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बुधजन-सतसईमो ममता दुखदा तिनै, मानत हूँ हितवान । मो मनमाही उलटि या, सुलटावों भगवान ।।८६॥ लाभ सर्व साम्राज्यका (१) वेदयता (१) तुम भक्त । हित अनहित समझ नहीं, तातै भये असक्त ॥८७॥ विनयवान सर्वस लहै, दहै गहै तो गर्व । आप आपमैं हौ तदपि, व्याप रहे हौ सर्व ॥८८॥ मैं मोही तुम मोह विन, मैं दोपी तुम सुद्ध । धन्य आप मो घट बसे, निरख्यौ नाहिं विरुद्ध ॥८९॥ मैं तो कृतकृत अब भया, चरन सरन तुम पाय । सर्व कामना सिद्ध भई, हर्ष हियै न समाय ॥९॥ मोहि सतावत मोह जुर, विषम अनादि असाधि । वैद अतार हकीम तुम, दूरि करौ या व्याधि ॥११॥ परिपूरन प्रभु विसरि तुम, नमूं न आन कुठोर । ज्यौं त्यौं करि मो तारिये, विनती कर निहोर ॥१२॥ दीन अधम निरबल स्टै, सुनिये अधम उधार । मेरे औगुन जिन लखौ, तारौ विरद चितार ॥१३॥ करुनाकर परगट विरद, भूले पनि है नाहि ।। सुधि लीजै सुव कीजिये, दृष्टि धार मो-माहि ॥१४॥ एही वर मो दीजिये, जांचू नहिं कुछ और । अनिमिष दृग निरखत रहूं, सान्त छवी चितचोर ॥१५॥ । १ मोह । २ मुझको । ३ शुद्ध ।