Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 60
________________ - बुधजन-सतसईदारिद संपतिमैं सदा, सुखी रहत विद्वान । आदरतें लाभै सु लै, सह नाहिं अपमान||२५|| या भव जस परभव सुखी, निग्भ रहे सदीय । पुन्य बढ़ावे अब हरे, विद्या पहिया जीव ॥२६॥ गज चोर डरपै धनी, धन खरचत घट जाय । विद्या देते मान बढे, नरपति बंद पाय ॥२७|| दरववान डरपत रहै, ना बैठे जा थान । भूपसभा चतुरनविर्षे, अति उद्धृत विद्वान ॥२८॥ च्यारि गतिनमैं मनुपकों, पढिवेकी अधिकार । मनुप जनम धरि ना पढ़े, ताका अतिविकार ।।२९॥ पुस्तक गुरु थिरता लगन, मिलै सुथान सहाय । तब विद्या पढिवा वनै, मानुप गति परजाय ॥३०॥ जो पढि करै न आचरन, नाहिं कर सरधान । ताको भणिवौ बोलिवो, काग वचन परमान ॥३१॥ रिपु समान पितु मातु जो, पुत्र पढ़ा नाहिं । सोभा पावै नाहिं सो, राजसभाके माहिं ॥३२॥ अलप असन निद्रा अलप, ख्याल न देखे कोइ । आलस तजि घोखत रहे, विद्यारथि सुत सोइ ॥३३॥ पांचयकी सोलह वरस, पठन समय यो जान । तामै लाड़ न कीजिये, फुनि सुत मित्र समान ॥३४॥ . १ पढ़ना । २ सोलह बससे अधिक उमरके पुत्रको मित्रक समान मानना चाहिये।

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