Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 76
________________ ६०' बुधजन-सतसईसरतेमैं करते नहीं, करते रहे विचार । 'परनिर छोड़ी बापके, फिर पछतात गवॉर ॥५८॥ अहिनिस पानी जगतके, चले जात जमथान । सेसा थिरता गहि रहे, ए अचरज अज्ञान ॥५९॥ नागा चलना होयगा, कछु न लागे लार । लार लैन का है मता, तो ठानों दातार ॥६॥ नरनारी मोहे गये, कंचन कामिनिमाहिं । अविचल सुख तिन ही लिया, जे इनके बस नाहिं ॥६॥ मिथ्या रुज नास्यौ नहीं, रह्यो हियामें वास । लीयौ तप द्वादस वरस, किया द्वारिका नास ॥६२॥ कहा होत विद्या पढ़े, विन परतीति विचार । अंभविसेन संज्ञा लई, कीनों हीनाचार ॥६३।। विना पढ़े परतीति गहि, राख्यो गाढ़ अपार । याद करत 'तुष-भाष' कौं, उतर गये भवपार ॥६॥ आपा-पर-सरधान विनु, मधुपिंगल मुनिरण्य । तप खोयौ बोयौ जनम, रोयौ नरकमेशाय ॥६५॥ कोप्यौ मुनि उपसर्ग सुनि, लो-यौ नृप पुर देस । कीनौं दंडकवन पिवम, लीनों नरकप्रवेस ॥६६|| सुख भानै भानै धरम, जोगनधनमदअंध । माल जानि अहिको गहैं, लही विपति मतिअंध ॥६७॥ १ व्याह करके।

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