, पुन्य जान उपगार । पाप बुरो पुन है भलो, कीराखि विचार ।।६।। पाप अलप पुन व अधिक, ऐसो आरम ठानि । व्यों विचार विणजे मुवर, लाभ बहुत तुछ हानि ॥७॥ विपति परै सोच न करो, कीजे जतन विचार । सोच कियेत होत है, तन धन धर्म बिगार ॥८॥ सोच किय चक्रित रहै, जात पराक्रम भूल । प्रबल होत वैरी निरखि, करि डारे निरमल ॥९॥
१ कौड़ी। २ सुलम करके । ३ शुद्ध । ४ पुण्य । ५ व्यापार करे। ६ भ्रमिष्ट ।
-
-
-
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
३४
बुधजन-सतसईदेश काल वय देखिकै, करि हैं बैद इलाज । त्यौं गेही घर बसि करें, धर्म कर्मका काज ॥१०॥ प्रथम धरम पीछे अरथ, बहुरि कामको सेय । अन्त मोक्ष साधै सुधी, सो अविचल सुख लेय ॥११॥ धर्म मोक्षको भूलिकै, कारज करि है कोय । सो परभव विपदा लहै, या भव निंदक होय ॥१२॥ सक्ति समालिर कीजिये, दान धर्म कुल काज । जस पावै मतलव सधै, मुखिया रहे मिजाज ॥१३॥ विना विचारे सक्तिके, करै न कारज होय । थाह विना ज्यौं नदिनिमै, परै सु चूड़े सोय ॥१४॥ अलभ मिल्यौ ना लीजिये, लये होत बहाल । वनमैं चावरकों चुनें, बॅधे परेवा जाल ॥१५॥ जैसी संगति कीजिये, तैसा लै परिनाम | तीर गहैं तोके तुरत, माला” ले नाम ॥१६॥ जनम अनेक कुसंगवस, लीन होय खराव ।
१ गृहस्थी । २ निन्द्य-बदनाम।३सँभाल करके अर्थात् जितनी शक्ति हो, उतना। ४ एक व्याधा जंगलमे चावल फैला कर और उसपर जाल विछाकर छुप रहा था, चावलको देख कबूतर (परेवा) चुगनेके लिये आ बैठे, और उस जालमें फँस गये। इसकी कथा हितोपदेशमे है।५ ताकता है, निशाना साधता है।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपदेशाधिकार। ___३५ अब मतसंगतिके किये, है शिवपथका लाभ ॥१७॥ नीति तज नहिं सतपुरुष, जो धन मिल करोर । कुल तिय वन न कंचनी, भुगतै विपदा घोर ॥१८॥ नीति धरै निरभ मुग्नी, जगजन करें मराह । भंड जनम अनीतित, दंड लेत नग्नाह ॥१९॥ नीतिवान नीति न तजे, सह भूस तिसं त्रास । ज्यों हंसा मुक्ता विना, वनमर कर निवास ॥२०॥ लखि अनीति सुतकी तजे, फिर लोकमें हीन । मुसलमान हिंदू मरव, लखे नीति आधीन ॥२१॥ जे विगरे ते स्वादत, तजै स्वाद सुस होय । मीन परेवा मकर हरि, पकरि लेत हर कोय ॥२२॥ खाद लखें रोग न मिटें, कीयें कुपथ अकाज । नात कुर्टकी पीजिये, साजे लूखा नाज ॥२३॥ अमृत उत्लोदर अमन, विप सम खान अपाय । वह पुष्ट तन बल करें, यात गेग बढाय ॥२४॥ भूखरोगमंटन अमन, वसन हग्नकौं सीत ।
१रंढी वेश्या। २ प्रशंसा। ३ चेइजत होता है।४ नरनाथ-राजा । ५प्यास । ६ एक कड़वी दवाई ७ खाइये। ८ कम भोजन करना कुछ खाली पेट रहना । खूब अधाकर खा लेना।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतसईअति विनान नहिं कीजिये, मिलै सो लीजे मीत ॥२५॥ होनी प्रापति सो मिलै, तामैं फेर न सार । तिसना किये कलेस है, सुखी संतोपविचार ॥२६॥ किते द्यौस भोगत भये, क्यों हू त्रपत न पाय । त्रिपत होत संतोपसौं, पुन्य बढे 'अघ जाय ॥२७॥ पंडित मूरख दो जनै, भोगत भोग समान | पंडित समवृति ममत विन, मूरख हरख अमान ॥२८॥ सूत्र बांचि उपदेश सुनि, तजै न आप कपाय | जान पूछि कूवै परे, तिनसौं कहा बसाय ॥२९॥ विनसमुझे ते समझसी, समझे समझे नाहिं। काचे घट माटी लगे, पाके लागै नाहिं ॥३०॥ रुचितें सीखें ज्ञान है, रुचि विन ज्ञान न होय । सुधा घट वरसत भरै, औंधा भरै न कोय ॥३१॥ सांच कहै दूपन मिटै, नातर दोष न जाय । ज्यौंकी त्यौं रोगी कहै, ताको बनै उपाय ॥३२॥ करना जो कहना नहीं, पूछ मारग आन । नीसाना कैसे मरे, ताकै आन ही थान ॥३३॥ औरनकौं बहकात है, करे न ज्ञान प्रकास । गॉडर आनी ऊनकौं, बांधी चरै कपास ॥३४॥ .. १ विज्ञान-ज्यादा विचार करना । २ अप्रमाण-बहुत।। ३ बेसमझ । ४ देखे । ५ भेड़।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपदेशाधिकार।
३७. विन परिख्या संयां कई, मृह न बान गहाय । अंधा बांटे जेवरी, सगरी बछग साय ॥३५॥ बोलते जाने पर, मृरख विद्यावान । कांसी रूपेकी प्रगट, बाजे होत पिछान ॥३६॥ ऊंचे कुलके सुत पर्दै, पढ़ें न मृह गमार । धुरसल तो क्या हुन भने, मैना भने अपार ॥३७॥ मारग अर भोजन उदर, धन विद्या उरमाहि । मन सन ही आत है. उकटा आवत नाहि ॥ ३८ ॥ नित प्रति कुछ दीया किया, कार्ट पाप पहार । किसत माहि देवों किय, उतर कग्ज अपार ॥३९॥ वृद्ध भये ह ना धरै, क्यों विगग मनमाहिं । जे बहने कमें बच, लकही गहने नाहि ॥४०॥ विन कलमप निरभ जिके, ते तिरज है तीर । पोली घट मधी सटा, क्या करि घुड़े नीर ॥४१॥ दुर्जन सज्जन होत नहिं, गसौ तीरथवास ।
मेला क्या न कपूर, हींग न होय सुवास ॥४२॥ ' मुखते जाप किया नहीं, किया न करतै दान |
सदा भार बहते फिर, ते नर पशु समान ॥४३॥ । स्वामि काममै टरि गये, पायो हक भरपूर । आगे क्या कहि छटसी, पूछे आप हुजूर ॥४४॥
१परखे विना। २ पाठ-सवक । ३ एक प्रकारका पक्षी। ४ शनैः शनैः, धीरे-धीरे।
-
-
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतसई
३८ करि संचित कोरो रहै, मूरख विलसि न खाय । माखी कर मींड़त रहै, संहद भील ले जाय ॥४५॥ कर न काहुसों वैर हित, होगा पाप संताप । स्वतै बनी लखिबौ करौ, करिबौकर प्रभु-जाप ॥४६॥ विविधि बनत आजीविका, विविधि नीतिजुत भोग । तजकै लगैं अनीतिमैं, मुकर अधरमी लोग ॥४७॥ केवल लाग्या लोभमैं, धर्मलोकगति भूल । या भव परभव तासका, हो है खोटी मूल ॥४८॥ उद्यम काज इसा करें, साधैं लोक सुधर्म । ते सुख पावें जगतमै, काटें पिछले कर्म ॥४९॥ पर औगुन मुख ना कहैं, पोर्षे परके प्रान । विपतामैं धीरज भजै, ये लच्छन विद्वान ॥५०॥ जो मुख आवै सो कहै, हित अनहित न पिछान | विपति दुखी संपति सुखी, निलज मूढ सो जान ॥५१॥ धीर तजत कायर कहैं, धीर धरेत वीर । धीरे जानै हित अहित, धीरज गुन गंभीर ॥५२॥ खिन हॅसित्रौ, खिन रूसिवा, चित्त चपल थिर नाहिं । ताका मीठा बोलना, भयकारी मनमाहि ॥५३॥ विना दई सोर्गन कर, हॅसि बोलनकी वान । सावधान तासौं रहो, झूठ कपटकी खान ॥५४॥ जाका चित आतुर अधिक, सडर सिथिल मुख बोल।
१ शहद-मधु । २ कसम । ।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६
-
उपदेशाधिकार। ताका भारख्या मांच नहि. झूठा कर है कोल ॥५५॥ लोकरीतिको छाडिक, चालत है विपरीनि । धरम मीख तामों कहें, अधिकी कर अनीति ॥५६॥ जो मनमुख थिरह मुन, नाका दीजे सीख । विनयरहित धंधा (?) महित. मांगे देय न भीख ।।५७॥ पहले किया मा अब लिया, मोग गेग उपभोग । अब कग्नी ऐसी कग, जो परमवके जोग ॥५८॥ जो कर ही मो पाय हो, बात तिहारे हाथ । विकल्प तजि मटयुध कर्ग, कंग्तव तनी न साथ।।५९।।
ओडि मुहर लाभ न पल, मो मति वृथा गमाय । करि कमाय आजीविका के प्रभुका गुन गाय ।।६।। घाम गखतं रहत हैं, प्रान धान धन मान । घग्म गमन गम जात हैं. मान धान धन प्रान ॥६॥ धर्म हग्न अपना मरन, गिन न धनहित जोय । याँ नहिं जान मृढ़ जन, मरे भोगि है कोय ॥६२।। चातुर खग्चत विन मर, पूंजी दे न गमाय । के भोग के पुन कर, चली जात है आय ।।६३।। भावी रचना फेरि दे, रसम कर उदास । टरची मुहरत गजको, राम भयौ वनवास ॥१४॥ कोटि कर्ग परपंच किन, मिलि है प्रापति-मान ।
