Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 70
________________ विरागभावना। केश पलटि पलटया वेपू, ना पलटी मन बॉक । बुझे न जरती झूपरी, ने जर चुके निसांक ॥१॥ नित्य आयु तेरी झरै, धन पैले मिलि खॉय । तू तो रीता ही रह्या, हाथ झुलाता जाय ॥२॥ अरे जीव भववनविषै, तेरा कौन सहाय । काल सिंह पक तुझे, तब को लेत चाय ॥३॥ को है सुत को है तिया, काको धन परिवार । आके मिले सरायमै, दिछुरैगे निरधार ॥४॥ तात मात सुत भ्रात सत्र, चले सु चलना मोहि । चौष्टि वरप जाते रहे, कैसे भुलै नोहि ॥५॥ बहुत गई तुछ सी रही, उस्मै धरौ विचार । अब तो भूले डूबना, निषट नजीक किनार ॥६॥ झूठा सुत झूठी तिया, है ठगसा परिवार । खोसि लेत है ज्ञानधन, मीठे बोल उचार ॥७॥ आसी सो जासी सही, रहसी जेते आय। . अपनी गो आया गया, मेरा कौन बसाय ॥८॥ जावो ये भावी रही, नाहीं तन धन चाय । मैं तो आतमरामके, सगन रह गुन गाय ॥९॥ १ वपु-शरोर । २ दूसरे लोग । ३ आयु-उमर!

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