Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 59
________________ .४५ · उपदेशाधिकार। मोह कोह दौकरि तपै, पिवै न समता वारि । विप खावै अमृत तजै, जात धनंतर हारि ॥१६॥ दान धर्म व्यापार रन, कीजे सकति विचार । विन विचार चालें गिरें, ऑड़े साइमँझार ॥१७॥ आमद लखि खरचै अलप, ते सुखिया संसार । विन आमद सरचे धनी, लहैं गार अर मार ॥२८॥ लाख लाज विन लाख सम, लाजसहित लख लाख । भला जीवना लाजजुत, ज्यौं त्यो लाजहिं राख ॥१९॥ कुशल प्रथम परिपाक लख, पीछे काज रचात । पिछा पाँव उठाय तब, अगली ठौर लखात ॥२०॥ देव मनुप नारक पशू, सबै दुखी करि चाहि । विना चाह निरभै सुखी, वीतराग विन नाहि ॥२१॥ जीवजात सब एकसे, तिनमें इता विनान । चाह सहित चहुंगति फिर चाह रहित निरवान ॥२२॥ गुरु ढिग जिन पूछी नहीं, गह्यौ न आप सुभाव । सूना घरका पाहुना, ज्यों आवे त्यों जाय ॥२३॥ विद्याप्रशंसा। जगजन बंदत भूपती, ताह (?) अधिक विद्वान । मान भूपती देश निज, विद्या सारे मान ॥२४॥ . १ दावासे-अग्निसे. । २ धन्वन्तरि वैद्य ! ३ गहरे गढ़ेमें। ४ लाख (चपड़ा) के समान १५भेद--विज्ञान । -

Loading...

Page Navigation
1 ... 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91