Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 58
________________ - - - - - ४४' बुधजन-सतसईथोरा ही लेना भला, बुरा न लेना भौत । अपजस सुन जीना वुरा, तात आछी मौत ॥६॥ स्वामिकाज निज काम है, सधै लोक परलोक । इसा काज वधजन करौ. जामैं एते थोक ॥७॥ कहा होत व्याकुल भए, व्याकुल विकल कहात। कोटि जतनत ना मिटै, जो होनी जा स्यात ॥८॥ जामैं नीत बनी रहै, बन आवै प्रभु नाम । सो तौ दारिद ही भला, या विन सबै निकाम ॥९॥ जो निंदातें ना डरै, खा चुगली धन लेत । वातै जग डरता इसा, जैसे लागा प्रेत ॥१०॥ कुलमरजादाका चलन, कहना हितमित वेन । छोड़ें नाहीं सतपुरुष, भोग चैन अचैन ॥११॥ दारिद रहै न सांसता, संपति रहै न कोय । खोटा काज न कीजिये, करौ उचित है सोय ॥१२॥ मानुषकी रसना वसैं, विष अर अंमृत दोय । भली कहैं बच जाय है, बुरी कहैं दुख होय ॥१३॥ अनुचित हो है वसि विना, तामै रहौ अबोल । बोलेते ज्यौं वारि लगि, सायर उठे कलोल ॥१४॥ . तृष्णा कीएं का मिलै, नास हित निज देह । सुखी संतोपी सासता, जग जस रहै सनेह ॥१५॥ १ शाखत-निरन्तर।

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