Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 82
________________ ६६ वुधजन-सतसईजो निज अनुभव होत सुख, ताकी महिमा नाहि । सुरपति नरपति नागपति, गखत ताकी चाहि ॥१९॥ मोह तात है जगतका, संतति देत बढ़ाय । आपा-पर-सरधानते, हटै घटै मिट जाय ॥२०॥ पंचपरमगुरुभक्ति विन, घटै न मोको जोर । प्रथम पूजकै परमगुरु, काज करी फनि और ॥२१॥ गई आयुको जोईये, कहा कमायो धर्म । गई सुगई अबह करी, तो पाचौगे शर्म ॥२२॥ ऑपत आगम परम गुरु, तीन घरमके अंग । झूठे से धर्म नहि, सांचे सेयै रंग ॥२३॥ अपने अपने मतविष, इष्ट पूज हे ठीक । ऐसी दृष्टि न कीजिये, कर लीजे तहकीक ॥२४॥ रहनी करनी मुख वचन-परंपरा मिलि जाय । दोषरहित सब गुनसहित, सेजे ताके पाय ॥२५॥ दोप अठारातै रहित, परमौदारिक काय । सब ज्ञायक दिवि-धुनिसहित, सो आपत सुखदाय ॥२६॥ आँपत-आननका कह्या, परंपरा अविरुद्ध । दयासहित हिंसारहित, सो परमागम सिद्ध ॥२७॥ वीतराग विज्ञान-धन, मुनिवर तपी दयाल । १ मोहका । २ देखिये । ३ मोक्ष। ४ अप्ति-सबा देव । ५ सेइये । ६ प्राप्तके मुखका कहा हुआ।

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