Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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विरागभावना। भोग विसन सुख ख्यालमै, दई मनुपगति खोइ । ज्यौं कपूत खा तात धन, विपता भोगै रोइ ॥६८॥ मुनी थके गेही थके, थाके सुरपति सेस । मरन समय नाहीं टर, हो है वाही देम ॥१९॥ नरक निकसि तिथंच है, पशु है तिर्नग देव । दुर्निमार फिरना सदा, संसारीकी टेर ॥७॥ रोग सोग जामन मरन, क्षुधा नींद भय प्यास । लघु दीरघ बाधा सदा, संसारी दुखवास ॥७॥ संसृत वस्तु न आन कछु, है ममतासंयुक्त । ममता तजि समता लई, ते हैं जीपनमुक्त ॥७२॥ मो-ममता जलतें प्रबल, तरु अग्यान संसार । जनम मरन दुख देत फल, काटौ ज्ञान-कुहार ॥७३॥ मगन रहत संमारमै, तन धन संपति पाय । ते कवहूं वच है नहीं, मूते आग लगाय ॥७४॥ जे.चेते संसारमैं, सुगुरु वचन सुनि कान । ता माफिक साधन करत, ते पहुंचे शिस्थान ||७५॥ संसारीको देख दुख, सतगुरु दीनदयाल । सीख देत जो मान ले, सो तौ होत खुस्याल ॥७॥ अति गभीर संसार है, अगम अपारंपार । बैठे ज्ञानजिहाजमैं, ते उतरे भवपार ॥७७॥ जे कुमती पीड़े हरें, पर तन धन तिय प्रान। लोभ क्रोध मद मोहते, ते संसारी जान ||७८॥

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