१ कसम । २ कर्तव्य। ३ पुण्य । ४ आयु-उमर । ५होनहार, भवितव्य । ६ रंगमें भंग।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०
बुधजन-सतसईसंमदर भरया अपार जल, आवै पात्र प्रमान ॥६५॥ पंडित हू रोगी भये, व्याकुल होत अतीव । देखो वनमें विन जतन, केस जीवत जीव ॥६६॥ कहे वचन फेर न फिरे, मृरखके मन टेक । अपने कहे सुधार लै, जिनके हिये विवेक ।।६७॥ लखि अजोगि विचछन मुरे, दुरजन नेकु टरेन । हरयो काठ मोरत मुरै, मुखौ फटै मुरै न ॥६८॥ चिर सीख्यौ सुमरत रहत, तदपि विसर जा सुद्धि । पंडित मूरख क्या करे, भावी फेरै बुद्धि ॥६९॥ सायर संपति विपतिमें, राखे धीरज ज्ञान । कायर व्याकुल धीर ताज, सहे वचन अपमान ||७०॥ कहा होत व्याकुल भये, होत न दुखकी हान । रिपु जीत हार धरम, फैले अजस कहान ॥७॥ दुखमैं हाय न बोलिये, मनमैं प्रभुको ध्याय । मिटै असाता मिट गये, कीजै जोग उपाय ॥७२॥ कर न अगाऊ कलपना, कर न गईकौं याद । सुख दुख लो वरतत अवै, सोई लीजे साध ॥७३॥ कवह आभूपन वसन, भोजन विविध तयार। कबहूँ दारिद जौ-असन, लीजै ममता धार ॥७॥ धूप छांह ज्यौं फिरत है, संपति विपति सदीव । हरष शोक करि फॅसत क्यों, मूढ़ अज्ञानी जीव ॥७५॥
१ समुद्र । २ विद्वान । ३ साहसी । ४ जौका भोजन ।
-
-
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपदेशाधिकार। असन औषिधी भूखकी, वसन औषधी सीत । भला बुरा नहिं जोइये, हरजे बाधा मीत ॥७६|| खाना पीना सोवना, फुनि लघु दीरघ व्याधि । राव रंककै एक सी, एती क्रिया असाधि |७७|| वाही बुधि धन जात है, वाही बुधिते आत । जिनस व्याज विनजत वधे. ताही करते जात ||७|| पंडित भावो मृढ़ हो, सुखिया मंद कपाय । माँठो मोटों है बलध, ताती दुवरी गाय ॥७९॥ बंध भोग कपायते, छटै भक्ति वैराग । इनमें जो आछा लगे, ताही मारग लाग ॥८॥ दुष्ट दुष्टता ना तजे, निंदत ह हर कोय । सुजन सुजनता क्यों तज, जग जस निजहित होया८१॥ दुष्ट भलाई ना करें, किये कोटि उपकार । सरपन दूध पिआइये, विपहीके दातार ॥८२॥ दुष्ट संग नहिं कीजिये, निश्चय नासै प्रान । मिल ताहि जारै अगनि, भली बुरी न पिछान ॥८३॥ दुष्ट कही सुनि चुप रहो, बोलें है है हान । भीटा मार कीचमैं, छीटे लागै आन ॥४॥
१ देखिये । २ वाधा मिटालीजिये । ३ लघुशंका-पेशाव । ४ दीर्घशंका-पाखाना । ५ वस्तु-चीज। ६ ठंडा-मारियाल । ७ गरम तेज । पत्यर।
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२
बुधजन-सतसईकंटकका अर दुष्टका, ओर न बनै उपाय | पग पेनहीं तर दात्रिये, ना तर खटकत आय ||८५| मन तुरंग चंचल मिल्या, वाग हाथमै राखि । जा छिन ही गाफिल रहो, ताछिन डारै नाखि॥८६॥ मन विकलप ऐते कर, पलके गिने न कोय । याके कियें न कीजिये कीजै हित है जोय ॥८॥ पौनथकी देवनथकी, मनकी दार अपार । बूड़े जीव अनंत हैं, याकी लागे लार ॥८८|| मन लागें अवकास दे, तब करतत्र बन जाय । मन विन जाप जपै वृथा, काज सिद्ध नहिं थाय ॥८९॥ जैसे तैसैं जतन करि, जो मन लेत लगाय । फुनि जो जो कारज चतुर, करै सु ही बन जाय ॥१०॥ जिनका मन वसिमैं नहीं, चाल न्याय अन्याय । ते नर व्याकुल विकल हे, जगत निंदता पाय ॥९१॥ बड़े भागते मन रतन, मिल्यौ राखिये पास । जहांके तहांके खोलते, तन धन होत विनास ॥१२॥ तनतें मन दीरघ धनौ, लांबौ अर गंभीर । तन नासै नास न मन, लरती बिरियां वीर ॥१३॥ मन माफिक चालै न जब, तब सुतौं तज देत । मन.साधन करता निखि, करत आनतें हेत ॥९॥
१ जूता । २ पलभरके विकल्पोंको कोई गिन नहीं सकता। ३ हवासे ।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपदेशाधिकार। तनकी दौर प्रमानत, मनकी टौर अपार । मन बढ़करि घटि जात हे, घट न तनविस्तार ॥१५॥ मनकी गति को कहि मके, मर जान भगवान | जिन याको बसि कर लयों, ने पहुंचे शिवथान ॥९॥ परका मन मेला निखि, मन बन जाता सेर । जब मन मांग आनते, तब मनका ई सेर ॥९७॥ जब मन लाग मोचम, तत्र नन देत सुकात । जब मन निग्भ मुख गहै, तब फ़्लै सब गात ॥१८॥ गति गतिम मरते फिरे, मनमै गया न फेर । फेर मिटत मनतना, मग न दूजी बेर ॥१९॥ जिनका मन आतुर भया, ते भूपति नहिं रंक । जिनका मन संतोपमै, ते नर इंद्र निसंक ॥४०॥ जंत्र मंत्र आपधि हरे, तनकी व्याधि अनेक । मनकी बाधा मब हरे, गुरुका दिया विवेक ॥१॥ वही ध्यान वह जाप व्रत, यही ज्ञान मरधान । जिन मन अपना बसि किया, तिन मत्र किया विधान ॥२॥ विन सीखं वचों नहीं, सीखो राख विचार । झूठ कपटकी दालकरि, ना कीजे (?) तरवार ॥३॥ जीनत मग्ना भला, अपजस सुन्या न जात । कहनत मुनना भला, विगर जाय है बात ॥४॥ अपने मन आछी लगे, निंदें लोक सयान | ऐसी परत (१) न कीजिय, तजियै लोभ अग्यान ॥५॥
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
४४'
बुधजन-सतसईथोरा ही लेना भला, बुरा न लेना भौत । अपजस सुन जीना वुरा, तात आछी मौत ॥६॥ स्वामिकाज निज काम है, सधै लोक परलोक । इसा काज वधजन करौ. जामैं एते थोक ॥७॥ कहा होत व्याकुल भए, व्याकुल विकल कहात। कोटि जतनत ना मिटै, जो होनी जा स्यात ॥८॥ जामैं नीत बनी रहै, बन आवै प्रभु नाम । सो तौ दारिद ही भला, या विन सबै निकाम ॥९॥ जो निंदातें ना डरै, खा चुगली धन लेत । वातै जग डरता इसा, जैसे लागा प्रेत ॥१०॥ कुलमरजादाका चलन, कहना हितमित वेन । छोड़ें नाहीं सतपुरुष, भोग चैन अचैन ॥११॥ दारिद रहै न सांसता, संपति रहै न कोय । खोटा काज न कीजिये, करौ उचित है सोय ॥१२॥ मानुषकी रसना वसैं, विष अर अंमृत दोय । भली कहैं बच जाय है, बुरी कहैं दुख होय ॥१३॥ अनुचित हो है वसि विना, तामै रहौ अबोल । बोलेते ज्यौं वारि लगि, सायर उठे कलोल ॥१४॥ . तृष्णा कीएं का मिलै, नास हित निज देह । सुखी संतोपी सासता, जग जस रहै सनेह ॥१५॥
१ शाखत-निरन्तर।
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
.४५
· उपदेशाधिकार। मोह कोह दौकरि तपै, पिवै न समता वारि । विप खावै अमृत तजै, जात धनंतर हारि ॥१६॥ दान धर्म व्यापार रन, कीजे सकति विचार । विन विचार चालें गिरें, ऑड़े साइमँझार ॥१७॥
आमद लखि खरचै अलप, ते सुखिया संसार । विन आमद सरचे धनी, लहैं गार अर मार ॥२८॥ लाख लाज विन लाख सम, लाजसहित लख लाख । भला जीवना लाजजुत, ज्यौं त्यो लाजहिं राख ॥१९॥ कुशल प्रथम परिपाक लख, पीछे काज रचात । पिछा पाँव उठाय तब, अगली ठौर लखात ॥२०॥ देव मनुप नारक पशू, सबै दुखी करि चाहि । विना चाह निरभै सुखी, वीतराग विन नाहि ॥२१॥ जीवजात सब एकसे, तिनमें इता विनान । चाह सहित चहुंगति फिर चाह रहित निरवान ॥२२॥ गुरु ढिग जिन पूछी नहीं, गह्यौ न आप सुभाव । सूना घरका पाहुना, ज्यों आवे त्यों जाय ॥२३॥
विद्याप्रशंसा। जगजन बंदत भूपती, ताह (?) अधिक विद्वान । मान भूपती देश निज, विद्या सारे मान ॥२४॥ .
