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बुधजन-सतसईभलौ भलौ फल लेत है, चुरौ बुरों फल लेत । तू निरदह है मारकै, क्यों ह पापसमेत ॥२॥ नैकु दोष परको विय, बा बढी कलेम । ने पातखि प्राननि हाँ, ता | चक्यों असेस |८३|| प्रान पोषना धर्म है, प्रान नासना पाप।। ऐसा परका कीजिये, जिमा सुहावै आप ॥२४॥
सोलन धारा निन्दा, आप ||
प्रान पलत है धन रहे, तातै तासों प्रीति । सो जोरी चोरो कर, ता सम कोन अनीति ॥८५॥ लौं मरें घर तजि फिरे, धन प्रापति के हेत । ऐसेकौं चोरै हरे, पुरुष नहीं वह प्रेत ॥८६॥ धनी लौ नृप सिर हरै, बसें निरंतर घात । निपीक है चोर न फिरे, डरै रहै उतपात ||८७॥ बहु उद्यम धन मिलनका, निज परका हितकार। सो तजि क्यों चोरी कर, तामै विवन अपार ॥८॥ चोरत डर भोगत डरे, मरै कुगति दुख घोर। लाभ लियौ सो ना टर, मूरख क्यों है चोर ॥८९॥ चिंता चितः ना टरै, डरै सुनत ही बात । प्रापतिका निहचै नहीं, जाग हुए मर जात ॥९०|| चोर एकतै सत्र नगर, डरै जगै सब रैन । ऐसी और न अधमता, जामैं कहूं न चैन ॥९१॥
१ भूत । २ निडर।
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