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सुभाषितनीति । परघरवास विदेसपथ, मृग्ख मीत मिलाप । जोवनमाहिं दरिद्रता, क्या न होय संताप ॥६५॥ घाम पगया बत्र पर, परमय्या पग्नारि । परवर बसियो अधम ये, न्याग विबुध विचारि ॥६६।। हुन्नर हाय अनालसी, पढ़िवी, करिबी मीत । सील, पंच निधि ये असय. गम्ये रहा नंचीत ॥६॥ कष्ट समय रनके ममय, दुरभिस अर भय घोर । दुरजनकृत उपनगम, बच विवध कर जोर ॥६८|| धरम लई नहिं दृष्टचित, लोभी जस किम पाय । भागहीनको लाम नहिं, नहिं आपधि गर्ते-आय ॥६९॥ दृष्ट मिलत ही माधुजन, नहीं दुष्ट है जाय । चंदन तरुको मर्प लगि, विप नहिं देत बनाय ||७०॥ सोक हन्त ई बुद्धिको, मोक हरत है धीर । सोक हरत है धर्मको, मोक न कीज वीर ॥७१॥ अस्व मुंपत गज मस्त ढिग, नृप भीतर रनवास । प्रथम व्यायली गाय ढिग, गये प्रानका नास ॥७२॥ भूपति विमनी पाहना. जाचक जड़ जमराज । ये परदुख जावे नहीं, कीयाँ चाहें काज ७३॥
१ कलाकौशल्य । २ निश्चिन्त-बेफिकर । ३ दुर्भिक्षअकाल । ४ गतायु-जिमकी आयु वाकी न रही हो, उसको। ५ मोता हया (१)।६ देखते नहीं हैं। .