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विरागभावना। नहिं पोप सोपत रहै, तब तू होय निसंग ॥२९॥ तन तो कांगगार है, मुत परिकर रसनार । यो जान भान न दुस, मान हितू गॅबार ॥३०॥ या दीरय मंसारम, मुवा अनंती वार । एक बार नानी मरे, मग न दूनी बार ॥३१॥ देह न मरता न त, ती काहेकी हान | जो मृग तू मरत है, तो ये जान कल्यान ॥३२॥ जीग्न तजि नृतन गह, परगट रीति जहान । तसे तन गहना तजन, बुधजन मुसी न हान ॥३३॥ लेत मी देता दी, यह करजकी रीति । लेन नहीं मो टे कहा, मुस दुस बिना नचीत ॥३४॥ म्याग्य परमाग्य विना, मृग्य करत विगार । कहा कमाई करत है, गुंडी उडावनहार ॥३५॥ महज मिली लेपि ना गह, कर विपतके काम | चीपर रचि खेल लर, लेत नहीं मुस राम ॥३६॥ नगम होरी हो रही, छार उड़त मत्र ओर। बाम गये बचा नहीं, वचनी अपनी ठोर ॥३७॥ नगजानकी विपर्गत गनि, हरपत होत अकाज । होरीमै धन दे नचं, बनि भया तजि लाज ॥३८॥
१ जेलखाना । २ ग्रहण करना। ३ पतंग उड़ानेवाला। ४ लक्ष्मी ५ वाह-बाहिर।