Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 65
________________ - उपदेशाधिकार वेश्यानिषेध । चरमकार वेचीमुता, गनिझा लीनी मोल । ताकी सेवत मृदृजन, धर्म कर्म दे खोल ॥७३॥ हीन दीनत लीन है, सेती आ मिलाय । लेती सम्बस नंपडा, दती गंग लगाय ||७|| जे गनिका सँग लीन हैं, सर्व तरह ते हीन । तिनके करने सावना, धर्म कर्म कर छीन ॥७॥ सातां पीतां मोवतां, करतां सब व्योहार । गनिका उर बसिौ कर, करतब कर असार ||७|| घन खरंच ताली रच, हीन, खीन तज देत । विसनीका मन ना मुँर, फिरता फिर अचेत ॥७॥ द्विज खत्री कोली वनिक, गनिका चाखत लॉल । ताको सेवत मृढजन, मानत जनम-निहाल ||७८॥ 'शिकारकी निन्दा । जैसे अपने प्रान है, तेसे परके जान । कसे हन्ते दुष्ट जन, विना वर परसान ||७|| निग्जन वन घनमै फिरें, और भूख भय हान । दसत ही धूंमत छुरी, निग्दइ अधम अजान ।।८०॥ दृष्ट सिंह अहि मारिये, वाम का अपराध । प्रान पिया सबनिकी, याही मोटी बाँध ॥८॥ १ चमार-मोची । २ मेवन करती है। ३ व्यसनीका । ४ लौटता है।५लालायालार।६सफलाण्वाधा-अड़चन,दोप। -- - -

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