Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ बुधजन-सतसई ३८ करि संचित कोरो रहै, मूरख विलसि न खाय । माखी कर मींड़त रहै, संहद भील ले जाय ॥४५॥ कर न काहुसों वैर हित, होगा पाप संताप । स्वतै बनी लखिबौ करौ, करिबौकर प्रभु-जाप ॥४६॥ विविधि बनत आजीविका, विविधि नीतिजुत भोग । तजकै लगैं अनीतिमैं, मुकर अधरमी लोग ॥४७॥ केवल लाग्या लोभमैं, धर्मलोकगति भूल । या भव परभव तासका, हो है खोटी मूल ॥४८॥ उद्यम काज इसा करें, साधैं लोक सुधर्म । ते सुख पावें जगतमै, काटें पिछले कर्म ॥४९॥ पर औगुन मुख ना कहैं, पोर्षे परके प्रान । विपतामैं धीरज भजै, ये लच्छन विद्वान ॥५०॥ जो मुख आवै सो कहै, हित अनहित न पिछान | विपति दुखी संपति सुखी, निलज मूढ सो जान ॥५१॥ धीर तजत कायर कहैं, धीर धरेत वीर । धीरे जानै हित अहित, धीरज गुन गंभीर ॥५२॥ खिन हॅसित्रौ, खिन रूसिवा, चित्त चपल थिर नाहिं । ताका मीठा बोलना, भयकारी मनमाहि ॥५३॥ विना दई सोर्गन कर, हॅसि बोलनकी वान । सावधान तासौं रहो, झूठ कपटकी खान ॥५४॥ जाका चित आतुर अधिक, सडर सिथिल मुख बोल। १ शहद-मधु । २ कसम । ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91