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बुधजन सतसईधरि विसुद्धता भाव निज, दई असाता खोय । क्षुधा तृपा तुम परिहरी, जैसे करिये मोय ॥ २५ ॥ त्यागि बुद्धि-पग्जायक, लखे सर्व समभाय । राग दोप ततखिन टरचौ, राचे महज सुभाय ॥२६॥ मी ममता वमता भया, समता आतभराम । अमर अजन्मा होय सिच, जायला विसराम ॥ २७ ॥ हेत प्रीति सबसों तज्या, मगन निजातममाहि । रोग सोग अब क्यों बने, खाना पीना नाहि ॥ २८ ॥ जागि रहे निज ध्यानमैं, धरि वीरज बलबान । आवै किमि निद्रा जरा, निरखेदक भगवान ॥ २९ ॥ जातजीवतै अधिक बल, सुथिर सुखी निजमाहिं। वस्तु चराचर लखि लई, भय विसमै यौं नाहिं ॥ ३०॥ तत्वारथसरधान धरि, दीना मोह विनास ।। मान हान कीना प्रगट, केवलज्ञानप्रकास ॥ ३१ ॥ अतुल सक्ति परगट भई, राजत हैं स्वयमेव । खेद स्वेद विन थिर भये, सब देवनके देव ॥ ३२ ॥ परिपूरन हो सब तरह, करना रह्या न काज । आरत चिन्ता” रहित, राजत हौ महाराज ॥ ३३ ॥ बीजे अनंता धरि रहे, सुख अनंतपरमान । दरस अनंत प्रमानजुत, भया अनंता ज्ञान ॥ ३४ ॥
१ पर्यायबुद्धिको । २ समभाव-सबको एक भावसे । ३ मोह । ४ विस्मय-आश्चर्य।
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