Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 86
________________ बुधजन-सतसई भली भई नरगति मिली, सुनै सुगुरुके वैन । दाह मिट्या उरका अबै, पाय लई चित चैन ॥ ५७॥ क्रोध वचन गुरुका जदपि, तदपि सुखांकरि धाम । जैसैं भानु दुपहरका, सीतलता परिणाम ॥ ५८॥ परमारथका गुरु हितू , स्वारथका संसार। सब मिलि मोह बढ़ात हैं, सुत तिय किंकर यार ॥ ५९॥ तीरथ तीरथ क्यौं फिर, तीरथ तौ घटमाहिं । जे थिर हुए सो तिर गये, अथिर तिरत हैं नाहि ॥६०॥ कौन देत है मनुष भव, कौन देत है राज । याके पहचानें विना, झूठा करत इलाज ॥ ६१ ।। प्रात धर्म फुनि अर्थरुचि, काम करै निसि सेव । रुचै निरंतर मोक्ष मन, सो मानुप नहिं देव ॥ ६२॥ ! संतोषामृत पान करि, जे हैं समतावान । तिनके सुख सम लुब्धकौं, अनंत भाग नहिं जान ॥६३।। लोभ मूल है पापको, भोग मूल है व्याधि । हेत जु मूल कलेशको, तिहूं त्यागि सुख साधि ॥ ६४॥ हिंसातें है पातकी, पातकर्ते नैरकाय । नरक निकसिहै पातकी, संतति कठिन मिटाय ॥६५॥ ५ हिंसकको बैरी जगत, कोइ न करै सहाय । मरता निबल गरीब लखि, हर कोइ लेत बचाय ॥ ६६ ॥ - १ लोभीको । २ मोह । ३ नरकायु-नरककी थिति ।

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