Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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बुधजन सतसईलखि सरूप संसारका, पांडव भए विराग । रहे सुथिर निज ध्यानमैं, टरे न जरते आग ॥७९॥ पले कहां जनमैं कहां, ह. धनैं नृपमान । कृष्ण त्रिखंडी भ्रांत-सर, गए तिसाए प्रान ॥८॥ दशमुख हारयो कष्टतै, सह्यो सीत वनवास । अगनि निकस दिख्या गही, भई इंद्र तजि आस ॥१॥ बाल हरयौ सुरकर परयो, पल्यौ आन जा थान । प्रदुमन सोलह लाभ ले, मिल्यौ तात रन ठान ॥८२॥ त्यागी पीहर सासरे, डरी गुफाके कौन । गई माम घर सुतसहित, मिली अंजना पौन' ॥८॥ रानी ठानी कुक्रिया, सारी निसि तजि लाज । सील सुदर्शन ना तज्यौ, भन्यौ हिये जिनराज ॥४॥
चुभ्यौ रोम सुकुमार तन, रहे करत वर भोग । सह्यौ स्याल-उपसर्ग-दुख, प्रथमहिं धारत जोग ॥८५॥ मात तात पांचौं तिया, सब कर चुके विचार । दिख्या धरके सिव वरी, स्वामी जंवुकुमार ॥८६॥ भव षट की. कमठ हठ, सहे दुष्ट उपसर्ग । पारसप्रभु समता लई, करम काटि अपवर्ग ॥८७॥ . सहे देशभूषन मुनी, कुलभूषन मुनिराय । घोर वीर उपसर्ग सुर, केवलज्ञान उपाय ॥८॥
१ जगत्कुमारके बाणसे । २ दीक्षा । ३ पवनंजयसे।

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