१ दावासे-अग्निसे. । २ धन्वन्तरि वैद्य ! ३ गहरे गढ़ेमें। ४ लाख (चपड़ा) के समान १५भेद--विज्ञान ।
-
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
बुधजन-सतसईदारिद संपतिमैं सदा, सुखी रहत विद्वान । आदरतें लाभै सु लै, सह नाहिं अपमान||२५|| या भव जस परभव सुखी, निग्भ रहे सदीय । पुन्य बढ़ावे अब हरे, विद्या पहिया जीव ॥२६॥ गज चोर डरपै धनी, धन खरचत घट जाय । विद्या देते मान बढे, नरपति बंद पाय ॥२७|| दरववान डरपत रहै, ना बैठे जा थान । भूपसभा चतुरनविर्षे, अति उद्धृत विद्वान ॥२८॥ च्यारि गतिनमैं मनुपकों, पढिवेकी अधिकार । मनुप जनम धरि ना पढ़े, ताका अतिविकार ।।२९॥ पुस्तक गुरु थिरता लगन, मिलै सुथान सहाय । तब विद्या पढिवा वनै, मानुप गति परजाय ॥३०॥ जो पढि करै न आचरन, नाहिं कर सरधान । ताको भणिवौ बोलिवो, काग वचन परमान ॥३१॥ रिपु समान पितु मातु जो, पुत्र पढ़ा नाहिं । सोभा पावै नाहिं सो, राजसभाके माहिं ॥३२॥ अलप असन निद्रा अलप, ख्याल न देखे कोइ । आलस तजि घोखत रहे, विद्यारथि सुत सोइ ॥३३॥ पांचयकी सोलह वरस, पठन समय यो जान । तामै लाड़ न कीजिये, फुनि सुत मित्र समान ॥३४॥ . १ पढ़ना । २ सोलह बससे अधिक उमरके पुत्रको मित्रक समान मानना चाहिये।
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
उपदेशाधिकार। तजिवे गहिवेको वन, विद्या पढ़ते ज्ञान। हैमरधा जब आचग्न, इंद्र नमै तब आन ॥३५॥ धनत कलमप ना कटे. काट विद्या ज्ञान । ज्ञान विना धन क्लेगकर, नान एक मुखखान ॥३६॥ जो सुख चाहै जीवको, तो बुधजन या मान । च्या न्यो मर पच लीजिये, गुस्त साचा ज्ञान ॥३७॥ सींग पूंछ विन बैल है, मानुप बिना विवेक । भस्य अभख समझे नहीं, भगिनी भामिनी एक ॥३८॥
मित्रता और संगति। जालौं तू संसारमें, तीली मीत रसाय । सला लिय विन मित्रकी, कारज वीगर जाय ॥३९॥ नीति अनीति गर्न नहीं, दारिद संपतिमाहि । भीत सला ले चाल है. तिनका अपजस नाहि ॥४०॥ मीत अनीत बचायक, हे विसन छुड़ाइ । मीत नहीं वह दृष्ट है, जो दे विसन लगाइ ॥४१॥ धन सम कुल सम धरम सम, सम वय मीत बनाय। नासा अपनी गोप कहि, लीजें भरम मिटाय ॥४२॥
औरनतें कहिये नहीं, मनकी पीडा कोइ। मिले मीत परकासिये, तब वह देव खोइ ॥४३॥ खोटेसी बात किय, खोटा जानै लोय ।
१ पाप । २ भक्ष्य-खाने योग्य, अभक्ष्य नहीं खाने योग्य । ३ सलाह।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८
बुधजन सतसई
dont पथ पूछतां भरम करें हर कोय ||४४ || मतसंगति में बैठनां, जनम सफल है जाय । मैले गेले जावतां, आ मैल लगाय ॥ ४५ ॥ मतसंगति आदर मिले, जगजन करें बखान । सोटा सँग लखि सन हैं, बाकी निशन आन ॥४६॥ येते गीत न कीजिये, जती लखपती वाल । ज्यारी चांरी तेलकरी, अॅमली अ बेहाल ||४७|| मित्रतना विश्वास सम, और न जगमै कोय | जो विमास का घात है, बडे अवामी लोय ॥४८॥ कठिन मित्रता जोरिये, जोर तोरिये नाहिं । तोरतें दोऊन के, दोष प्रगट है जाहिं ॥४९॥ विपत मैटिये मित्रकी, तन धन खरच मिजाज (९) । कहूं बांके बखत मैं, कर है तेरो काज ॥५०॥ मुखतै बोलै मिष्ट जो, उरमैं राखै घात । मीत नहीं वह दुष्ट है, तुरत त्यागिये भ्रात ॥ ५१ ॥ अपने सौ दुख जानकें, जे न दुखावें आन । ते सदैव सुखिया रहैं, या भाखी भगवान || ५२|| जुआ निषेध |
जननी लोभ लवारकी, दारिद दादी जान | कूरा कलही कामिनी, जुआ विपतिकी खान ॥५३॥ -
१ खराब रास्तेसे । २ विश्वास । ३ दूत - चुगलखोर । ४ चोर । ५ नशेबाज |
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६
उपदेगाधिकार। घन नाम नाम धरम, मार्ग घी कुख्यान । धकाधम धनों की. विग धिा कई जहान ॥५४॥ बारीको जोस नजे. न मान पितु भ्रात । द्रव्य हर बाज लो, गोन बान कुनात ॥१५॥ धारी जाय न गज. लरिनमक व्यापार । मार्गकी पातीनि नहि. फिरता फिी गुंगार ॥५६॥ चांध ज्यान बीग डोनने काल । फवह चार पहिधी फेम माल ॥५७॥ अमुचि अरन की सानि नहें, रहै हाल बेहाल । तात मग्न : नरह, नन न जनाधार ॥२८॥ कहा गिननि नामान जा, पांडा मो सगर ।
मा गस्त पुरुषकी, क्यों हु है न और ॥५९॥ जमा पान चंडालक, नसा यावे सान । नीच उंच कुलकी नं, का होप पिठान ॥६॥
मांसानिये। हाड़ मांग मादानके, जाफा कामांमाहि । सो तो प्रगट ममान है, कांमा सामा नाहिं ।।६१॥ दूध दही धून धान फर, मुष्ट मिट वर सान। । ताकी तनक अवन मुम, सोटी मोटी आन ॥१२॥
जीर अनंता मामते, मागे श्रीभगवान । चालत काटत मामको हिंमा होमहान ॥६॥
१रसार-पराय । २ पानी-इज्जत। ३न्याल । ४ मांस।
-
-
-
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतसईमांस पुष्ट निज करनको, दुष्ट ऑन-पल खात । बुरा करते है भला, सो कहुं सुनी न बात ॥६॥ स्यार सिंह राक्षस अधम, तिनका भख है मांस । मोक्ष होन लायक मनुप, गहैं न याकी बांस ॥६५॥ उत्तम होता मांस तौ, लगता प्रभुके भोग । यौं भी या जानी परै, खोटा है संयोग ॥६६॥
मद्यनिषेध। सड़ि उप प्रानी अनंत, मदमैं हिंसा भौत । हिंसातै अघ ऊपजे, अघतै अति दुख होत ॥६७॥ मदिरा पी मत्ता मलिन, लौटे वीच बजार । मुखमैं मृत कूकरा, चा, विना विचार ॥६॥ उज्जल ऊंचे रहनकी, सबही राखत चाय । दारू पी रोरी पर, अचरज नाहिं अघाय ॥६९।। दारूकी मतवालमैं, गोप बात कह देय | पीछे वाका दुख सहै, नृप सरवस हर लेय ॥७०॥ मतवाला है बावला, चाल चाल कुचाल। जात जावै कुगतिमैं, सदा फिर वेहाल ॥७॥ मानुष कैकै मद पिये, जानै धरम बलाय । आंख मूंदि कूब परै, तासौं कहा बसाय ॥७२॥ । १ दूसरोंका मांस । २ गंध । ३ सर्वस्व-सारा धन ।
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
उपदेशाधिकार
वेश्यानिषेध । चरमकार वेचीमुता, गनिझा लीनी मोल । ताकी सेवत मृदृजन, धर्म कर्म दे खोल ॥७३॥ हीन दीनत लीन है, सेती आ मिलाय । लेती सम्बस नंपडा, दती गंग लगाय ||७|| जे गनिका सँग लीन हैं, सर्व तरह ते हीन । तिनके करने सावना, धर्म कर्म कर छीन ॥७॥ सातां पीतां मोवतां, करतां सब व्योहार । गनिका उर बसिौ कर, करतब कर असार ||७|| घन खरंच ताली रच, हीन, खीन तज देत । विसनीका मन ना मुँर, फिरता फिर अचेत ॥७॥ द्विज खत्री कोली वनिक, गनिका चाखत लॉल । ताको सेवत मृढजन, मानत जनम-निहाल ||७८॥
