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विरागभावना ।
अपर्ने भाव विगाड़तें, निहचे लागत पाप । पर अकाज तो हो न हो, होत कलंकी आप ॥ ६७॥ जितौ पाप चितचाहसौं, जीव सताए होय । आरंभ उद्यमको करत, तातै थोरी जोय ॥ ६८॥ ये हिंसाके भेद हैं, चोर चुगल विभिचार । क्रोध कपट मद लोभ फुनि, आरंभ असत उचार ॥६९॥ चोर डरे निद्रा तजे, कर हैं खोट उपाय । नृप मार मारै धनी, परभी नरकां जाय ।। ७० ॥ छाने पर चुगली करें, उजल भेष बनाय । ते तो युगला सारिखे, पर अकाज करि खाँय ।। ७१ ॥ लाज धर्म भय ना करें, कामी कुकर एक । भेनं मानजी नीचकल. इनके नाहिं विवेक || ७२॥ नीति अनीति लखें नहीं, लखै न आपविगार । पर जारे आपन जरे, क्रोध अगनिकी मार ॥ ७३ ॥ तन मृधे मधे वचन, मनमै राखें फेर । अगनि ढकी तो क्या हुआ, जारत करत न बेर ॥७४॥ कुल ब्योहारका तज दिया, गग्बीले मनमाहिं । अवसि परेंगे कप ते, जे मारगमें नाहिं ।। ७५ ।। बाहिर चुगि शुरु उड़ गये, ते तो फिर खुस्याल । अति लालच भीतर धसे, ते शुक उलझे जाल ॥ ७६ ॥
१ छुप करके । २ वहिन । ३ तोते ।