Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 88
________________ ७२ बुधजन-सतसई आरॅम विन जीवन नहीं, आरॅभमाही पाप । तातें अति तजि अलप सो, कीजै विना विलाप ।। ७७॥ असत वैन नहिं बोलिये, नातें होत विगार | वे असत्य नहिं सत्य है, जातें उपकार ॥ ७८ ॥ क्रोधि लोभि कामी मदी, चार सूझते अंध ! इनकी संगति छोड़िये, नहिं कीजे सनबंध ।। ७९ ।। झूठ जुलम जालिम जबर, जलद जंगमैं जान । जक न धरै जगमें अजस, जूआ जहर समान ॥ ८० ॥ जाकौं छीवत चतुर नर, डरें करें हैं न्हान । इसा मासका ग्रासतें, क्यों नहिं करौ गिलान ।। ८१॥ मदिरासे मदमत्त है, मदत होत अज्ञान । ज्ञान विना सुत मातकौं, कहै भामिनी मान ।। ८२ ॥ गान तान लै मानक, हरै ज्ञान धन प्रान । सुरापान पैलखानकों, गनिका रचत कुध्यान ॥ ८३ ॥ तिन चावै चावै न धन, नागे कांगे जान । नाहक क्यौ मारै इन्हैं, सब जिय आप समान ॥ ८४ ॥ नप डंडे भंड जनम खंड धर्म र ज्ञान ।। कुल लाजै भाजै हितू , विसन दुखांकी खान ॥ ८५ ॥ बड़े सीख वकवौ करें, विसनी ले न विवेक । जैसे वासन चीकना, बूंद न लागे एक ॥ ८६॥ १ स्नान । २ मास खानेको । ३ तृण-घास । ४ वर्तन ।

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