Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 72
________________ बुधजन-सतसईनिसि सूते संपतिसहित, प्रात हो गये रंक । सदा रहे नहिं एकसी, निर्भ न काकी बंक ॥२०॥ तुछ स्यानप अति गाफिली, खोई आयु असार । अब तो गाफिल मत रहो, नेडा आत करार ॥२१॥ राचौ विरचौ कौनसौं, देसी वस्त समस्त । प्रगट दिखाई देत है, भानुउदय अर अस्त ॥२२॥ देधारी बचता नहीं, सोच न करिये भ्रात । तन तौ तजि गे रामसे, रावनकी कहा बात ॥२३॥ आया सो नाही रह्या, दशरथ लछमन राम । तू कैसे रह जायगा, झूठ पापका धाम ॥२४॥ करना क्या करता कहां, धरता नाहिं विचार । पूंजी खोई गांठकी, उलटी खाई मार ॥२५॥ धंधा करता फिरत है, करत न अपना काज । घरकी झुंपरी जरत है, पर घर करत इलाज ॥२६॥ किते द्योसें वीते तुम, करते क्यों न विचार । काल गहेंगा आय कर, सुन है कोन पुकार ॥२७॥ जो जीये तो क्या किया, मूए क्या दिया खोय । लारै लगी अनादिकी, देह तजै नहिं तोय ॥२८॥ तजै देहसौं नेह अर, माने खोटा संगें। १ स्यानपना-चतुराई । २ नजदीक । ३ देहधारी-जोव । ४ दिवस-दिन । ५ परिग्रह।

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