'शिकारकी निन्दा । जैसे अपने प्रान है, तेसे परके जान । कसे हन्ते दुष्ट जन, विना वर परसान ||७|| निग्जन वन घनमै फिरें, और भूख भय हान । दसत ही धूंमत छुरी, निग्दइ अधम अजान ।।८०॥ दृष्ट सिंह अहि मारिये, वाम का अपराध । प्रान पिया सबनिकी, याही मोटी बाँध ॥८॥
१ चमार-मोची । २ मेवन करती है। ३ व्यसनीका । ४ लौटता है।५लालायालार।६सफलाण्वाधा-अड़चन,दोप।
--
-
-
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतसईभलौ भलौ फल लेत है, चुरौ बुरों फल लेत । तू निरदह है मारकै, क्यों ह पापसमेत ॥२॥ नैकु दोष परको विय, बा बढी कलेम । ने पातखि प्राननि हाँ, ता | चक्यों असेस |८३|| प्रान पोषना धर्म है, प्रान नासना पाप।। ऐसा परका कीजिये, जिमा सुहावै आप ॥२४॥
सोलन धारा निन्दा, आप ||
प्रान पलत है धन रहे, तातै तासों प्रीति । सो जोरी चोरो कर, ता सम कोन अनीति ॥८५॥ लौं मरें घर तजि फिरे, धन प्रापति के हेत । ऐसेकौं चोरै हरे, पुरुष नहीं वह प्रेत ॥८६॥ धनी लौ नृप सिर हरै, बसें निरंतर घात । निपीक है चोर न फिरे, डरै रहै उतपात ||८७॥ बहु उद्यम धन मिलनका, निज परका हितकार। सो तजि क्यों चोरी कर, तामै विवन अपार ॥८॥ चोरत डर भोगत डरे, मरै कुगति दुख घोर। लाभ लियौ सो ना टर, मूरख क्यों है चोर ॥८९॥ चिंता चितः ना टरै, डरै सुनत ही बात । प्रापतिका निहचै नहीं, जाग हुए मर जात ॥९०|| चोर एकतै सत्र नगर, डरै जगै सब रैन । ऐसी और न अधमता, जामैं कहूं न चैन ॥९१॥
१ भूत । २ निडर।
J
-
-
-
-
-
-
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
उपदेशाधिकार ।
परस्त्रोसगनिषेध । अपनी परतल देखिक, जमा अपने दर्द । तसा ही परनारिका, दुखी होन है मर्द ॥१२॥ निपट कठिन परतिय मिलन, मिल न पूरे होस । लोक लरै नृप ट्रेंड कर परे महत पुनि दोस ॥१३॥ ऊंचा पट लोक न गिर्ने, कर आंबरू दूर ।
आँगुन एक कुसीलनं, नाम होत गुन भूर ॥१४॥ कन्या फुनि परव्याहता, नपग्स अपग्स जात । मारी विभचारी गह, गख नाहि भात ॥९५|| कपट अपट तकिवा कर, मदा जोर मांजार ॥१६॥ भोग करें नाहीं डगे, पर पीट पंजार ॥९॥ विक कुील कुलवानकी, जासी डरत जहान । बतगवत लांग वटा, नाहिं रहत कुलकान ॥१७॥ ना सेई नाही छुई, रावन पाई घात ! चली जान निहा अनो, जगमैं भई विख्यात ॥९८॥ प्रथम सुभग मोहित सुगम, मध्य वृथा रम स्वाद । अंत विग्म दुख नाकना, विपन-विवाद अमाद ।।१९।। विसन लगा जा पुरुष, मो तो मदा खराब । जैसे हीरा एजुत, नाहीं पवे आव ||५००॥
इति उपदेशाधिकार।
-
१ इन्चत । २ यार-यभिचारी । ३ मार्जार-बिल्ली। ४जूते।५ बहालगताई इजतमे।कुलकी लाजादोपवाला।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरागभावना। केश पलटि पलटया वेपू, ना पलटी मन वॉक । बुझै न जरती झूपरी, ने जर चुके निसांक ॥१॥ नित्य आयु तेरी झरे, धन पैले मिलि खॉय। तू तौ रीता ही रह्या, काय झुलाता जाय ॥२॥ अरे जीव भववनविषै, तेरा कौन महाय। काल सिंह पकौ तझे तब कोलेत पचाय ॥३॥ को है सुत को है तिया, काको धन परिवार । आके मिले सरायमै, विरेंगे निरधार ॥४॥ तात मात सुत भ्रात सब, चले सु चलना मोहि । चौष्टि वरप जाते रहे, कैसे भलै तोहि ॥५॥ बहुत गई तुछ सी रही, उस्मैं धरौ विचार । अब तो भूले हनना, निपट नजीक किनार ॥६॥ झूठा सुत झूठी तिया, है ठगसा परिवार । खोसि लेत है ज्ञानधन, मीठे बोल उचार ॥७॥ आसी सो जासी सही, रहसी जेते आय । अपनी गो आया गया, मेरा कौन बसाय ||८|| जावो ये भावी रहा, नाहीं तन धन चाय । मैं तो आतमरामके, मगन रह गुन गाय ॥९॥
१ वपु-शरोर । २ दूसरे लोग । ३ आयु-उमर।
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरागभावना। जो कुवुद्धित बन गये, ते ही लागे लार । नई कुबुधकरि क्यों फर्म, करता बनिर अपार ॥१०॥ चींटी मीठा ज्यों लग, परिकरके चहुंओर । तू या दुखकौं मुख गिनै, याही तुझमैं भोरे ॥११॥ अपनी अपनी आयु ज्यौं, रह हैं तेरे साथ । तेरे राखे ना रहैं, जो गहि राखै हाथ ॥१२॥ जैसे पिछले मर गये, तैसें तेरा काल | काके कहै नचिंत है, करता क्यों न संभाल ॥१३॥ आयु कटत है गतदिन, ज्यों करोतः काठ । हित अपना जलदी करो, पड़या रहेगा ठाठ ॥१४॥ संपति विजुरी मारिसी, जोबन वादर रंग। कोविद कैसे राच है, आयु होत नित भंग ॥१५॥ परी रहेगी संपदा, धरी रहेगी काय । छलबलकरि क्यों हु न बचे, काल झपट ले जाय ॥१६॥ बनती देखि बनाय लै, फुनि जिन राख उधार । "वहते वारि पखार कर" फेरि न लामै वारि ॥१७॥ विसन भोग भोगत रहे, किया न पुन्य उपाय । गांठ खाय रीते चले, हटवारेमें आय ॥१८॥ खावी खरचौ दान द्यौ, विलसौ मन हरपाय । संपति नेद-परवाह ज्यौं, राखी नाहि रहाय ॥१९॥ - १ वनकरके । २ भोलापन । ३ पंडित-विवेकी। ४ बाजारमे । ५नदाके प्रवाहके समान।।
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरागभावना। केश पलटि पलटया वेपू, ना पलटी मन बॉक । बुझे न जरती झूपरी, ने जर चुके निसांक ॥१॥ नित्य आयु तेरी झरै, धन पैले मिलि खॉय । तू तो रीता ही रह्या, हाथ झुलाता जाय ॥२॥ अरे जीव भववनविषै, तेरा कौन सहाय । काल सिंह पक तुझे, तब को लेत चाय ॥३॥ को है सुत को है तिया, काको धन परिवार । आके मिले सरायमै, दिछुरैगे निरधार ॥४॥ तात मात सुत भ्रात सत्र, चले सु चलना मोहि । चौष्टि वरप जाते रहे, कैसे भुलै नोहि ॥५॥ बहुत गई तुछ सी रही, उस्मै धरौ विचार । अब तो भूले डूबना, निषट नजीक किनार ॥६॥ झूठा सुत झूठी तिया, है ठगसा परिवार । खोसि लेत है ज्ञानधन, मीठे बोल उचार ॥७॥ आसी सो जासी सही, रहसी जेते आय। . अपनी गो आया गया, मेरा कौन बसाय ॥८॥ जावो ये भावी रही, नाहीं तन धन चाय । मैं तो आतमरामके, सगन रह गुन गाय ॥९॥
१ वपु-शरोर । २ दूसरे लोग । ३ आयु-उमर!
