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बुधजन-सतसईया भववन अति सघनमैं, मारग दीख नाहि । तुम किरपा ऐसी करी, भास गयौ मनमाहि ॥४६॥ जे तुम मारगमैं लगे, सुखी भये ते जीव । जिन मारग लीया नहीं, तिन दुख लीन सदीच ॥४७॥
और सकल स्वारथ-सगे, विनस्वारथ हो आप । पाप मिटावत आप हौ, और बढ़ावत पाप ॥४८॥ या अद्भुत समता प्रगट, आपमाहिं भगवान । निंदक सहजै दुख लहै, चंदक लहै कल्यान ॥४९॥ तुम वानी जानी जिको, पानी ज्ञानी होय । सुर अरचे संचै सुभग, कलमप काटें धोय ॥५०॥ तुम ध्यानी पानी भय, सबमैं मानी होय । फुनि ज्ञानी ऐसा वन, निरख लेत सब लोय ॥५१॥ तुम दरसक देख जगत, पूजक पूर्जे लोग। सेवै तिहि सेवै अमर, मिलें सुरगके भोग ॥५२॥ ज्यौं पारसत मिलत ही, करि ले आप प्रमान । त्यौं तुम अपने भक्तकौं, करि हो आप समान ॥५३॥ जैसा भाव करै तिसा, तुमतें फल मिलि जाय । तैसा तन निरखै जिसा, सीसामैं दरसाय ॥५४॥ जब अजान जान्यौ नहीं, तब दुख लह्यौ अतीव । अब जानै मानै हियँ, सुखी भयौ लखि जीव ॥५५॥
१ जिन्होंने । २ पाप । ३ लोक ।