Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 71
________________ विरागभावना। जो कुबुद्धित बन गये, ने ही लागे लार । नई बुधकरि क्या फर्म, करता बनिर अबार ॥१०॥ चोंटी मीठा ज्या लग, परिकाके चहुंओर। तू या दुखको मुख गिर्ने, याही तुझमें भोरे ॥११॥ अपनी अपनी आयु ज्यों, रह है तेरे माथ । नेरे गखे ना रहें. जो गहि गख हाथ ॥१२॥ में पिछले मर गये, तसे तेग काल । काके कई नचिंत है, करता क्यो न संभाल ॥१३॥ आयु कटन है गतदिन, ज्यौं करोतते काठ । हित अपना जलढी करी, पढ़या रहेगा ठाठ ॥१४॥ संपति विजुरी मारिमी, जोवन बादर रंग । कोविद कमें गच है, आयु होत नित भंग ॥१५॥ परी म्हंगी संपदा, धरी रहेंगी काय । छलबलकार क्यों हु न बचे, काल अपट ले जाय ॥१६॥ बनती देखि बनाय ले, फुनि जिन राख उधार । "बहते वारि पसार कर" फेरि न लाम वारि ॥१७॥ विमन भोग भोगत रहे, किया न पुन्य उपाय | गांठ खाय गते चले, हेटवारे आय ॥१८॥ साची खग्ची दान द्या, विलसी मन हरपाय । संपति नह-पाबाह ज्यों, रासी नाहि रहाय ॥१९॥ १ वनकरके । २ भोलापन । ३ पंडित-विवेकी। ४ बाजारम। ५ नदाके प्रवाहके समान । , , -

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