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरागभावना। जो कुबुद्धित बन गये, ने ही लागे लार । नई बुधकरि क्या फर्म, करता बनिर अबार ॥१०॥ चोंटी मीठा ज्या लग, परिकाके चहुंओर। तू या दुखको मुख गिर्ने, याही तुझमें भोरे ॥११॥ अपनी अपनी आयु ज्यों, रह है तेरे माथ । नेरे गखे ना रहें. जो गहि गख हाथ ॥१२॥
में पिछले मर गये, तसे तेग काल । काके कई नचिंत है, करता क्यो न संभाल ॥१३॥ आयु कटन है गतदिन, ज्यौं करोतते काठ । हित अपना जलढी करी, पढ़या रहेगा ठाठ ॥१४॥ संपति विजुरी मारिमी, जोवन बादर रंग । कोविद कमें गच है, आयु होत नित भंग ॥१५॥ परी म्हंगी संपदा, धरी रहेंगी काय । छलबलकार क्यों हु न बचे, काल अपट ले जाय ॥१६॥ बनती देखि बनाय ले, फुनि जिन राख उधार । "बहते वारि पसार कर" फेरि न लाम वारि ॥१७॥ विमन भोग भोगत रहे, किया न पुन्य उपाय | गांठ खाय गते चले, हेटवारे आय ॥१८॥ साची खग्ची दान द्या, विलसी मन हरपाय । संपति नह-पाबाह ज्यों, रासी नाहि रहाय ॥१९॥
१ वनकरके । २ भोलापन । ३ पंडित-विवेकी। ४ बाजारम। ५ नदाके प्रवाहके समान । , ,
-
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतसईनिसि सूते संपतिसहित, प्रात हो गये रंक । सदा रहे नहिं एकसी, निर्भ न काकी बंक ॥२०॥ तुछ स्यानप अति गाफिली, खोई आयु असार । अब तो गाफिल मत रहो, नेडा आत करार ॥२१॥ राचौ विरचौ कौनसौं, देसी वस्त समस्त । प्रगट दिखाई देत है, भानुउदय अर अस्त ॥२२॥ देधारी बचता नहीं, सोच न करिये भ्रात । तन तौ तजि गे रामसे, रावनकी कहा बात ॥२३॥ आया सो नाही रह्या, दशरथ लछमन राम । तू कैसे रह जायगा, झूठ पापका धाम ॥२४॥ करना क्या करता कहां, धरता नाहिं विचार । पूंजी खोई गांठकी, उलटी खाई मार ॥२५॥ धंधा करता फिरत है, करत न अपना काज । घरकी झुंपरी जरत है, पर घर करत इलाज ॥२६॥ किते द्योसें वीते तुम, करते क्यों न विचार । काल गहेंगा आय कर, सुन है कोन पुकार ॥२७॥ जो जीये तो क्या किया, मूए क्या दिया खोय । लारै लगी अनादिकी, देह तजै नहिं तोय ॥२८॥ तजै देहसौं नेह अर, माने खोटा संगें।
१ स्यानपना-चतुराई । २ नजदीक । ३ देहधारी-जोव । ४ दिवस-दिन । ५ परिग्रह।
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरागभावना। नहिं पोप सोपत रहै, तब तू होय निसंग ॥२९॥ तन तो कांगगार है, मुत परिकर रसनार । यो जान भान न दुस, मान हितू गॅबार ॥३०॥ या दीरय मंसारम, मुवा अनंती वार । एक बार नानी मरे, मग न दूनी बार ॥३१॥ देह न मरता न त, ती काहेकी हान | जो मृग तू मरत है, तो ये जान कल्यान ॥३२॥ जीग्न तजि नृतन गह, परगट रीति जहान । तसे तन गहना तजन, बुधजन मुसी न हान ॥३३॥ लेत मी देता दी, यह करजकी रीति । लेन नहीं मो टे कहा, मुस दुस बिना नचीत ॥३४॥ म्याग्य परमाग्य विना, मृग्य करत विगार । कहा कमाई करत है, गुंडी उडावनहार ॥३५॥ महज मिली लेपि ना गह, कर विपतके काम | चीपर रचि खेल लर, लेत नहीं मुस राम ॥३६॥ नगम होरी हो रही, छार उड़त मत्र ओर। बाम गये बचा नहीं, वचनी अपनी ठोर ॥३७॥ नगजानकी विपर्गत गनि, हरपत होत अकाज । होरीमै धन दे नचं, बनि भया तजि लाज ॥३८॥
१ जेलखाना । २ ग्रहण करना। ३ पतंग उड़ानेवाला। ४ लक्ष्मी ५ वाह-बाहिर।
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतसईमोमाते सब ही भये, बोलें बोल कुत्रोल । मिलवौ बसियो एक घर, बचचौ म्हों अबोल ॥३९॥ जगजन कारज करत सन, छलबल झूठ लगाय । इसा काज कोविद करे, जाम धरम न जाय ॥४०॥ "आंसी सो जासी" मही, टे जुर गई प्रीति । देखी सुनी न सालती, अथिर भगदी रीति ॥४१॥ सत्र परजायनिको सदा, लागि रह्या संस्कार । विना सिखाये करत यौं, मैथुन हाँ निहार ॥४२॥
ममता और ममता । सुनें निपुन ममताविर्षे, कारन ओर हजार । विना सिखाये गुरुनके, होत न समताधार ॥४३॥ आकुलता ममता तहां, ममता कुखकी नीव । समता आकुलता हरै, तातै सुखकी सीव ॥४४|| समता भवदघिसोसनी, ज्ञानामृतकी धार । भयातापकौं हरत है, अद्भुत सुखदातार ॥४५॥ समतात चिंता मिटै, मैंटै आतमराम । ममतात विकलप उठे, हेरै सारा ठाम ॥४६॥ ममताको परिकर धनौ, क्रोध कपट मद काम । त्या समता एकली, बैठी अपने धाम ||४७||
१ मोहमाते-मोहमें मतवाले। २ ज्ञानी। ३ आया है सो जायगा। ४ आहार भोजन। ५ नीहार-पाखाना।६ परिवार।
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
विरागभावना। ममता काठ अन मते, चिता अगनि लगाय । जरै अनंनाफालकी. ममता नीर बुझाय ॥४८॥ ममता अपनी नारि मग, निन सुख निरम होय । भय कलेगकग्नी विपत. ममता परकी जोय ॥४९॥ ममता संग अनाटिकी, करें अनते फल । जब जिय गुरु मंगति कर, तब या छांड गल ॥५०॥ ममता बेटी पापकी. नरक-मदन ले जाइ । धर्ममुना ममना जिकी. सुरगमकतिमुखदाइ।।५।। ममता गमताकी कग. निन घटमाहि पिछान । उरी ती आठी भजी, जो तुम ही बुधिमान ॥५२॥ जाकी संगति दम लहा. नाकी नजो न गल। तो तुमको कान्येि म्हा, ज्याले. त्या हो बल ||५|| पूर्व कमाया मो लिया, कहा किये होय काम | अत्र करनी ऐसी आग, पग्मा होय खुम्बाम ॥५४॥ जी द्यां नम यहां, बग्नन है मत्र व्याध। ज्या अब द्यां माधन गर्ग, त्यो ही परभव माध ॥५५॥ याही भीम रचि रहे. परभा झगें न याद । चाले गते होयक, क्या बायोगे बाद ॥५६|| जोला काय कटें नहीं. म्है भृगकीव्याध । परमाग्य म्याग्यनना, तीला माधन माध ॥५७॥
खी।
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०'
