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देवानुरागशतक। जोग अजोग लखौ मती, मो व्याकुलके वैन । करुना करिके कीजियो, जैसे तैसें चैन ।।७६॥ मेरी अरजी तनक सी, बहुत गिनोगे नाथ । अपना विरद विचारिकै, चूड़त गहियौ हाथ ||७७॥ मेरे औगुन जिन गिनौ, मैं औगुनको धाम । पतितउधारक आप हो, करौ पतितको काम ||७८॥ सुनी नहीं औजूं कहूं, विपति रही है घेर ।
औरनिके कारज सरे, ढील कहा मो वेर ॥७९॥ सार्थवाहि विन ज्यों पथिक, किमि पहुंचे परदेस । त्यों तुमत करि हैं भविक, सिवपुरमैं परवेस ॥८॥ केवल निर्मलज्ञानमैं, प्रतिबिंवित जग आन । जनम मरन संकट हरयो भये आप रतध्यान ॥८१॥ आपमतलवी ताहितै, कैसे मतलब होय । तुम विनमतलब हो प्रभू, कर हौ मतलब मोय ॥८२॥ कुमति अनादी सॅगि लगी, मोह्यौ भोग रचाय । याको कोलौं दुख सहूं, दीजै सुमति जगाय ||८३।। भववनमाही भरमियो, मोह नींदमैं सोय । कर्म ठिगौरे ठिगत हैं, क्यों न जगावौ मोय ॥४॥ दुख दावानलमैं जलत, घनै कालको जीव । निरखत ही समता मिली, भली सुखांकी सीवें ॥८५॥ १अौं -अभीतक । २ कब तक । ३ ठग । ४ सीमा हद्द ।