Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 83
________________ विरागभावना। ६७ परंपरा आगम निगुन, गुरु निग्रंथ विसाल ||२८|| सत्रु मित्र लोहा कनक, सुख दुख मानिक कांच । लाभ अलाभ ममान मब, ऐसे गुरु लखि गच ॥२९॥ मारक उपकारक खरे, पूछ बात विसेम । दोडनको मम हित कर, कर मुगुरु उपदेस ॥३०॥ मुग्पति नापति नागपति, बमुविधि दर्व मिलाय । पूज वसु करमन हरन, आय मुगुरुके पाय ॥३१॥ सत्य क्षमा निग्लोभ ब्रह्म, मरल सलज विनमान | निगममता त्यागी ढमी, धर्म अंग ये जान ॥३२॥ हिंमा अनृत तसकरी, अब्रह्म परिग्रह पाप । दम अलय मत्र त्यागिवा, घरम दोय विधि थाप॥३३॥ धर्म क्षमादिक अंग दश, धर्म दयामय जान | दरमन नान चरित घरम, धरम तयसरधान ॥३४॥ इते धरमके अंग सब, इनका फल सिवधाम । धर्म मुभाव जु आतमा, धरमी आतमराम ॥३५॥ अधरम फेरत चतुग्गति, जनम मरन दुखधाम । धरम उद्धरन जगतमै, थाप अविचल ठाम ॥३६॥ गुरुमुस सुन गाड़ी रह्यो, त्यागौं वायस-मास । सो श्रेणिक अब पायसी, तीर्थकर शिववास ॥३७॥ १ एक देश त्याग और सर्वथा त्याग अर्थात् अणुव्रत और महानत ।२ कोएका मांस । ३ पावेंगे। ।

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