बुधजन-सतसईसरतेमैं करते नहीं, करते रहे विचार । 'परनिर छोड़ी बापके, फिर पछतात गवॉर ॥५८॥ अहिनिस पानी जगतके, चले जात जमथान । सेसा थिरता गहि रहे, ए अचरज अज्ञान ॥५९॥ नागा चलना होयगा, कछु न लागे लार । लार लैन का है मता, तो ठानों दातार ॥६॥ नरनारी मोहे गये, कंचन कामिनिमाहिं । अविचल सुख तिन ही लिया, जे इनके बस नाहिं ॥६॥ मिथ्या रुज नास्यौ नहीं, रह्यो हियामें वास । लीयौ तप द्वादस वरस, किया द्वारिका नास ॥६२॥ कहा होत विद्या पढ़े, विन परतीति विचार । अंभविसेन संज्ञा लई, कीनों हीनाचार ॥६३।। विना पढ़े परतीति गहि, राख्यो गाढ़ अपार । याद करत 'तुष-भाष' कौं, उतर गये भवपार ॥६॥ आपा-पर-सरधान विनु, मधुपिंगल मुनिरण्य । तप खोयौ बोयौ जनम, रोयौ नरकमेशाय ॥६५॥ कोप्यौ मुनि उपसर्ग सुनि, लो-यौ नृप पुर देस । कीनौं दंडकवन पिवम, लीनों नरकप्रवेस ॥६६|| सुख भानै भानै धरम, जोगनधनमदअंध । माल जानि अहिको गहैं, लही विपति मतिअंध ॥६७॥
१ व्याह करके।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरागभावना। भोग विसन सुख ख्यालमै, दई मनुपगति खोइ । ज्यौं कपूत खा तात धन, विपता भोगै रोइ ॥६८॥ मुनी थके गेही थके, थाके सुरपति सेस । मरन समय नाहीं टर, हो है वाही देम ॥१९॥ नरक निकसि तिथंच है, पशु है तिर्नग देव । दुर्निमार फिरना सदा, संसारीकी टेर ॥७॥ रोग सोग जामन मरन, क्षुधा नींद भय प्यास । लघु दीरघ बाधा सदा, संसारी दुखवास ॥७॥ संसृत वस्तु न आन कछु, है ममतासंयुक्त । ममता तजि समता लई, ते हैं जीपनमुक्त ॥७२॥ मो-ममता जलतें प्रबल, तरु अग्यान संसार । जनम मरन दुख देत फल, काटौ ज्ञान-कुहार ॥७३॥ मगन रहत संमारमै, तन धन संपति पाय । ते कवहूं वच है नहीं, मूते आग लगाय ॥७४॥ जे.चेते संसारमैं, सुगुरु वचन सुनि कान । ता माफिक साधन करत, ते पहुंचे शिस्थान ||७५॥ संसारीको देख दुख, सतगुरु दीनदयाल । सीख देत जो मान ले, सो तौ होत खुस्याल ॥७॥ अति गभीर संसार है, अगम अपारंपार । बैठे ज्ञानजिहाजमैं, ते उतरे भवपार ॥७७॥ जे कुमती पीड़े हरें, पर तन धन तिय प्रान। लोभ क्रोध मद मोहते, ते संसारी जान ||७८॥
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन सतसईलखि सरूप संसारका, पांडव भए विराग । रहे सुथिर निज ध्यानमैं, टरे न जरते आग ॥७९॥ पले कहां जनमैं कहां, ह. धनैं नृपमान । कृष्ण त्रिखंडी भ्रांत-सर, गए तिसाए प्रान ॥८॥ दशमुख हारयो कष्टतै, सह्यो सीत वनवास । अगनि निकस दिख्या गही, भई इंद्र तजि आस ॥१॥ बाल हरयौ सुरकर परयो, पल्यौ आन जा थान । प्रदुमन सोलह लाभ ले, मिल्यौ तात रन ठान ॥८२॥ त्यागी पीहर सासरे, डरी गुफाके कौन । गई माम घर सुतसहित, मिली अंजना पौन' ॥८॥ रानी ठानी कुक्रिया, सारी निसि तजि लाज । सील सुदर्शन ना तज्यौ, भन्यौ हिये जिनराज ॥४॥
चुभ्यौ रोम सुकुमार तन, रहे करत वर भोग । सह्यौ स्याल-उपसर्ग-दुख, प्रथमहिं धारत जोग ॥८५॥ मात तात पांचौं तिया, सब कर चुके विचार । दिख्या धरके सिव वरी, स्वामी जंवुकुमार ॥८६॥ भव षट की. कमठ हठ, सहे दुष्ट उपसर्ग । पारसप्रभु समता लई, करम काटि अपवर्ग ॥८७॥ . सहे देशभूषन मुनी, कुलभूषन मुनिराय । घोर वीर उपसर्ग सुर, केवलज्ञान उपाय ॥८॥
१ जगत्कुमारके बाणसे । २ दीक्षा । ३ पवनंजयसे।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
विगगभावना। मुर गैरे संजयत मुनि, दह विद्याधर मार । मो महिक मिवतिय वर्ग, फनिटें किया उपगार ||८९॥ गांद गार्धा गाई तिरया. कहा नाह कहा चोर । अंजन भया निरजना, येठ वचनके जोर ॥१०॥ मारे मृग्गे चुन चि, कट लया भर मात | राय जमोधर चद्रमति, नाकी कथा विग्न्यात ||९१॥ मुम्ही पमु उपय मुनि, मुली क्यो न पुमांन । नाहन्न भये चीरजिन, गज पारस भगवान ॥१२॥ अगनि जगई सुमर सिर, आप मगन रहि ध्यान । गजकुमार मुनि करम हरि, भये सिद्ध भगवान ॥१३॥ कोद महा माया तम्या, कार्या भांड़ अनान । सिरीपाल माहम गया, जाय लो निजथान ॥१४॥ गनिकायर आस्ट गिरि, रतनदीप मेह। चारुदत्त फुनि मुनि भये, मुकलव्यान आस्ट ॥१५॥ जय ममान श्रेष्ठी लियो, ग्वा अमर घर जाय । दुष्ट या नृय मुनि भयो, जीवंधर सिर थाय ॥९॥ मंदिर कोट महमके, चंच दिये सिवकोट । समंतभद्र उपदंग सुनि. आये जिनमतओट ॥१७॥ महान महज त्यागन लगे, धनकुमार संमार । सालभद्र मुनि नहें तन्यो, दो मुनि हप लार ॥९८॥ १ गादमम्यन्त्र-प्रधान ! २ पुरुष । ३मागर-समुद्र। ४ जीना-काष्टांगार तुष्टको हराया।
PHA
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५
--
बुधजन-सतसईश्रेणिक नृप संबोधतें, धर्मरुची मुनिराज । त्याग कुध्यान सुम्यान गहि, भये मुक्त करि काज । समुद्र तरया कन्या वरचा, बहुरि भया अधिराज। प्रीतंकर मुनि होइ के, लयो मुक्तको राज ॥६००॥
लव अकुस सुन राम पति, जनक रूप से बाप । • हरन अनि जग्ना अगनि, सोता भुगत्या पाप ॥१॥
भर्ता अर्जुन पांडवा, हितू कृष्ण महाराज । तऊ दुमालन ची गहे, हो द्रौपदो लाज ॥२॥ बाल वृद्ध नागरी पुरुष, ज्ञानी त न धीर । कन्या कुमारी चंदना, गत्या दुख गंभीर ॥३|| साहमतै टरि ज्या विति, मैनासुंदरि धीर । कोढ़ी वरकौं आदरयौ, कंचन हुवौ सरीर ॥४॥ टरै घोर उपसर्ग सब, सांचे गादविचार । वारिवेन सुकुमार सिर, भई हार तावार ॥५॥ कहा प्रोति संतारने, देखौ खोटी बात । पीव जिमाई अहि डसी, मंगी (१) की नौं घात ॥६॥ नारिनका विसवास नहि, औगुन प्रगट निहार ।' रानी राची कूवर, लियौ जसोधर मार ॥७॥ भोज-नारि म्हावत रची, म्हावत गनिका संग। गनिका फल ले नृप दियौ, इसौ जगनको रंग ॥८॥
१ समुद्र । २ अरण्य वनवासन.. ।
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५
