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बुधजन-सतसईसंमदर भरया अपार जल, आवै पात्र प्रमान ॥६५॥ पंडित हू रोगी भये, व्याकुल होत अतीव । देखो वनमें विन जतन, केस जीवत जीव ॥६६॥ कहे वचन फेर न फिरे, मृरखके मन टेक । अपने कहे सुधार लै, जिनके हिये विवेक ।।६७॥ लखि अजोगि विचछन मुरे, दुरजन नेकु टरेन । हरयो काठ मोरत मुरै, मुखौ फटै मुरै न ॥६८॥ चिर सीख्यौ सुमरत रहत, तदपि विसर जा सुद्धि । पंडित मूरख क्या करे, भावी फेरै बुद्धि ॥६९॥ सायर संपति विपतिमें, राखे धीरज ज्ञान । कायर व्याकुल धीर ताज, सहे वचन अपमान ||७०॥ कहा होत व्याकुल भये, होत न दुखकी हान । रिपु जीत हार धरम, फैले अजस कहान ॥७॥ दुखमैं हाय न बोलिये, मनमैं प्रभुको ध्याय । मिटै असाता मिट गये, कीजै जोग उपाय ॥७२॥ कर न अगाऊ कलपना, कर न गईकौं याद । सुख दुख लो वरतत अवै, सोई लीजे साध ॥७३॥ कवह आभूपन वसन, भोजन विविध तयार। कबहूँ दारिद जौ-असन, लीजै ममता धार ॥७॥ धूप छांह ज्यौं फिरत है, संपति विपति सदीव । हरष शोक करि फॅसत क्यों, मूढ़ अज्ञानी जीव ॥७५॥
१ समुद्र । २ विद्वान । ३ साहसी । ४ जौका भोजन ।
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