Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 84
________________ ६८ बुधजन-सतसईसुलव्यौ भील अज्ञान हू, वनमै लखि मुनिराज । अनुक्रम विधिकौं काटकै, भए नेमिजिनराज ॥३८॥ अनुभवप्रशंसा। इंद्र नरिंद फनिंद सब, तीन कालमैं होय । एक पलक अनुभौ जितौ, तिनको सुख नहिं कोय ।।३९॥ पूछ कैसा ब्रह्म है, केती मिश्री मिष्ट । स्वादै सो ही जान है, उपमा मिलै न इष्ट ॥४०॥ अनुभौरस चाखे विना, पढवेमैं सुख नाहिं । मैथुन सुख जानै न ज्यौं, कारी गीतनमाहं ॥४१॥ जानै चाख्यो ब्रह्मसुख, गुरुते पूछि विधान । कोटि जतनहके कियें, सो नहिं राचै आन ॥४२॥ बांझ-भेष उज्जल किया, पाप रहा मनमाहि । सीसी बाहिर धोवतां, उज्जल होवै नाहि ॥४३॥ पहिले अंदर सुध करै, पीछे बाहर धोय । तब सीसी उज्जल बनै, जानें सिगरे लोय ॥४४॥ गुरुप्रशंसा। गुरु विन ज्ञान मिलै नहीं, करो जतन किन कोय । विना सिखाये मिनख तौ, नाहि तिर सके तोयें ॥४५॥ जो पुस्तक पढ़ि सीख है, गुरुकौं पछै नाहिं। सो सोभा नाही लहै, ज्यौं वक हंसामाहिं ॥४६॥ । १ बागवेष-उपरी रूप । २ वोतल बाटली । ३ मनुष्य । ४पानी। । ।

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