Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 80
________________ ६५ -- बुधजन-सतसईश्रेणिक नृप संबोधतें, धर्मरुची मुनिराज । त्याग कुध्यान सुम्यान गहि, भये मुक्त करि काज । समुद्र तरया कन्या वरचा, बहुरि भया अधिराज। प्रीतंकर मुनि होइ के, लयो मुक्तको राज ॥६००॥ लव अकुस सुन राम पति, जनक रूप से बाप । • हरन अनि जग्ना अगनि, सोता भुगत्या पाप ॥१॥ भर्ता अर्जुन पांडवा, हितू कृष्ण महाराज । तऊ दुमालन ची गहे, हो द्रौपदो लाज ॥२॥ बाल वृद्ध नागरी पुरुष, ज्ञानी त न धीर । कन्या कुमारी चंदना, गत्या दुख गंभीर ॥३|| साहमतै टरि ज्या विति, मैनासुंदरि धीर । कोढ़ी वरकौं आदरयौ, कंचन हुवौ सरीर ॥४॥ टरै घोर उपसर्ग सब, सांचे गादविचार । वारिवेन सुकुमार सिर, भई हार तावार ॥५॥ कहा प्रोति संतारने, देखौ खोटी बात । पीव जिमाई अहि डसी, मंगी (१) की नौं घात ॥६॥ नारिनका विसवास नहि, औगुन प्रगट निहार ।' रानी राची कूवर, लियौ जसोधर मार ॥७॥ भोज-नारि म्हावत रची, म्हावत गनिका संग। गनिका फल ले नृप दियौ, इसौ जगनको रंग ॥८॥ १ समुद्र । २ अरण्य वनवासन.. ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91