Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 85
________________ . विरागभावना । गुरनुकूल चालै नहीं, चालै सुते-सुभाय । सो नहिं पावै थानकों, भववनमें भरमाय ॥४७॥ क्लेश मिट्टै आनँद रहे, लामै सुगम उपाय । गुरुको पूछिर चालतां, सहज थान मिल जाय ॥४८॥ तन मन धन सुख संपदा, गुरुपे डालं वार । भवसमुद्रते इवता, गुरु ही कादनहार ।। ४९ ।। स्वारथके जग जन हितू, विन स्वारथ तन देत । नीच ऊंच निरखें न गुरु, जीवजातः हेत ॥ ५० ॥ व्योत पर हित करत है, तात मात सुत भ्रात । सदा सर्वदा हित करें, गुरुके मुखकी बात ।। ५१ ॥ गुरु समान संसारम, मात पिता सुत नाहिं। गुरु तो तार सर्वथा, ए घोर भवमाहिं ।। ५२ ।। गुरु उपदेश लहे विना, आप कुशल है जात । ते अजान क्यों टारि है, करी चतुरकी धात ॥ ५३॥ जहां तहां मिलिजात है, संपति तिय सुत भ्रात । बड़े भागते अति कठिन, सुगुरु कहीं मिल जात ।।५४॥ पुस्तक बांची इकगुनी, गुरुमुख गुनी हजार । तातें बड़े तलाशते, मुनिजे वचन उचार ।। ५५ ॥ गुरु वानी अमृत झरत, पी लीनी छिनमाहि । अमर भया ततखिन सु तो, फिर दुख पावै नाहि ॥५६॥ १ स्वतः स्वभाव-अपने आप। २ पूछकरके । ३ चतुर पुरषोंकी की हुई चोट-आक्षेपको कैसे टालेंगे? -

Loading...

Page Navigation
1 ... 83 84 85 86 87 88 89 90 91