________________
सुभापितनीति। नहीं मान कुलरूपको, जगत मान धनवान । लखि चॅडालके विपुल धन, लोक करें सनमान ॥१७॥ संपतिके सब ही हितू . विपढामें मर दूर । मृखौ मर पंखी तज, से जलते पूर ॥६८॥ तज नारि सुत बंधु जन, दारिद आयें साथि । फिरि आमद लखि आयकै मिलि है बांधावथि ।।६९॥ संपति माय घट बढे, भरत बुधि बल धीर । ग्रीपम सर सोभा हरे, सोह वरमत नीर ॥७॥ पटभूपन मोह सभा, धन द मोह नारि । खेती होय दरिद्रते (१), सज्जन भो मनुहार (2) ॥७॥ धर्महानि संक्लेश अति, शत्रुविनयकरि होय । एमा धन नहि लीजिये, भूखे रहिये सोय ॥७२॥ धीर सिथिल उदमी चपल, मूरस सहित गुमान | दोप धनदके गुन कहे, निलज सग्लचितवान ॥७३॥ काम छोरि मा जीमजे, न्हाजे छोरि हजार । लाख छोरिक दान करि, जपिजे वारंवार ॥७४॥ गुरु राजा नट भट वनिक, कुटनी गनिका थान । इन माया मति करी, ये मायाकी खान ॥७५॥ खोटीसंगति मति करी, पकरी गुरुका हाथ । कगै निरन्तर दान पुनि, लखौ अथिर सब साथ ॥७६॥
१ श्रालिंगन करके।