-
-
विरागभावना। बग्नी जाहि न कर्मगति, भली बुरी जात । दोऊ अगरत होत है. बीच परका घात ॥९॥ बुरी करें ज्या भली, लसा करमर्क ठाट । नया गेग भाम्या जगत, फोरत सिरको भाट ॥१०॥ कर और भोग अवर, अनुचित विधिकी बात | छेड़ कर मो भागि ज्या, पागेसी मर जात ॥११॥ एक कर दुग मब लहै. ऐसे विधिके काम | एक हरत है कटक धन, मारा जावे गाम ॥१२॥ बहत करें फल एक ले. ऐमा कर्म अनूप । कर फांज संग्रामकों, हार जीत भूप ॥१३॥ को जान को कह सके, हे अचिंत्य गति कर्म । यात गचं ना छ, छटै आदर धर्म ॥१४॥ धर्म मुखांकर मूल है, पाप दुसांकर सान । गुगनायन धर्म गहि, कर आपा पर नान ॥१५॥ गुगन्नाय विन होत नहि. आपा परका ज्ञान । मान विनाका न्यामा, ज्या हाथीको न्हाने ॥१६॥ नीव विना मंदिर नहीं, मूल विना नहिं रोस । आपा पर मरधा बिना, नहीं धर्मका पोख ॥१७॥ सुलभ मुनृपपद देवपट, जनम-मरन-दुसदान । दुलभ सरधाजुन धरम, अद्भुत सुसकी खान ॥१८॥
१म्नान, २ रूस-वृक्ष।
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
वुधजन-सतसईजो निज अनुभव होत सुख, ताकी महिमा नाहि । सुरपति नरपति नागपति, गखत ताकी चाहि ॥१९॥ मोह तात है जगतका, संतति देत बढ़ाय । आपा-पर-सरधानते, हटै घटै मिट जाय ॥२०॥ पंचपरमगुरुभक्ति विन, घटै न मोको जोर । प्रथम पूजकै परमगुरु, काज करी फनि और ॥२१॥ गई आयुको जोईये, कहा कमायो धर्म । गई सुगई अबह करी, तो पाचौगे शर्म ॥२२॥ ऑपत आगम परम गुरु, तीन घरमके अंग । झूठे से धर्म नहि, सांचे सेयै रंग ॥२३॥ अपने अपने मतविष, इष्ट पूज हे ठीक । ऐसी दृष्टि न कीजिये, कर लीजे तहकीक ॥२४॥ रहनी करनी मुख वचन-परंपरा मिलि जाय । दोषरहित सब गुनसहित, सेजे ताके पाय ॥२५॥ दोप अठारातै रहित, परमौदारिक काय । सब ज्ञायक दिवि-धुनिसहित, सो आपत सुखदाय ॥२६॥
आँपत-आननका कह्या, परंपरा अविरुद्ध । दयासहित हिंसारहित, सो परमागम सिद्ध ॥२७॥ वीतराग विज्ञान-धन, मुनिवर तपी दयाल ।
१ मोहका । २ देखिये । ३ मोक्ष। ४ अप्ति-सबा देव । ५ सेइये । ६ प्राप्तके मुखका कहा हुआ।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरागभावना।
६७
परंपरा आगम निगुन, गुरु निग्रंथ विसाल ||२८|| सत्रु मित्र लोहा कनक, सुख दुख मानिक कांच । लाभ अलाभ ममान मब, ऐसे गुरु लखि गच ॥२९॥ मारक उपकारक खरे, पूछ बात विसेम । दोडनको मम हित कर, कर मुगुरु उपदेस ॥३०॥ मुग्पति नापति नागपति, बमुविधि दर्व मिलाय । पूज वसु करमन हरन, आय मुगुरुके पाय ॥३१॥ सत्य क्षमा निग्लोभ ब्रह्म, मरल सलज विनमान | निगममता त्यागी ढमी, धर्म अंग ये जान ॥३२॥ हिंमा अनृत तसकरी, अब्रह्म परिग्रह पाप । दम अलय मत्र त्यागिवा, घरम दोय विधि थाप॥३३॥ धर्म क्षमादिक अंग दश, धर्म दयामय जान | दरमन नान चरित घरम, धरम तयसरधान ॥३४॥ इते धरमके अंग सब, इनका फल सिवधाम । धर्म मुभाव जु आतमा, धरमी आतमराम ॥३५॥ अधरम फेरत चतुग्गति, जनम मरन दुखधाम । धरम उद्धरन जगतमै, थाप अविचल ठाम ॥३६॥ गुरुमुस सुन गाड़ी रह्यो, त्यागौं वायस-मास । सो श्रेणिक अब पायसी, तीर्थकर शिववास ॥३७॥
१ एक देश त्याग और सर्वथा त्याग अर्थात् अणुव्रत और महानत ।२ कोएका मांस । ३ पावेंगे। ।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८
बुधजन-सतसईसुलव्यौ भील अज्ञान हू, वनमै लखि मुनिराज । अनुक्रम विधिकौं काटकै, भए नेमिजिनराज ॥३८॥
अनुभवप्रशंसा। इंद्र नरिंद फनिंद सब, तीन कालमैं होय । एक पलक अनुभौ जितौ, तिनको सुख नहिं कोय ।।३९॥ पूछ कैसा ब्रह्म है, केती मिश्री मिष्ट । स्वादै सो ही जान है, उपमा मिलै न इष्ट ॥४०॥ अनुभौरस चाखे विना, पढवेमैं सुख नाहिं । मैथुन सुख जानै न ज्यौं, कारी गीतनमाहं ॥४१॥ जानै चाख्यो ब्रह्मसुख, गुरुते पूछि विधान । कोटि जतनहके कियें, सो नहिं राचै आन ॥४२॥ बांझ-भेष उज्जल किया, पाप रहा मनमाहि । सीसी बाहिर धोवतां, उज्जल होवै नाहि ॥४३॥ पहिले अंदर सुध करै, पीछे बाहर धोय । तब सीसी उज्जल बनै, जानें सिगरे लोय ॥४४॥
गुरुप्रशंसा। गुरु विन ज्ञान मिलै नहीं, करो जतन किन कोय । विना सिखाये मिनख तौ, नाहि तिर सके तोयें ॥४५॥ जो पुस्तक पढ़ि सीख है, गुरुकौं पछै नाहिं। सो सोभा नाही लहै, ज्यौं वक हंसामाहिं ॥४६॥ । १ बागवेष-उपरी रूप । २ वोतल बाटली । ३ मनुष्य ।
४पानी।
।
।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
. विरागभावना । गुरनुकूल चालै नहीं, चालै सुते-सुभाय । सो नहिं पावै थानकों, भववनमें भरमाय ॥४७॥ क्लेश मिट्टै आनँद रहे, लामै सुगम उपाय । गुरुको पूछिर चालतां, सहज थान मिल जाय ॥४८॥ तन मन धन सुख संपदा, गुरुपे डालं वार । भवसमुद्रते इवता, गुरु ही कादनहार ।। ४९ ।। स्वारथके जग जन हितू, विन स्वारथ तन देत । नीच ऊंच निरखें न गुरु, जीवजातः हेत ॥ ५० ॥ व्योत पर हित करत है, तात मात सुत भ्रात । सदा सर्वदा हित करें, गुरुके मुखकी बात ।। ५१ ॥ गुरु समान संसारम, मात पिता सुत नाहिं। गुरु तो तार सर्वथा, ए घोर भवमाहिं ।। ५२ ।। गुरु उपदेश लहे विना, आप कुशल है जात । ते अजान क्यों टारि है, करी चतुरकी धात ॥ ५३॥ जहां तहां मिलिजात है, संपति तिय सुत भ्रात । बड़े भागते अति कठिन, सुगुरु कहीं मिल जात ।।५४॥ पुस्तक बांची इकगुनी, गुरुमुख गुनी हजार । तातें बड़े तलाशते, मुनिजे वचन उचार ।। ५५ ॥ गुरु वानी अमृत झरत, पी लीनी छिनमाहि । अमर भया ततखिन सु तो, फिर दुख पावै नाहि ॥५६॥
१ स्वतः स्वभाव-अपने आप। २ पूछकरके । ३ चतुर पुरषोंकी की हुई चोट-आक्षेपको कैसे टालेंगे?
