Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 89
________________ विरागभावना। - - मार लोभ पुचकारते, विसनी तर्ज न फैल । जैसे टट्ट अटकला, चलें न सीधी गैल ॥ ८७ ॥ अपरले मनतें कर, विसनी जन कुलकाज । ब्रह्मसुरत भूल न ज्यों, काज करत रिखिराज ॥ ८८॥ विसन हलाहलते अधिक, क्योंकर सेत अज्ञान । विसन विगाई दोय भव, जहर हरै अब प्रान ॥ ८९ ॥ नरभव कारण मुक्तका, चाहत इंद्र फनिंट । ताको खोवत विसनम, सो निंदनमें निंद ॥ ९० ॥ जैसो गादौ विसनमें, तैसौ ब्रह्मसौं होय । जनम जनमके अघ किये, पलमै नासै धोय ॥ ९१ ॥ कीने पाप पहार से, कोटि जनममैं भूर । अपना अनुभव वनसम, कर डाले चकचूर ॥ ९२ ॥ हितकरनी धरनी सुजस, भयहरनी सुखकार । तरनी भवदधिकी दया, वरनी पटमत सार ।। ९३ ।। दया करत सो तात सम, गुरु नृप भ्रात समान । दयारहित जे हिंसकी, हरि अहि अगनि प्रमान ॥९४॥ पंथ सनातन चालजे, कहजे हितमित वैन । अपना इष्ट न छोड़जे सँहजे चैन अचैन ।। ९५ ॥ १ अड़नेवाला घोडा । २ ऋषीश्वर । ३ सेवन करते हैं। ४ चलिये । ५ कहिये । ६ छोड़िये । ७ सहिये । ।

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