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बुधजन-सतसईकोविद रहैं संतोपचित, भोजन धन निज दार। पठन दान तप करनमें, नाहीं तुपति लगार ॥५८॥ विद्या संग्रह धान धन, करत हार व्योहार। अपन प्रयोजन साधत, त्यागें लाज सुधार(?) ॥५९॥ दोय विप्रमधि होम पुनि, सुंदर जुग भरतार । मंत्री नप मसलत करत, जातें होत विगार ॥६॥ वारि अगनि तिय मूढजन, सर्प नृपति रुंज देव । अंत प्रान नासै तुरत, अजतन करते सेव ॥६॥ गज अंकुश हय चावुका, दुष्ट खड़ग गहि पान । लकरीत शृंगीनकुं, बसि राखें बुधिवान ॥६२॥ वसि करि लोभी देय धन, मानीकौं कर जोरि । मूरख जन विकथा वचन, पंडित सांच निहोरि ॥६॥ भूपति वसि है अनुग वन, जोवत तन धन नार । ब्राह्मण वसि है वेदतें, मिष्टवचन संसार ॥ ६॥ अधिक सरलता सुखद नहि, देखो विपिन निहार । सीधे विरवा कटि गये, बॉके खरे हजार ॥६५॥ जो सपूत धनवान जो, पनजुत हो विद्वान । सब बांधव धनवानके, सरव मीत धनवान ॥६६॥
1 १ सुधार-यहां सुधी वा बुद्धिमानका मतलव होना चाहिये। २ रोग । ३ अयत्नसे-विना विचारे । ४ सींगवालोको। ५,जंगल । ६ वृक्ष।