Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 74
________________ बुधजन-सतसईमोमाते सब ही भये, बोलें बोल कुत्रोल । मिलवौ बसियो एक घर, बचचौ म्हों अबोल ॥३९॥ जगजन कारज करत सन, छलबल झूठ लगाय । इसा काज कोविद करे, जाम धरम न जाय ॥४०॥ "आंसी सो जासी" मही, टे जुर गई प्रीति । देखी सुनी न सालती, अथिर भगदी रीति ॥४१॥ सत्र परजायनिको सदा, लागि रह्या संस्कार । विना सिखाये करत यौं, मैथुन हाँ निहार ॥४२॥ ममता और ममता । सुनें निपुन ममताविर्षे, कारन ओर हजार । विना सिखाये गुरुनके, होत न समताधार ॥४३॥ आकुलता ममता तहां, ममता कुखकी नीव । समता आकुलता हरै, तातै सुखकी सीव ॥४४|| समता भवदघिसोसनी, ज्ञानामृतकी धार । भयातापकौं हरत है, अद्भुत सुखदातार ॥४५॥ समतात चिंता मिटै, मैंटै आतमराम । ममतात विकलप उठे, हेरै सारा ठाम ॥४६॥ ममताको परिकर धनौ, क्रोध कपट मद काम । त्या समता एकली, बैठी अपने धाम ||४७|| १ मोहमाते-मोहमें मतवाले। २ ज्ञानी। ३ आया है सो जायगा। ४ आहार भोजन। ५ नीहार-पाखाना।६ परिवार।

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