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उपदेशाधिकार।
३७. विन परिख्या संयां कई, मृह न बान गहाय । अंधा बांटे जेवरी, सगरी बछग साय ॥३५॥ बोलते जाने पर, मृरख विद्यावान । कांसी रूपेकी प्रगट, बाजे होत पिछान ॥३६॥ ऊंचे कुलके सुत पर्दै, पढ़ें न मृह गमार । धुरसल तो क्या हुन भने, मैना भने अपार ॥३७॥ मारग अर भोजन उदर, धन विद्या उरमाहि । मन सन ही आत है. उकटा आवत नाहि ॥ ३८ ॥ नित प्रति कुछ दीया किया, कार्ट पाप पहार । किसत माहि देवों किय, उतर कग्ज अपार ॥३९॥ वृद्ध भये ह ना धरै, क्यों विगग मनमाहिं । जे बहने कमें बच, लकही गहने नाहि ॥४०॥ विन कलमप निरभ जिके, ते तिरज है तीर । पोली घट मधी सटा, क्या करि घुड़े नीर ॥४१॥ दुर्जन सज्जन होत नहिं, गसौ तीरथवास ।
मेला क्या न कपूर, हींग न होय सुवास ॥४२॥ ' मुखते जाप किया नहीं, किया न करतै दान |
सदा भार बहते फिर, ते नर पशु समान ॥४३॥ । स्वामि काममै टरि गये, पायो हक भरपूर । आगे क्या कहि छटसी, पूछे आप हुजूर ॥४४॥
१परखे विना। २ पाठ-सवक । ३ एक प्रकारका पक्षी। ४ शनैः शनैः, धीरे-धीरे।
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