Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 54
________________ ४० बुधजन-सतसईसंमदर भरया अपार जल, आवै पात्र प्रमान ॥६५॥ पंडित हू रोगी भये, व्याकुल होत अतीव । देखो वनमें विन जतन, केस जीवत जीव ॥६६॥ कहे वचन फेर न फिरे, मृरखके मन टेक । अपने कहे सुधार लै, जिनके हिये विवेक ।।६७॥ लखि अजोगि विचछन मुरे, दुरजन नेकु टरेन । हरयो काठ मोरत मुरै, मुखौ फटै मुरै न ॥६८॥ चिर सीख्यौ सुमरत रहत, तदपि विसर जा सुद्धि । पंडित मूरख क्या करे, भावी फेरै बुद्धि ॥६९॥ सायर संपति विपतिमें, राखे धीरज ज्ञान । कायर व्याकुल धीर ताज, सहे वचन अपमान ||७०॥ कहा होत व्याकुल भये, होत न दुखकी हान । रिपु जीत हार धरम, फैले अजस कहान ॥७॥ दुखमैं हाय न बोलिये, मनमैं प्रभुको ध्याय । मिटै असाता मिट गये, कीजै जोग उपाय ॥७२॥ कर न अगाऊ कलपना, कर न गईकौं याद । सुख दुख लो वरतत अवै, सोई लीजे साध ॥७३॥ कवह आभूपन वसन, भोजन विविध तयार। कबहूँ दारिद जौ-असन, लीजै ममता धार ॥७॥ धूप छांह ज्यौं फिरत है, संपति विपति सदीव । हरष शोक करि फॅसत क्यों, मूढ़ अज्ञानी जीव ॥७५॥ १ समुद्र । २ विद्वान । ३ साहसी । ४ जौका भोजन । - -

Loading...

Page Navigation
1 ... 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91