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देवानुरागशतक। आन थान अब ना रुचै, मन राच्यौ तुम नाथ । रतन चिंतामनि पायकै, गहै काच को हाथ ॥ १५ ॥ चंचल रहत सदैव चित, थक्यौ न काहू ठोर । अचल भयौ इकटक अवै, लग्यौ रांबरी ओर ॥ १६ ॥ मन मोह्यौ मेरी प्रभू, सुन्दर रूप अपार। इन्द्र सारिखे थकि रहे, करि करि नैन हजार ॥ १७ ॥ जैसे भानुप्रतापते, तम नासे सब ओर । तैसे तुम निरखत नस्यौ संशयविभ्रम मोर ॥ १८ ॥ धन्य नैन तम दरस लखि थनि मस्तक लसि पॉय। श्रवन धन्य वानी सुने. रसनाधनि गनगाय ॥ १९॥ धन्य दिवस धनि या घरी. धन्य भाग मझ आज । जनम सफल अव ही भयो, बंदत श्रीमहाराज ॥ २० ॥ लखि तुम छवि चितचोरको, चकित थकित चित चोर। आनंद पूरन भरि गयौ, नाहिं चाहि रहि और ॥ २१ ॥ चित चातक आतुर लखै, आनंदघन तुम ओर वचनामृत पी वृप्त भौ, तृपा रही नहिं और ॥ २२ ॥ जैसौ वीरेंज आपमै, तैसौ कहूँ न और । एक ठौर राजत अचल, व्याप रहै सब ठौर ॥ २३ ॥ यो अद्भुत ज्ञातापनो, लख्यौ आपकी जाग । भली बुरी निरखत रहौ, करौ नाहिं कहुं राग ॥ २४ ॥
१ आपकी । २ पराक्रम।