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बुधजन-सतसईरसना रखि मरजादि तू, भोजन वचन प्रमान । अति भोगति अति बोलते, निह होहै हान ॥१७॥ वन वसि फल भखिवी भलो, मीनत भली अजान । भलो नहीं बसिवौ तहां, जहां मानकी हान ॥१८॥ जहां कछु प्रापति नहीं, है आदर वा धाम | थोरे दिन रहिये तहां, सुखी रहैं परिनाम ॥१९॥ उद्यम करवौ तज दियौ, इंद्री रोकी नाहिं । पंथ चलें भूखा रहैं, ते दुख पावे आहिं (१) ॥२०॥ समय देखिकै बोलना, नातरि आछी मौन । मैना सुख पकरै जगत, बुंगला पकरै कौन ॥२१॥ जाका दुरजन क्या करें, छमा हाथ तरवार । विना तिनांकी भूमिपर, आगि बुझै लगि वार ॥२२॥ बोधत शास्त्र सुबुधि सहित, कुवुधी बोध लहै न । दीप प्रकास कहा करै, जाके अंधे नैन ॥२३॥ परउपदेस करन निपुन, ते तो लखे अनेक । करें सैमिक वोलें समिक, जे हजारमैं एक ॥२४॥ विगड़े करें प्रमादतें, बिगड़े निपट अग्यान । विगडै वास कुवासमैं, सुधरै संग सुजान ॥२५॥ वृद्ध भये नारी मरै, पुत्र हाथ धन होत । बंधू हाथ भोजन मिले, जीनैः वर मौत ॥२६॥
१ मिहनत-मजदूरी । २ बकपक्षी । ३ तृणको । ४ सम्यक्-उत्तम।