-
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुधजन-सतसई
भली भई नरगति मिली, सुनै सुगुरुके वैन । दाह मिट्या उरका अबै, पाय लई चित चैन ॥ ५७॥ क्रोध वचन गुरुका जदपि, तदपि सुखांकरि धाम । जैसैं भानु दुपहरका, सीतलता परिणाम ॥ ५८॥ परमारथका गुरु हितू , स्वारथका संसार। सब मिलि मोह बढ़ात हैं, सुत तिय किंकर यार ॥ ५९॥ तीरथ तीरथ क्यौं फिर, तीरथ तौ घटमाहिं । जे थिर हुए सो तिर गये, अथिर तिरत हैं नाहि ॥६०॥ कौन देत है मनुष भव, कौन देत है राज । याके पहचानें विना, झूठा करत इलाज ॥ ६१ ।। प्रात धर्म फुनि अर्थरुचि, काम करै निसि सेव । रुचै निरंतर मोक्ष मन, सो मानुप नहिं देव ॥ ६२॥ ! संतोषामृत पान करि, जे हैं समतावान । तिनके सुख सम लुब्धकौं, अनंत भाग नहिं जान ॥६३।। लोभ मूल है पापको, भोग मूल है व्याधि । हेत जु मूल कलेशको, तिहूं त्यागि सुख साधि ॥ ६४॥ हिंसातें है पातकी, पातकर्ते नैरकाय । नरक निकसिहै पातकी, संतति कठिन मिटाय ॥६५॥ ५ हिंसकको बैरी जगत, कोइ न करै सहाय । मरता निबल गरीब लखि, हर कोइ लेत बचाय ॥ ६६ ॥
- १ लोभीको । २ मोह । ३ नरकायु-नरककी थिति ।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरागभावना ।
अपर्ने भाव विगाड़तें, निहचे लागत पाप । पर अकाज तो हो न हो, होत कलंकी आप ॥ ६७॥ जितौ पाप चितचाहसौं, जीव सताए होय । आरंभ उद्यमको करत, तातै थोरी जोय ॥ ६८॥ ये हिंसाके भेद हैं, चोर चुगल विभिचार । क्रोध कपट मद लोभ फुनि, आरंभ असत उचार ॥६९॥ चोर डरे निद्रा तजे, कर हैं खोट उपाय । नृप मार मारै धनी, परभी नरकां जाय ।। ७० ॥ छाने पर चुगली करें, उजल भेष बनाय । ते तो युगला सारिखे, पर अकाज करि खाँय ।। ७१ ॥ लाज धर्म भय ना करें, कामी कुकर एक । भेनं मानजी नीचकल. इनके नाहिं विवेक || ७२॥ नीति अनीति लखें नहीं, लखै न आपविगार । पर जारे आपन जरे, क्रोध अगनिकी मार ॥ ७३ ॥ तन मृधे मधे वचन, मनमै राखें फेर । अगनि ढकी तो क्या हुआ, जारत करत न बेर ॥७४॥ कुल ब्योहारका तज दिया, गग्बीले मनमाहिं । अवसि परेंगे कप ते, जे मारगमें नाहिं ।। ७५ ।। बाहिर चुगि शुरु उड़ गये, ते तो फिर खुस्याल । अति लालच भीतर धसे, ते शुक उलझे जाल ॥ ७६ ॥
१ छुप करके । २ वहिन । ३ तोते ।
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२
बुधजन-सतसई
आरॅम विन जीवन नहीं, आरॅभमाही पाप । तातें अति तजि अलप सो, कीजै विना विलाप ।। ७७॥ असत वैन नहिं बोलिये, नातें होत विगार | वे असत्य नहिं सत्य है, जातें उपकार ॥ ७८ ॥ क्रोधि लोभि कामी मदी, चार सूझते अंध ! इनकी संगति छोड़िये, नहिं कीजे सनबंध ।। ७९ ।। झूठ जुलम जालिम जबर, जलद जंगमैं जान । जक न धरै जगमें अजस, जूआ जहर समान ॥ ८० ॥ जाकौं छीवत चतुर नर, डरें करें हैं न्हान । इसा मासका ग्रासतें, क्यों नहिं करौ गिलान ।। ८१॥ मदिरासे मदमत्त है, मदत होत अज्ञान । ज्ञान विना सुत मातकौं, कहै भामिनी मान ।। ८२ ॥ गान तान लै मानक, हरै ज्ञान धन प्रान । सुरापान पैलखानकों, गनिका रचत कुध्यान ॥ ८३ ॥ तिन चावै चावै न धन, नागे कांगे जान । नाहक क्यौ मारै इन्हैं, सब जिय आप समान ॥ ८४ ॥ नप डंडे भंड जनम खंड धर्म र ज्ञान ।। कुल लाजै भाजै हितू , विसन दुखांकी खान ॥ ८५ ॥ बड़े सीख वकवौ करें, विसनी ले न विवेक । जैसे वासन चीकना, बूंद न लागे एक ॥ ८६॥
१ स्नान । २ मास खानेको । ३ तृण-घास । ४ वर्तन ।
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरागभावना।
-
-
मार लोभ पुचकारते, विसनी तर्ज न फैल । जैसे टट्ट अटकला, चलें न सीधी गैल ॥ ८७ ॥ अपरले मनतें कर, विसनी जन कुलकाज । ब्रह्मसुरत भूल न ज्यों, काज करत रिखिराज ॥ ८८॥ विसन हलाहलते अधिक, क्योंकर सेत अज्ञान । विसन विगाई दोय भव, जहर हरै अब प्रान ॥ ८९ ॥ नरभव कारण मुक्तका, चाहत इंद्र फनिंट । ताको खोवत विसनम, सो निंदनमें निंद ॥ ९० ॥ जैसो गादौ विसनमें, तैसौ ब्रह्मसौं होय । जनम जनमके अघ किये, पलमै नासै धोय ॥ ९१ ॥ कीने पाप पहार से, कोटि जनममैं भूर । अपना अनुभव वनसम, कर डाले चकचूर ॥ ९२ ॥ हितकरनी धरनी सुजस, भयहरनी सुखकार । तरनी भवदधिकी दया, वरनी पटमत सार ।। ९३ ।। दया करत सो तात सम, गुरु नृप भ्रात समान । दयारहित जे हिंसकी, हरि अहि अगनि प्रमान ॥९४॥ पंथ सनातन चालजे, कहजे हितमित वैन । अपना इष्ट न छोड़जे सँहजे चैन अचैन ।। ९५ ॥
१ अड़नेवाला घोडा । २ ऋषीश्वर । ३ सेवन करते हैं। ४ चलिये । ५ कहिये । ६ छोड़िये । ७ सहिये । ।
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४
बुधजन-सतसई
कविप्रशस्ति । मधि नायक सिरपैंच ज्यौं, जैपुर मधि ढूंढार | नृप जयसिंह सुरिंद तहां, पिरजाको हितकार ॥ ९६॥ की. वुधजन सातसै, सुगम सुभापित हेर । सुनत पढ़त समझै सरव, हरै कुबुधिका फेर ॥ ९७ ॥ संवैत ठारासै असी, एक वरसते घाट । जेठ कृष्ण रवि अष्टमी, हवौ सतसइ पाठ ॥ ९८ ॥ पुन्य हरत रिपुकष्टकौं, पुन्य हरत रुज व्याधि । पुन्य करत संसार सुख, पुन्य निरंतर साधि ॥ ९९ ॥ भूख सही दारिद सहौ, सही लोक अपेकार । निंदकाम तुम मति करो, यहै ग्रंथको सार ७०० ग्राम नगर गढ़ देशमै, राजप्रजाके गेह । पुन्य धरम होवो करै, मंगल रहौ अछेह ॥ ७०१॥ ना काहूकी प्रेरना, ना काहूकी आस । अपनी मति तिखी करन, वरन्यौ वरनविलास ॥ ७०२ ॥
EFORE
समाप्तोऽयं ग्रन्थः।
ATE24.
१ जेठ वदी ८ सवत् १८७९ । २ अपमान-तिरस्कार।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
_