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उपदेशाधिकार। ताका भारख्या मांच नहि. झूठा कर है कोल ॥५५॥ लोकरीतिको छाडिक, चालत है विपरीनि । धरम मीख तामों कहें, अधिकी कर अनीति ॥५६॥ जो मनमुख थिरह मुन, नाका दीजे सीख । विनयरहित धंधा (?) महित. मांगे देय न भीख ।।५७॥ पहले किया मा अब लिया, मोग गेग उपभोग । अब कग्नी ऐसी कग, जो परमवके जोग ॥५८॥ जो कर ही मो पाय हो, बात तिहारे हाथ । विकल्प तजि मटयुध कर्ग, कंग्तव तनी न साथ।।५९।।
ओडि मुहर लाभ न पल, मो मति वृथा गमाय । करि कमाय आजीविका के प्रभुका गुन गाय ।।६।। घाम गखतं रहत हैं, प्रान धान धन मान । घग्म गमन गम जात हैं. मान धान धन प्रान ॥६॥ धर्म हग्न अपना मरन, गिन न धनहित जोय । याँ नहिं जान मृढ़ जन, मरे भोगि है कोय ॥६२।। चातुर खग्चत विन मर, पूंजी दे न गमाय । के भोग के पुन कर, चली जात है आय ।।६३।। भावी रचना फेरि दे, रसम कर उदास । टरची मुहरत गजको, राम भयौ वनवास ॥१४॥ कोटि कर्ग परपंच किन, मिलि है प्रापति-मान ।
१ कसम । २ कर्तव्य। ३ पुण्य । ४ आयु-उमर । ५होनहार, भवितव्य । ६ रंगमें भंग।